अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं हिन्दुत्ववादी संगठन  ़खामोश नज़र आ रहा है विपक्ष

सारे देश में कथित हिंदू संगठन मुसलमानों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने के ़िखल़ाफ मुहिम चला रहे हैं। वे हर उस जगह हनुमान चालीसा पढ़ना चाहते हैं या दुर्गा पूजा करना चाहते हैं जहां मुसलमान नमाज पढ़ते हुए देखे गए हों। यह मसला दक्षिण से लेकर उत्तर तक, और ईदगाह से लेकर ‘मॉल’ कहे जाने वाले अत्याधुनिक बाज़ारों से होता हुआ अदालतों और विश्वविद्यालयों तक फैल गया है। पहली निगाह में ही साफ हो जाता है कि यह हिंदू बहुसंख्यकवाद का मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों को सीमित करने के म़कसद से किया गया राष्ट्रव्यापी आक्रमण है। तकनीकी दृष्टि से कहें तो भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इस हमले में हिस्सेदार नहीं हैं, लेकिन जो कथित हिंदू संगठन इसमें सक्रिय हैं, उनके कार्यकर्ता पलक झपकते भाजपा के कार्यकर्ता बन जाते हैं। यही लोग संघ की शाखाओं में जाते हैं, बजरंग दल में काम करते हैं और तरह-तरह के हिंदू संगठन बना कर विभिन्न मोर्चों पर सार्वजनिक जीवन में और सार्वजनिक विमर्श में आक्रामक हस्तक्षेप करते हैं। क्या यह परिस्थिति हमें यह सवाल पूछने पर मजबूर नहीं करती कि ़गैर-भाजपा विपक्ष की इस पूरे प्रकरण में क्या भूमिका है? क्या उनके पास इस मसले पर हिंदू समाज या मुस्लिम समाज के साथ संवाद करने का कोई ज़रिया या कार्यक्रम है? या, क्या वे सिर्फ एक-दो बयान देकर किनारे खड़े हो कर दर्शक मात्र बने रहने के लिए अभिशप्त हैं? 
पूछने की बात यह भी है कि इस समय विपक्ष दरअसल कर क्या रहा है? यह देख कर बेहद निराशा होती है कि ऐसे महत्वपूर्ण मसलों को नज़रअंदाज़ करके वह 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले चेहरे की हास्यास्पद खोज में लगा हुआ है। जब से नितीश कुमार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ से बाहर निकल कर महागठबंधन के साथ नाता जोड़ा है, उन्हें 2024 में नरेंद्र मोदी के सम्भावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में दिखाया जा रहा है। दूसरी तरफ कुछ ़गैर-भाजपा नेताओं द्वारा ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव के नामों को भी मोदी को चुनौती दे सकने वाले नेताओं के रूप में पेश किया जा रहा है। इन सभी के अतिरिक्त राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में पिछले आठ साल से दौड़ ही रहे हैं। यह एक ऐसा नज़ारा है जो बिना किसी शक के बताता है कि अगर विपक्षी राजनीति ने इस तरह की दावेदारियां छोड़ कर जल्दी ही अक्लमंदी से काम लेना शुरू नहीं किया तो वह अगले लोकसभा चुनाव में मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का रास्ता सुगम करते हुए दिखेगी। इससे एक बार फिर यह साबित होगा कि भाजपा विरोधी विपक्ष की विचारहीनता, रणनीतिविहीनता और नादानी दरअसल नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ़खुशकिस्मती है। 
