व्यवस्था कोई भी हो, लोगों का जागरूक रहना आवश्यक
हमारे देश में ज़बरदस्त पूंजीवाद, घोर समाजवाद और अड़ियल साम्यवाद (कम्युनिज़्म) के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। हमारे यहां जो व्यवस्था है वह मिलाजुली कहलाती है। सभी वाद, अक्सर अपने अधिकतर अनुयायियों के झूठे वायदे बन जाते हैं। सामान्य नागरिक उन पर विश्वास करने की गलती बार-बार करता है और कोई विकल्प न होने से ठगा जाता है।
राजनीति करने के लिए किसी न किसी वाद को अपनाने और उससे लोगों को भ्रमित या गुमराह करने का काम आसान हो जाता है। जहां जिससे ज़्यादा फायदा दिखा, उसे अपना लिया और जब उसे अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए पूरी तरह निचोड़ लिया तो दूसरा वाद अपना लिया।
पूंजीवाद : सबसे पहले पूंजीवाद की बात करते हैं। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जापान जैसे देश इसके दायरे में आते हैं। इन देशों ने धन अर्जित करने को प्राथमिकता दी और उसके लिए शिक्षा की बेहतरीन व्यवस्था की, रोज़गार देने को लेकर सार्थक नीतियां बनाईं, उद्योग धंधे स्थापित किये और दुनिया को ललचाया कि उनके यहां आकर या उनके साथ व्यापार करें और सबसे पहले उन्हें मालामाल करें और बाद में अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करें। गरीब और अविकसित देशों से पढ़े लिखे और कुशल लोग इन देशों की तरफ भागने में अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं।
पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता कि इसमें व्यक्ति का कितना भी शोषण हो, उसके साथ किसी भी तरह का भेदभाव या दुर्व्यवहार हो, उसे बुरा नहीं लगता क्योंकि बदले में डॉलर मिलते हैं। अपने देश में पूंजीवादियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने देश के विकास में योगदान डाला है और दूसरी ओर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से अपनी मज़र्ी के काम करवाए और कानून बनवा लिए। कहा जा सकता है कि पूंजीवाद निजी स्वामित्व, मुक्त बाज़ार और प्रतिस्पर्धा पर आधारित आर्थिक व्यवस्था है जो पहले अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोचती है और उसके लिए कर्मचारी सिर्फ अपने मालिकों को मालदार बनाने के साधन हैं।
साम्यवाद : जब लगा कि पूंजीवाद कुछ मुट्ठी भर देशों को ही अमीर बना रहा है, शोषण के साथ भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेमानी हो रही है और गरीबी तथा अमीरी के बीच जबरदस्त अंतर है तो कार्ल मार्क्स जैसे महान लोग सामने आए और पूंजीवाद के विरोध में साम्यवाद की रूपरेखा बनाई। लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का रास्ता दिखाया और एक नई आर्थिक व्यवस्था का जन्म हुआ। सोवियत संघ (अब रूस), चीन जैसे देशों ने इसे स्वीकार करते हुए अमरीका जैसे घोर पूंजीवादी देशों के सामने स्वयं एक महाशक्ति बनने की चुनौती की। इसमें कोई वर्ग नहीं होता, बल्कि सब ही सब कुछ के मालिक हैं लेकिन उन्हें संचालित करने के लिए एक या कुछेक लोग पूरी व्यवस्था संभालते हैं। रंग भी लाल है जिसे क्रांति और श्रमिकों के संघर्ष का प्रतीक बनाकर दुनिया के सामने पेश किया गया। इस व्यवस्था में धर्म को कोई स्थान नहीं दिया जाता। इसमें भी शोषण और भ्रष्टाचार के मामले सामने आने से इसकी चमक फीकी पड़ती गई और भारत में कम्यूनिज़्म, जो कभी विशाल रूप में और तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस के लिए चुनौती बन गया था, वह एक कोने में सिमट गया। इसके विपरीत चीन जैसे देश बहुत कट्टर और अपने सिद्धांतो के प्रति मज़बूती से खड़ा है और अमरीका के लिए चुनौती बन गया है।
समाजवाद और फिर राष्ट्रवाद : भारत जैसे देश धर्म की विविधता के लिए जाने जाते हैं, यहां सर्व धर्म सम्भाव की बात करते हैं। यहां समाजवाद के रूप में एक नया वाद पनपने के लिए पर्याप्त उपजाऊ ज़मीन थी तो समाजवादी नेता पैदा होने लगे। संविधान में भी समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को जगह दे दी गई। रंग भी हरा चुना जो समानता और जन कल्याण का प्रतीक है। समाजवाद में सरकार में रहकर और बाहर से मिलीभगत के ज़रिए भ्रष्टाचार करना आसान है। सरकारी नियंत्रण इतना कि व्यक्तिगत तौर पर कुछ भी करना असंभव, लेकिन नियम कानून ऐसे कि मानो वे समानता का आधार हों जबकि वास्तव में वे रिश्वत दिए बिना कुछ भी काम नहीं होता है।
समाजवाद जब सरकार के चंगुल में फंस गया तो उसका आवरण लेकर भ्रष्टाचार करने और व्यक्तिगत धन दौलत और संपत्ति एकत्रित करने का काम किया जाने लगा। कथित समाजवादी नेता बहुत अमीर होते गए और उनके गरीब, अनपढ़ तथा साधनहीन समर्थक बढ़ते गए। नौकरशाही और गोलमाल करने में माहिर नेताओं का ऐसा गठजोड़ बना कि देश के संसाधन कुछ लोगों की जागीर बन गए। दिखावे के तौर पर राष्ट्रीयकरण को जनता के हित में बताते हुए सरकारी कंपनियों के माध्यम से संसाधनों पर अपना कब्ज़ा उनके शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बिठाकर किया।
भारत में पूंजीवाद, साम्यवाद और समाजवाद की कलई खुलती जा रही थी तो ऐसे में कुछ बुद्धिमान, विवेकी और होशियार लोगों ने राष्ट्रवाद के नाम से एक नया ही मंच बनाया और उसे भगवा रंग दिया, जो हमारे तिरंगे का भी एक रंग है। इसमें बहुसंख्यक हिंदू धर्म को आधार बनाकर हिंदुत्व को जीवनशैली की तरह पेश किया और एक नई लहर चला दी ताकि देश में एक ही धर्म का बोलबाला हो जाए और अन्य धर्मों के लोग उसके आधीन होकर रहें। संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता वालों ने देश को एक और बंटवारे के कगार तक पहुंचा दिया।
सावधानी ही विकल्प : वाद कोई भी हो राजनीतिक दल अपना मतलब निकाल लेते हैं और जनता को बहकाये रखने का रास्ता बना लेते हैं। इससे एक नए वाद लूट-खसोट का जन्म हुआ, जो किसी भी परिस्थिति या गठबंधन के मूल में रहता है। इसका सिद्धांत है कि अपना माल तो अपना है ही, दूसरे का भी अपना है। जनता इस भ्रम में रहती है कि वह तो सब कुछ जानती है, इसलिए उसके चुप रहने में भलाई है। ऐसे में ये शातिर लोग अपना काम कर जाते है।
यदि लूट-खसोट करने की नीयत रखने वाले जनता द्वारा बेनकाब किए जाते रहें, तब ही संभव है कि सामान्य नागरिक सुख शांति से रह सकें। इतना समझना ज़रूरी है कि राजनीति का कोई धर्म नहीं होता, नेताओं का दिल कभी भी नर्म नहीं होता और जनता यदि सतर्क न हो तो उसके लुटने का कोई समय नहीं होता। जब कहीं भी अपने या किसी के साथ भी गलत हो, आवाज़ उठाने में ही भलाई है।