बेनामी कानून के विवादित प्रावधानों पर लगा अंकुश

अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने 23 अगस्त को कहा कि बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम-2016 भविष्यलक्षी प्रभाव (प्रोस्पेक्टिवेली) से लागू होगा। इसका अर्थ यह है कि 1988 (जब मूल कानून गठित हुआ था) और 2016 (जब यह कानून लागू हुआ) के बीच जिन बेनामी सम्पत्तियों का लेनदेन हुआ, उन्हें जब्त नहीं किया जायेगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में अनुमानित अपराधियों को भी तीन साल की आवश्यक कैद की सजा से सुरक्षित रखा है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण, न्यायाधीश कृष्णा मुरारी व न्यायाधीश हिमा कोहली की खंडपीठ ने स्थापित प्रक्रिया का पालन किये हुए विभिन्न एजेंसीज ने जो दंडात्मक कार्यवाही की है, उसे अवैध ठहराते हुए इस अधिनियम की धाराओं 3(2) व 5 को असंवैधानिक घोषित किया। 
गौरतलब है कि इस अधिनियम की धारा 3(2) के तहत उन व्यक्तियों के लिए तीन वर्ष की कैद की सजा का प्रावधान है जिन्होंने 5 सितम्बर 1988 व 25 अक्तूबर 2016 के बीच बेनामी लेन-देन किया। धारा 5 के तहत केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया था कि वह बेनामी सम्पत्तियों को जब्त कर सकती है, जबकि ऐसा करने के लिए कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई थी। संपत्ति उस सूरत में भी जब्त की जा सकती थी, जब आपराधिक ट्रायल के जरिये लेनदेन को अवैध भी घोषित न किया गया हो। 
96-पेज का निर्णय लिखते हुए मुख्य न्यायाधीश रमण ने कहा, ‘आम तौर से 2016 के कानून की धारा 5 के तहत जब्ती प्रावधान, जिसकी दंडात्मक प्रवृत्ति है को केवल भविष्यलक्षी प्रभाव से लागू किया जा सकता है न कि पूर्वव्यापी प्रभाव (रेट्रोएक्टिवली) से। संबंधित सरकारी अधिकारी 2016 कानून के लागू होने के समय, 25 अक्तूबर 2016 है, से पहले किये गये लेन-देन के मामलों में आपराधिक कार्यवाही की न पहल कर सकते हैं, न उसे जारी रख सकते हैं और न ही जब्ती कार्यवाही कर सकते हैं।’ इस निर्णय का अर्थ, खंडपीठ के अनुसार, यह है कि 1988 व 2016 के बीच बेनामी संपत्तियों को लेकर जो मुकद्दमे कायम हुए या जब्ती प्रक्रियाएं आरंभ की गईं, वे सब खारिज हो गई हैं। 
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, 2016 के कानून की धारा 3 (आपराधिक प्रावधान) को जब 1988 के कानून की धाराओं 2(अ) व 5 (जब्ती प्रक्रियाओं) के साथ मिलाकर पढ़ा जाता है तो वह अत्याधिक विस्तृत, विषमतापूर्वक कठोर दिखता है और पर्याप्त सुरक्षाकवचों के साथ कार्य करता है। इस प्रकार के प्रावधान मृत कानून हैं, जिनका कभी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस पृष्ठभूमि में अदालत ने 1988 के कानून की धाराओं 3 व 5 को प्रारंभ से ही असंवैधानिक पाया लेकिन एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण में खंडपीठ ने कहा, ‘हम यह तथ्य पूर्णत: स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारी यह चर्चा किसी भी सूरत में 1988 के कानून की धारा 4 या किसी अन्य प्रावधान में कल्पना किये गये नागरिक परिणामों को प्रभावित नहीं करती है।’ दूसरे शब्दों में सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक निर्णय का सार केवल इतना है कि 1988 व 2016 के बीच बेनामी सम्पत्तियों के लेन-देन के संदर्भ में सरकार कुछ नहीं कर सकती है, न उन्हें जब्त कर सकती है और न ही लेनदेन करने वालों को तीन वर्ष के लिए सलाखों के पीछे भेज सकती है; क्योंकि 2016 के संशोधन कानून की धाराएं 3(2) व 5 और 1988 के मूल कानून की धाराएं 3 व 5 असंवैधानिक हैं। साथ ही संशोधन कानून का शेष भाग भविष्यलक्षी प्रभाव से लागू होगा, इसलिए इस सिलसिले में 1988 व 2016 के बीच की बेनामी लेनदेन के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती, तथा जो की जा रही थी, उसे रद्द किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का यह भी निष्कर्ष है कि इस कानून के अन्य हिस्से भी समस्यापरक हैं। संशोधनों ने बर्डन ऑफ प्रूफ (साबित करने की जिम्मेदारी) को रिवर्स (पलट) कर दिया था और आपराधिक प्रावधान जोड़ दिए थे, जिनमें से सात वर्षों की कठोर कैद भी शामिल है। रिवर्स बर्डन ऑफ  प्रूफ जो मनी लॉंडरिंग कानून में भी मौजूद है, में अभियोग पक्ष के पास परेशान करने की जबरदस्त गुंजाइश रहती है; क्योंकि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को उलट देता है। यहां यह बताना आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने पीएमएलए (धन शोधन निवारण अधिनियम) मामले में रिवर्स बर्डन ऑफ  प्रूफ को हरी झंडी दिखायी थी, जबकि दूसरी खंडपीठ को इस बारे में कुछ शक थे। कम से कम संवैधानिक अधिकारों व प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर तो सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठों का समान विस्तृत नजरिया होना चाहिए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की बुनियादी जिम्मेदारी अधिकारों व संविधान को सुरक्षित रखना है। शुक्र है कि सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2022 को पीएमएलए निर्णय के परेशान करने वाले तत्वों के विरुद्ध समीक्षा याचिका को सूचिबद्ध करना स्वीकार कर लिया।
कोई देश आर्थिक अपराधों को हल्के में लेना का दुस्साहस नहीं कर सकता लेकिन साथ ही वह नतीजे बरामद करने के प्रयास में स्थापित सिद्धांतों को ताक पर रखने की हिमाकत भी नहीं कर सकता है। स्थापित सिद्धांत अन्याय व सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षाकवच हैं।  यह भी याद कीजिये कि फरवरी में सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा था, वरीयता आर्थिक भगौड़ों से चुराये हुए पैसों को वापस लेने को दी जानी चाहिए, बजाय इसके कि उन पर अनंतकाल तक मुकद्दमे चलाकर समय व जनता का पैसा बर्बाद किया जाए। भारत सरकार को इस किस्म का दर्शन अपनाना चाहिए।      
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर