शताब्दी एवं ऐतिहासिक दिवस कैसे मनाये जाएं ?
गुरबाणी का कथन है:
बाबाणीयां कहानियां पुत सपुत करेनि।।
जि सतगुर भावै सु मंनि लैनि सेई करम करेनि।।
(स्लोक म. 3/ अंग : 951)
यह गुरु साहिब का साफ और स्पष्ट संदेश है कि बुजुर्गों की साखियां व कहानियां पूतों को सुपूत बना देती हैं। इन तुकों का भाव अर्थ यह लिया जा सकता है कि अपने पूर्वजों के इतिहास को बांचने वाले ही किसी कौम के वारिस होते हैं और यह अपने बाबाओं के इतिहास से सबक लेने वाले लोग वह काम करते हैं और मानते हैं, जो सतगुरु को भाता है। हो सकता है कि धार्मिक लोग इन तुकों के अर्थ धार्मिक संदर्भ में इससे कुछ अलग भी करते हों, परन्तु शाब्दिक और आम समझ अनुसार यह ज़रूर है कि हम अपने पूर्वजों, गुरुओं और इतिहास के नायकों के जीवन से सबक लें और उनकी याद और ऐतिहासिक दिन मनाएं, परन्तु क्या जिस तरह हम अपने गुरु साहिबानों की शताब्दियां मना रहे हैं, क्या वह गुरु आशय, गुरु के निर्देश और सिख कौम के सरबत के भले के असूलों पर खरे उतर रहे हैं? क्या उनका कौम, राज्य, देश, दुनिया और सर्व-जन को कोई फायदा हो रहा है? हमारी समझ और सूझ के अनुसार नहीं, ऐसा बिल्कुल ही नहीं हो रहा। हमारे सामने है कि इस प्रकार शानो-शौकत और दिखावे के साथ गुरु साहिबान की शताब्दियां मनाने की शुरुआत 1966 में साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के 300वें जन्म दिवस के समय शुरू हुई थी। इसके बाद लगातार हमने कई गुरु साहिबान की शताब्दियों या अर्ध-शताब्दियों के दिवस बहुत ही शानो-शौकत और करोड़ों रुपये खर्च कर मनाये हैं। इन करोड़ों रुपये का खर्च, जिसमें सरकारों द्वारा किया खर्च भी शामिल होता है, हम चाहे गुरु की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के नाम पर करते हैं परन्तु वास्तव में यह समय के शासकों और शिरोमणि कमेटी पर काबिज़ अकाली दल के नेताओं द्वारा अपने राजनीतिक प्रचार को मुख्य रख कर ही मनाये जाते हैं। वास्तव में गुरु आशय का प्रचार कम होता है और राजनीतिक लाभ की कोशिश ज्यादा होती है।
नहीं तो ज़रा सोचो कि 1966 से पहले का सिख किरदार और सिख होने का सम्मान आज से ऊंचा था या नीचे था? क्या 1966 से पहले कभी सुना था कि कोई सिख धर्म छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपना रहा है? क्या किसी को याद है कि मुसलमान शासकों द्वारा दिये मौत के डर और बड़े लालचों के बावजूद कितने सिख मुसलमान बने थे? क्या 1947 से पहले के अंग्रेजों के राज्य में कितने सिखों ने अंग्रेजों के ईसाई होने के बावजूद ईसाई धर्म को अपनाया? और अब पंजाब ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में कितने सिख ईसाई बन रहे हैं? क्या हमने कभी सोचा है कि 1966 से पहले कितने सिख पतित होते थे और आज उनकी संख्या कितने प्रतिशत है? क्या यह सबूत नहीं कि शताब्दियां बनाने पर हम जो पैसा, कौम का समय, कौम की ताकत खर्च कर के बड़े-बड़े समागम और नगर कीर्तन या शौभायात्रा निकाल रहे हैं, इनका फायदा सिर्फ राजनीतिक लोग ही उठाते रहे हैं, इनका कोई फायदा न तो धर्म को होता है और न ही लोगों को होता है।
अंत: क्यों न इस संबंधी सोच विचार किया जाए कि गुरु साहिब के दिवस और शताब्दियों के समय सरकारों से, संगतों से और शिरोमणि कमेटी के करोड़ों रुपये फंडों को ऐसे समारोहों पर खर्च करने के स्थान पर ऐसे मौके गुरु साहिबान की याद में कोई बड़ी संस्था बनाने पर खर्च किये जाएं जो एक तरफ गुरु के आशय अनुसार हो, मानवता की भलाई के काम आए और दूसरी तरफ गुरबाणी के प्रचार-प्रसार का काम भी करे। उदाहरण के तौर पर हर शताब्दी के समय किसी मैडीकल कालेज या आज के युग की वैज्ञानिक शैक्षणिक संस्था का निर्माण किये जाने का लक्ष्य निश्चित किया जाए और पूरा किया जाए। इस बनने वाली संस्था में गुरबाणी और गुरु साहिबान की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए डिजिटल लाइब्रेरी, ऑडीटोरियम और अलग विभाग भी बनाये जा सकते हैं। इससे कौम और गुरुओं की बसाई इस धरती के सब धर्मों के बच्चे युग के समक्ष और गुरु की शिक्षाओं और सरबत के भले की सोच वाले बन सकेंगे। हां, गुरु साहिबान की शताब्दियों के समय बिना खर्च के श्री अकाल तख्त साहिब और शिरोमणि कमेटी सिखों को अपील करे कि इस दिन प्रत्येक सिख परिवार पहले घर में बैठ कर पाठ करे, बच्चों को गुरबाणी और सिख इतिहास सुनाया जाए, सिख धर्म की शिक्षाओं के बारे में बताया जाए और इस दिन हर सिख को स्थानीय गुरुद्वारा साहिब जाने के लिए भी कहा जाए, शिरोमणि कमेटी अपने जत्थे और प्रचारक भेजे। विश्व स्तर पर विद्वान सिख दूसरे धर्मों के विद्वानों के साथ मिलकर सर्व धर्म विचार विमर्श के लिए सैमीनार करें। इस बारे में और विचार भी सिख कौम के नेता, प्रचारक और शिरोमणि कमेटी कर कती है, पर कौम की ताकत, समय, पैसा सिर्फ शानो-शौकत दिखाने के लिए लाईटें जलाने, पटाखे चलाने, बड़े-बड़े नगर कीर्तनों और समारोहों पर खर्च न किये जाएं, क्योंकि इस एक दो दिन की शानो-शौकत कौम का अधिक फायदा नहीं कर सकती।
