प्रत्येक वर्ष मौनसून में बारिश से भारी तबाही क्यों ?
देश के कई राज्यों में भारी बारिश, बाढ़ और बादल फटने से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भूस्खलन और बाढ़ से जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। मौसम विभाग ने जुलाई और अगस्त में और अधिक बारिश का अनुमान जताया है, जिससे स्थिति और गंभीर हो सकती है। भारी बारिश, बाढ़ और बादल फटने से लाखों लोग प्रभावित हैं। इन राज्यों में जनजीवन बुरी तरह प्रभावित है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने भारत में बाढ़ को सबसे घातक प्राकृतिक आपदाओं में से एक बताया है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। इससे उनकी आजीविका भी प्रभावित होती है। प्राधिकरण के अनुसार, भारत में हर वर्ष आने वाली बाढ़ लगभग 75 लाख हेक्टेयर भूमि क्षेत्र को प्रभावित और करोड़ों रुपए का नुकसान करती है। बाढ़ जैसी आपदाओं से सड़कों, पुलों और सार्वजनिक उपयोगिताओं जैसे बुनियादी ढांचे को भी भारी नुकसान होता है। इससे ना केवल आर्थिक गतिविधियां बाधित होती हैं बल्कि यह लोगों की जिंदगी को भी प्रभावित करता है।
केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार 1953 से 2017 के बीच भारत में बाढ़ से कुल 1,07,487 लोगों की मौत हुई है। इसमें 3,65,860 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। पर अब तक बाढ़ रोकने और नियंत्रित करने के लिए हम किसी कारगर योजना को अंजाम नहीं दे सके हैं। भारी जन और धन की क्षति होते हुए भी सरकार और राजनैतिक दल इस गंभीर प्राकृतिक आपदा और सामाजिक विपदा के प्रति उदासीन रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए लगातार प्रयास ज़रूर हो रहे हैं, इसके बावजूद यह सवाल फिर उठता है कि आखिर हर बार मानसून में भारी बारिश के बाद इतनी तबाही क्यों मचती है? हर साल हजारों की संख्या में जानें क्यों जाती हैं? सबसे अहम सवाल यह कि समय से पहले सरकारें लोगों को इससे राहत देने के लिए ठोस कदम क्यों नहीं उठाती हैं?
दुनिया भर के देश जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव न सिर्फ पर्यावरण पर हो रहा है, बल्कि इसका वास्तविक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। यूरोपीय अकादमियों की विज्ञान सलाहकार परिषद के अनुसार, 1980 के बाद दुनियाभर में बाढ़ की घटनाएं लगभग दोगुनी हो गई हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि बाढ़ का प्रमुख कारण पर्यावरण से छेड़छाड़ है। 2013 में उत्तराखंड की बाढ़ के समय भी पहाड़ी क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियों को नजरअंदाज कर लगातार हो रहे अनियोजित विकास कार्यों पर सवाल उठाए गए थे। यही स्थिति 2014 में श्रीनगर और 2015 की चेन्नई बाढ़ में भी देखने को मिली थी, जिसमें बिना सोचे-समझे हुए विकास कार्यों ने तबाही मचा दी थी। विशेषज्ञों के अनुसार, नदियों, नालों के बहाव क्षेत्रों के आसपास अत्यधिक अवैध निर्माण और अतिक्रमण हो जाने से वे क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। इसलिए अत्यधिक बारिश होने पर पानी का दबाव बढ़ जाता और आसपास के क्षेत्रों में जल प्रवाहित होने लगता है, जिससे वहां जलभराव होने लगता है। कई शहरों की जल निकास प्रणालियां भी बेहतर नहीं हैं और अत्यधिक बारिश की स्थिति में उनकी क्षमता जवाब दे जाती है। कभी-कभी बांध या बैराज से पूर्व सूचना दिए बिना अचानक पानी छोड़ दिया जाता है, जिससे नदी का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है और उसके तट पर बसे शहरों में बाढ़ आ जाती है। कई शहर बहुत पुराने जल निकासी व्यवस्था पर निर्भर हैं, जबकि उन शहरों की आबादी पहले से काफी बढ़ गई है और उनकी अवसंरचना भी बहुत परिवर्तित हो गई है। शहरों में बाढ़ का एक कारण अनियोजित शहरीकरण है। विशेषज्ञ कहते हैं कि बाढ़ को लेकर एक वैज्ञानिक ढंग से व्यापक स्टडी की जरूरत है।
हर साल आने वाली बाढ़ सैकड़ों-हजारों लोगों की जान ले लेती है और पशुओं का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। बाढ़ की स्थिति में लोगों के डूबने, संक्रमण फैलने, घायल होने और बिजली का करंट आदि लगने का खतरा बढ़ जाता है। बाढ़ आने पर शहरों की विद्युत आपूर्ति बाधित हो जाती है, साथ ही इमारतें, घर, परिवहन, संचार तथा अवसंरचना भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने भारत में बाढ़ को सबसे घातक प्राकृतिक आपदाओं में से एक बताया है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। उन्हें बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इससे उनकी आजीविका भी प्रभावित होती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, भारत में हर वर्ष आने वाली बाढ़ लगभग 75 लाख हेक्टेयर भूमि क्षेत्र को प्रभावित और करोड़ों रुपए का नुकसान करती है। आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र के अनुसार 2020 में भारत में बाढ़ की वजह से लगभग 54 लाख लोगों का का विस्थापन हुआ था। इस साल की बाढ़ ने भी हजारों लोगों को स्थापित होने पर मजबूर कर दिया है।
भारत में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले आर्थिक नुकसान में तेज़ी से वृद्धि हुई है। 2013-2022 के दशक में हर साल औसतन 8 अरब अमरीकी डॉलर (लगभग 66,000 करोड़ रुपये) का नुकसान हुआ। यह 2003-2012 के दशक की तुलना में 125 प्रतिशत अधिक है, जब यह आंकड़ा 3.8 अरब डॉलर था। वर्ष 2024 के नुकसान की गणना अभी बाकी है, जो इतिहास में भारत का सबसे गर्म साल रहा है। यह वृद्धि बताती है कि या तो प्राकृतिक आपदाएं अधिक बार आ रही हैं, अधिक गंभीर हो गई हैं, या दोनों ही बातें हो रही हैं। देश में बाढ़ से तबाही की कहानी हर साल एक ही तरह है। हर साल भारी बारिश से कई राज्य (देश का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा)प्रभावित होते हैं। कई ज़िले और गांव डूब जाते हैं। लाखों लोग प्रभावित होते हैं। सरकारें राहत कैंप आयोजित करती हैं, मुआवजा देती हैं और फिर अगले साल वही कहानी। तबाही का क्रम वही है लेकिन आपदा प्रबंधन में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है, इसलिए स्थितियां जस की तस बनी रहती हैं। करीब 1800 करोड़ रुपये कीमत की फसलें बर्बाद होती हैं।
अब तक बाढ़ रोकने के जितने उपाय किए गए हैं उनसे यह समस्या और जटिल हो गई है। आधे-अधूरे संकल्पों और न्यस्त स्वार्थो के कारण हम बाढ़ों के विस्तार को रोकने में तो असफल रहे हैं, बल्कि बाढ़ से होने वाली क्षति को भी कम करने में विफल रहे हैं। नदियों को जोड़ने की परियोजना भी जमीन पर नहीं उतर पाई। वहीं शहरी अवसंरचना पर विशेष ध्यान देने की भी ज़रूरत है। नदी, नालों के बहाव क्षेत्र में हो रहे अवैध निर्माण और अतिक्रमण को रोका जाना चाहिए। शहरों की जल निकास प्रणाली को दुरुस्त करना बहुत ज़रूरी है। अवैध खनन की गतिविधियों पर भी रोक लगाई जानी चाहिए, क्योंकि अत्यधिक रेत खनन से नदी के तल उथले हो सकते हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार बेहद खराब मौसम के पैटर्न के कारकों के पूर्वानुमान के लिए सरकारी एजेंसियों को बेहतर पूर्वानुमान तकनीकों को अपनाना होगा। इससे भीषण बारिश या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के बारे में लोगों को पहले से अलर्ट किया जा सकता है या सरकार के स्तर पर इससे बचाव के लिए ठोस कदम उठाया जा सकता है। जहां बाढ़ से हर साल नुकसान होता है वहां की समस्याओं का समाधान क्षेत्रीय आयोग तथा बाढ़ नियंत्रण बोर्डो की देखरेख में ही होना चाहिए। वहीं, बाढ़ नियंत्रण की योजनाएं गहन छानबीन के बाद शुरू की जानी चाहिए। चूंकि इससे हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है, इसलिए बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता भी दी जानी चाहिए।