भाजपा पर संघ का दबाव कितना और क्यों ?

अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस आर.एस.एस. को हरेक सही-गलत वक्त पर कटघरे में खड़ा करना चाहती है परन्तु इससे उनको न तो राजनीतिक लाभ मिल सका, न जनता इस पर उत्तेजित हो सकी। लेकिन इतना माना जा रहा है कि संघ ने अपने वजूद के दूसरे दौर में दाखिला पा लिया है। ऊपर से खामोश नज़र आते हुए यह हमेशा चुनाव में सक्रिय रहा है, लेकिन हरियाणा, कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव इसकी राजनीति राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक दायरे में सिमटी रही है। चुनाव से पूर्व जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी की मदद के बावजूद मंचों पर सुना जाता रहा है उसके किये काम राजनीति की श्रेणी में नहीं आते। लेकिन नए दौर के चुनाव में मीडिया मंचों पर उसके अनुयायी/पैरोकार कहते नज़र आये कि पीछे से भूमिका का निर्वाह करने की जगह संघ ने भाजपा को राह दिखाने का काम किया है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में जीत का श्रेय लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। जिसका मतलब यह है कि वह गुप्त दान की मुद्रा में विश्वास कर अपना प्रभाव और प्रभाव का असर दिखाने में संकोची नहीं रह गये। इस उत्तेजना का भाजपा और संघ के रिश्तों में बदलाव नज़र आ सकता है। वह जब अपनी भूमिका खुलेआम ज़ाहिर करने लगे हैं तो दबाव की राजनीति ज्यादा दूर नहीं रहने वाली। सार्वजनिक जीवन में प्रामाणिक समझे जाने वाले दिलीप देवधर मीडिया को बताने में कोई संकोच नहीं कर रहे थे कि महाराष्ट्र चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए जितना नियोजित काम किया उतना उसने न तो 1977 के चुनाव के आपातकाल के बाद किया था और न ही 2014 के चुनाव में किया था। उनके अनुसार संघ के पश्चिमी प्रांत के प्रमुख रहे अतुल के नेतृत्व में तीन हज़ार कमांडों तैयार किये थे, जिन्होंने इस विशाल राज्य के कोने-कोने में जाकर अनुशासित तरीके से भाजपा का सन्देश फैलाये, दिये गये नारों को लोकप्रिय बनाने और फिर कांग्रेस की आलोचना करने में असंख्य स्त्री-पुरुष स्वयं सेवकों की फौज खड़ी की। अनुमान है कि प्रदेश से बाहर के करीब तीस हज़ार वर्कर वहां थे जिनका नेतृत्व और संचालन किया गया।
दो मंच विशेष भूमिका का निर्वाह करने में सफल रहे। लोक जागरण मंच और प्रबोधन मंच। संघ की इस भूमिका पर निकट से नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकारों को हैरानी हुई क्योंकि उनके अनुसार न तो लाउड स्पीकर का इस्तेमाल किया गया, न ही ध्वज फहराया गया। ऐसे में इस चुपचाप-सी दिखती मुहिम के परिणाम अधिक सफल होते ही थे। सम्पर्क की प्रक्रिया व्यक्तिगत स्तर की थी। वोटरों को तीन भागों में विभाजित किया गया। पहले हिस्से में भाजपा के पारम्परिक मतदाताओं को रखा गया। दूसरे और तीसरे वर्ग में भाजपा से दूरी बनाये रखने वाले मतदाता थे। जिन पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत रहती है। संघ के प्रचारकों ने ओ.बी.सी. मतदाताओं में जम कर भाजपा का संदेश फहराया दूसरी तरफ विदर्भ क्षेत्र को कांग्रेस के साये से निकालने के घोर प्रयत्न की ज़रूरत थी। चुनाव प्रचार में जब बीस दिन ही रह गये। नितिन गडकरी को प्रचार के लिए पुकारा गया। उनकी छवि साफ-सुथरी मानी जाती है। उन्होंने पूरे प्रदेश में सत्तर रैलियां कीं। परन्तु सफलता वह झारखंड में अंकित न कर सके। वहां उनको मनचाहे परिणाम नहीं मिल सके। महाराष्ट्र के आदिवासियों ने संघ को तरजीह दी लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने झामुमो को मतदान का अधिकारी माना। अब संघ भारतीय जनता पर अपना दबाव बना सकता है, परन्तु वह कब और कितना होगा। यह समय ही बताएगा।

#तना और क्यों ?