बे-नतीजा, बे-सबब, बस बे-अमल चलते गये, हासिल-ए-जुंबश है क्या, ये हमने ना सोचा कभी।
(लाल फिरोज़पुरी)
संभावित नये अकाली दल के लिए चुनौतियां
सितारों से आगे जहां और भी हैं।
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।
(अल्लामा इकबाल)
अब 5 सदस्य कमेटी की भर्ती के बाद नया अकाली दल बनना तो तय ही है। इस संभावित अकाली दल का निशाना चाहे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव जीतना है परन्तु अभी किस को पता है कि यह चुनाव कब होते हैं। केन्द्र सरकार इनको और कितना समय लटकाएगी, यह भी कहा नहीं जा सकता। बेशक 5 सदस्यीय कमेटी को अकाल तख्त साहिब का आदेश तो अकाली दल की नयी भर्ती करके इसका ढांचा खड़ा करने का ही था, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार 5 सदस्यीय भर्ती कमेटी शिरोमणि कमेटी चुनावों के लिए अकाली दल वारिस पंजाब के और भाई रणजीत सिंह के संगठन के साथ लगभग एक निशान और एक नाम पर चुनाव लड़ने की सहमति बना चुकी है। हमारी जानकारी के अनुसार इस बातचीत की शुरुआत 5 सदस्यीय कमेटी के एक सदस्य जत्थे. संता सिंह उमैदपुरी नेकी थी, परन्तु इसके ऐलान में देरी इस के लिए की जा रही है कि पहले इस नये अकाली दल का प्रचारक चुन लिया जाए और वही इसका ऐलान करे, नहीं तो 5 सदस्यीय कमेटी और श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा दिये गये अधिकारों से आगे निकल जाने के आरोप लग सकते हैं। बेशक 5 सदस्यीय कमेटी के सदस्य आपस में पूरी एकता दिखा रहे हैं पर हमारी जानकारी के अनुसार इस भर्ती के बाद प्रधानगी लेने के इच्छुकों की संख्या बहुत बड़ी है। इनमें से पूर्व जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह, बीबी सतवंत कौर, जत्थे. संता सिंह उमैदपुरी, गुरप्रताप सिंह वडाला, सुरजीत सिंह रखड़ा के अलावा 5 सदस्यीय कमेटी के बाकी दोनों सदस्यों सहित करीब 4-5 और नाम भी चर्चा में हैं। इस बीच इस कमेटी को समर्थन दे रहे एक बड़े नेता की अकाली दल में वापसी की बातचीत चलने की चर्चा भी सुनाई दे रही है। इन सभी में से अकेले संता सिंह उमैदपुरी एक ऐसे उम्मीदवार हैं, जो ‘संत हरचंद सिंह लौंगोवाल’ की तरह सिर्फ प्रधानगी के इच्छुक तो हैं पर किसी चुनाव के लिए या मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में इस नये बनने वाले अकाली दल के लिए पहली चुनौती तो प्रधानगी के चुनाव में एकता बनाये रखने की ही है। दूसरी बड़ी चुनौती विधानसभा क्षेत्र तरनतारन के आने वाले उप-चुनाव की होगी क्योंकि तब तक पार्टी का ढांचा बन चुका होगा और तरनतारन प्राथमिक तौर पर सिख या अकाली क्षेत्र है। इस क्षेत्र से नया अकाली दल लुधियाना उपचुनाव की तरह अलग नहीं रह सकता। हमारी जानकारी के अनुसार 5 सदस्यीय कमेटी इस सीट से शहीद जसवंत सिंह खालड़ा की सुपत्नी बीबी परमजीत कौर को चुनाव लड़ने के लिए मनाने के बारे में सोच रही है, पर नयी पार्टी के लिए मुश्किल यह भी होगी, कि इस इलाके में से वारिस पंजाब के अकाली दल के भाई अमृतपाल सिंह लोकसभा सदस्य हैं। चाहे दोनों पक्षों के बीच शिरोमणि कमेटी चुनाव के लिए तो समझौता लगभग हो चुका है पर क्या विधानसभा चुनाव में ये इकट्ठे हो सकेंगे? फिर यहां से अकाली दल बादल भी अपना उम्मीदवार ज़रूर खड़ा करेगा। इसलिए इन दोनों दलों में सीधे टकराव का पहला मौका होगा, जो इस नये अकाली दल के लिए सचमुच ही एक बड़ी चुनौती होगा। इस बीच ब्लाक समिति और ज़िला परिषद चुनाव भी आने वाले हैं, जो इस नयी पार्टी के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होंगे।
राह में उसकी चलें और इम्तिहां कोई न हो।
कैसे मुमकिन है कि आतिश हो, धुंआ कोई न हो।
-1044, गुरु नानक स्टरीट, समराला रोड़, खन्ना
मो. 92168-60000