असफलता का उत्सव

‘तुम बहुत अच्छे आदमी हो, इसीलिये नाकामयाब हो।’ छक्कन जो सफलता की सीढ़ियां तय करते हुए श्री छक्कन और अब छक्कन बाबू बन चुके हैं, ने उसे कहा।
वह आज की दुनिया में अपने अच्छा आदमी हो जाने की उपाधि को एक और ताज़ा ज़ख्म की तरह सहलाता हुआ, और शर्मिन्दा हो गया।
उसे झट से बिछुड़ी उपन्यास की याद आई और वह उन शोभायात्राओं के बारे में सोचता रहा, जो झांझ और करताल बजाते हुए रोज़ उसके सामने से गुज़र जाती हैं। यह शोभायात्रा कभी एक नेता के लिए होती है, और कभी दूसरे नेता के लिये। कभी एक सफल आदमी के लिये होती है, और कभी दूसरे के लिये। उसे समझ नहीं आता कि उसे इन शोभायात्राओं को स्वीकार उनके आगे-आगे चलते हुए नेता लोगों या सफल आदमियों के चेहरे एक जैसे क्यों लगते हैं?
उनके पीछे चलती भीड़ भी तो नहीं बदलती। कभी एक सपने से आश्वस्त हो जिन्दाबाद होती हुई भीड़ कभी किसी दूसरे सपने से, भीड़ को कह दिया जाता है, कि ‘देखिये हमने महंगाई को खत्म कर दिया।’ उसके खत्म हो जाने के आंकड़े प्रस्तुत कर दिये जाते हैं। इस घोषणा से प्रसन्न होकर जो आदमी उनकी शोभायात्रा में जुड़ जाये, वही अच्छा आदमी कहलाने की अधिकारी है। जो बाज़ार भावों में कमी नहीं बल्कि बढ़त देख कर किन्तु परन्तु करे उससे पथ भ्रष्ट कोई और है नहीं। नासमझ कोई और नहीं।
यह युग अब सवाल उठाने का नहीं, रज़ामंदी में सिर हिलाने का बन गया है। ‘राज़ी है हम जिसमें तेरी रज़ा है’ पहले हम ऊपर वाले से हाथ जोड़ और सिर नवा कर कहा करते थे। हाथ जोड़ने और सिर नवाने की परम्परा तो वही रही, लेकिन अब यह ऊपर वाले के लिये नहीं, जो इस सात आसमान में से कहीं किसी अबूझ जगह पर छिपा हुआ है। उसके आसमान में उसके लिए तो कभी प्रकट नहीं होता, चाहे उसे कितना ही मना लो। उसके आस-पास प्रकट होते हैं तो यही नये उभरे खुदा, जो पांच बरस के बाद उनका समर्थन मांगने के लिए उनके घर की दहलीज के इधर-उधर दिखाई देते हैं। फिर कुर्सी मिल जाने पर जन-सेवा के नाम पर अपनी पूजा अर्चना में लग जाते हैं। स्मृति भ्रम उनके लिए कोई बीमारी नहीं एक सुविधा है। जब चाहे उसे ओढ़ लो। वक्त पड़े तो उसे उतार कर आपका अपना बन खीसें निपोरते हुए उसकी दहलीज़ तक चले आओ। विजय दुंदभि बजानी है न।
‘होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे।’ वह तो यह भी नहीं कर पाता क्योंकि यह तमाशा ही अब ज़िन्दगी की वास्तविकता बन गई है, और मुखौटों ने चेहरों की जगह ले ली है। वक्त के मुताबिक ये चेहरे बदल दिये जाते हैं। कल आपके दु:ख में आंसू बहाता आदमी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए खलनायक की तरह अट्टहास करता भी नज़र आ सकता है।
वैसे भी ज़माना आदर्शवादी नायकों का नहीं, अपनी इच्छापूर्ति के लिए कुछ भी कर गुज़रने वाले खलनायकों का बन गया है। अपना अतीत भूल कर वर्तमान पर शासन करने का दावा करने वाले खलनायकों का।
इस युग को अनायक युग कहते हो तो कोई गलती नहीं। क्योंकि सत्य पर ऐसे झूठ का शासन है कि झूठ सच बन गया लगता है, और सच एक निर्वासित झूठ। बहुत पहले एक क्लासिक उपन्यास यशपाल ने लिखा था ‘झूठा सच’। आज तो झूठ ही ऐसा सच बन गया है, कि लेखकों से कहो, ‘आप सच्चा झूठ लिखिये, और इसका उत्सव मनाइए।’
कह दीजिये कि हमने महंगाई को नियंत्रित कर लिया। बेकारों की उस दुनिया में रोज़गार की नई मशाल जला दी, और देश में से भ्रष्चाचार को नेस्तोनाबूद कर दिया।
आपने उत्सव मना लिया कि अपना देश दुनिया की पांचवीं आर्थिक महा-शक्ति बन गया, और तीसरी ताकत बनने जा रहा है। जिन अंग्रेज़ों ने हमारे देश पर डेढ़ सदी तक शासन किया, उन्हें हमने आर्थिक तरक्की की गति में पछाड़ दिया, और उसी देश की ओर पलायन कर जाने की अब हमारे नौजवानों की कतारें लगी हैं। आंकड़ों का मिथ्याचार कहता है कि हमारी मौद्रिक नीति ने आशातीत सफलता प्राप्त कर ली। हमारे मुद्रा-स्फीति के सूचकांक इसकी मनाही देते हैं, लेकिन खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें आज भी आम आदमी का खुदरा मंडियों में प्रवेश निषेध करती हैं, और सूचकांक कहते हैं कि गिनती करते हुए इसने खाद्य पदार्थों का महत्त्व मौसमी कह कर घटा दिया था, और अब सूचकांक के आंकड़े कुछ कहते हैं, बाज़ार आम आदमी की जेबों को देख कुछ और कहता है।
हमने भूख से मरने न देने की गारण्टी तो इस देश के आम आदमी को दे दी, लेकिन उसे यथोचित रोज़गार देने की गारंटी तो आज तक नहीं दे पाये। इसीलिए इस सेहतमंद कहलाने वाले देश में एक कुपोषित समाज पैदा हो गया है, जहां साधारण बीमारियां भी महामारी बन कर साधारण जनता पर वज्रपात की तरह गिरती हैं। यह कैसा विकासशील की जगह तेज़ी से विकसित होता हुआ देश है बन्धुओ, जहां अस्सी करोड़ जनता को रियायती अनाज बांटने का मन्सूबा अनन्त काल तक बढ़ा दिया गया लगता है। यह कैसा कल्याणकारी देश है बन्धुओ, कि जहां जन-कल्याण का अर्थ अनुकम्पाओं की बरसात है। एक नई उद्यम संस्कृति की जगह एक शार्टकट संस्कृति का जय-जयकार है, जहां जाम लगते हैं, और लोग फिर भी लगातार उत्सवधर्मी होने में कोई परहेज नहीं करते। 

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