निष्ठा का प्रकटावा

भारत के लिए यह सम्मान की बात कही जा सकती है कि पिछले 75 वर्षों से यहां लिखित संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी है। भारतीय संविधान सभा ने 26 नवम्बर, 1949 को रस्मी तौर पर संविधान को अपनाया था और 26 जनवरी, 1950 को इसको लागू किया गया था। इसकी निरंतरता देश की एकता और मज़बूती का आधार बनी रही है। चाहे इस लम्बे समय में देश की तत्कालीन सरकारें बड़े स्तर पर व्याप्त गरीबी के जूले को नहीं उतार सकीं, न बढ़ती बेरोज़गारी और इसके साथ ही बढ़ती जनसंख्या पर भी प्रभावशाली ढंग के साथ काबू पाया जा सका है लेकिन अन्य अनेक क्षेत्रों में देश ने बड़ी तरक्की की है। आज यह विश्व की पांचवीं आर्थिक शक्ति है। यह भी दावा किया जा रहा है कि आगामी वर्षों में यह विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। परन्तु इसके साथ ही आर्थिक असमानता की बढ़ती दरार ने इसकी लोकतांत्रिक भावना को ग्रहण ज़रूर लगाया हुआ है। 
चाहे संविधान में देश के प्रत्येक नागरिक को विकास के लिए एक समान मौके उपलब्ध करवाने का संकल्प पेश किया गया है परन्तु बड़े स्तर पर आर्थिक असमानता के होते तराजू बराबर नहीं तौल सका। देश की संसद के दोनों सदनों में चल रही शीतऋतु सत्र के दौरान संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर हो रही बहस के दौरान अनेक ही भिन्न-भिन्न पहलू सामने आए। सरकारी पक्ष, विपक्षी दल बड़े नेताओं ने एक-दूसरे की सरकारों की कारगुज़ारी संबंधी अनेक पक्षों से आलोचना की। शुरू से लेकर आज तक जो भी पार्टियां केन्द्र में सत्तारूढ़ रही हैं, उनके बड़े नेताओं की कमियों की समालोचना की गई है। जहां भाजपा नेताओं ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों की पूरी समीक्षा की, वहीं विपक्षी दल के नेताओं द्वारा पिछले 10 साल की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार पर भी तीखे हमले किये गये लेकिन लगभग सभी ने ही संविधान की भावना को सुरक्षित रखने की बात ज़रूर की है। विगत समय के दौरान कांग्रेस की सरकारों के समय जो नकारात्मक घटनाक्रम सामने आए, उनके लिए भी विपक्षी राजनीतिक नेताओं को निशाना बनाया गया है। 
इसमें वर्ष 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपात काल भी शामिल था, जिसमें संविधान को लम्बे समय तक ताक पर रख दिया गया था। शहरी स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई थी और बड़े नेताओं को जेलों में भी बंद कर दिया गया था। इस समय चाहे कांग्रेसी नेता संविधान की रक्षा की बात अवश्य करते हैं, परन्तु उनके पास  लगाये गये आपात काल के बचाव में कोई प्रभावशाली तर्क नहीं है। इसी प्रकार ही 1984 में सिख कत्लेआम संबंधी भी वे अभी तक बचाव की नीति पर ही चलते दिखाई दे रहे हैं। जहां तक विगत 10 वर्षों के भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का संबंध है, उस पर एकतरफा साम्प्रदायिक भावनाओं को हवा देने के गम्भीर आरोप लगते रहे हैं। विपक्षी नेताओं के अनुसार लगातार ऐसा माहौल सृजित किया जाता रहा है, जो देश के अलग-अलग सम्प्रदायों में बड़ा तनाव पैदा करने का कारण बनता रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाली कई राज्य सरकारें आज भी साम्प्रदायिक माहौल पैदा करने की भागी बन रही हैं। भाजपा की केन्द्र सरकार अपने वैधानिक फज़र्ों की पूर्ति करते हुए ऐसे अवसरों पर संविधान की भावना के अनुसार अपनी ओर से कोई सख्त संदेश देती दिखाई नहीं देती, जो समूचे बिगड़ते माहौल के साज़गार बनाने में सहायक हो सके। ऐसा माहौल देश के विकास में जहां बड़ी बाधा बनता है, वहीं नफरत के माहौल को बढ़ाने में भी सहायक होता है।
हम समझते हैं कि अब तक हुई इस समूची बहस में  एक बात अवश्य प्रमुखता से उभर कर सामने आई है, कि सभी पार्टियां अपने लिखित संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का प्रकटावा कर रही हैं। यदि इस संविधान में अब तक 6 दर्जन से अभी अधिक संशोधन हो चुके हैं, तो इन्हें बड़ी सीमा तक समय की ज़रूरतों के अनुकूल ही कहा जा सकता है। प्रत्येक पार्टी के अपने-अपने सिद्धांत हैं। प्रत्येक सरकार की अपनी-अपनी कार्यशैली है, परन्तु संवैधानिक मान्यताओं के बारे में प्रतिबद्ध एवं सचेत होने से ही देश एक बड़ी शक्ति बन सकता है। की गई सभी आलोचनाओं एवं तत्कालीन सरकारों की रह गई त्रुटियों के बावजूद यदि भारतीय संविधान के प्रति सभी पार्टियां अपनी निष्ठा का प्रकटावा करती हैं और उस पर पहरा देने के लिए वचनबद्धता दोहारती हैं तो देशवासियों के लिए इसे एक अच्छा संदेश ही माना जा सकता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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