राजनीतिक समीक्षकों को याद होगा कि नब्बे के दशक में क्या हुआ था? 1990 में मंडलीकरण, कमंडलीकरण और भूमंडलीकरण की तिहरी परिघटना के कारण देश की राजनीति और समाज के साथ उसके संबंधों में जबरदस्त परिवर्तन हुआ था। उस तब्दीली को अपने पक्ष में भुनाने के लिए सक्षम राजनीतिक शक्तियां मैदान में नहीं थीं। कांग्रेस भूमंडलीकरण की वाहक ज़रूर थी, लेकिन वह राम जन्मभूमि आंदोलन से निकली हिंदू राजनीति को अपनी ओर खींचने में नाकाम थी। न ही वह पिछड़ी जातियों के राजनीतिक उभार की लाभार्थी हो सकती थी। दरअसल, उसका ग्ऱाफ लगातार गिर रहा था। वह लगातार दुबले होते हाथी की तरह थी जो गठजोड़ राजनीति के दायरे में प्रवेश करने के लिए रणनीतिक रास्ता तलाश रहा था। भारतीय जनता पार्टी भी अपने दम पर इस नयी परिस्थिति का फायदा उठा सकने लायक शक्तिशाली नहीं बनी थी। ऐसे माहौल में छुटभैयों की बन आई थी। किसी भी तरह की राष्ट्रीय छवि से वंचित देवगौड़ा और गुजराल जैसे नेता ऐसी परिस्थिति में ही प्रधानमंत्री बन सकते थे। इनके अलावा उन दिनों मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावनाएं भी मुखर होती रहती थीं। दस नवम्बर, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्रित्व समाप्त हुआ। इसके बाद दशक ़खत्म होते-होते छह बार प्रधानमंत्री बदला गया। ऐसा लगता है कि मौजूदा विपक्षी राजनीति आज भी नब्बे के दशक की मानसिकता में ही जी रही है। वह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि तब से अब तक राजनीतिक हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं। 
आज स्थिति यह है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक जीवन के रसातल को छू रही है। अपना महत्व दोबारा हासिल करने के लिए उसे साल भर के भीतर-भीतर कुछ चमत्कार सा करके दिखाना होगा। सामाजिक न्याय की पैरोकारी करने वाले दल ज़्यादा से ज़्यादा एक-एक बिरादरी के जनाधार वाले दलों में घट चुके हैं। कम्युनिस्ट तकरीबन ़खत्म हो चुके हैं। दक्षिण और पूर्व में कुछ क्षेत्रीय शक्तियां अभी भी प्रबल हैं, पर उनकी ताकत अपने-अपने दायरे तक ही सीमित है। केवल आम आदमी पार्टी ही एक ऐसी ताकत है जिसने एक प्रांत की सीमाओं को लांघ कर दूसरे और ज़्यादा बड़े प्रांत में अपना दबदबा बनाने की क्षमता दिखाई है। दरअसल, आज का राजनीतिक यथार्थ भाजपा-केंद्रित है। बावजूद इसके कि भाजपा की राजनीति राज्यों के स्तर पर अनिश्चितता की शिकार रहती है, केंद्र की राजनीति में वह बिना किसी शक के प्रभुत्वशाली है। जो नेता प्रदेश के स्तर पर उसे हरा देते हैं, उनमें से ज़्यादातर लोकसभा के चुनाव में उससे पीछे ही नहीं रह जाते, बल्कि बुरी तरह से पराजित होते हैं। प्रधानमंत्री पद के संदर्भ में देखें तो नरेंद्र मोदी की मौजूदगी ने छुटभैया नेताओं का खेल पूरी तरह से ़खत्म कर दिया है। दिल्ली की कुर्सी के लिए ऐसे लोगों की चर्चा हास्यास्पद हो चुकी है। 
विपक्षी दलों को बिना कोई देर किये नब्बे के दशक की मानसिकता से पल्ला छुड़ा लेना चाहिए। बजाय इसके कि प्रधानमंत्री पद के लिए इधर-उधर के नाम उछाल कर वे अपना मज़ाक बनवाएं, उन्हें पहले यह समझना चाहिए कि राज्यों के चुनाव में भाजपा को हराने भर से वे लोकसभा की जीत के दावेदार नहीं बन जाते। ऐसा पहले होता था। अब वोटर लोकसभा में किसी और पार्टी को, एवं राज्य विधानसभा में किसी और पार्टी को वोट देने का फैसला करने की तमीज़ रखता है। ऐसा कई चुनावों में देखा जा चुका है। ओड़ीसा के चुनाव में ऐसा हो चुका है। पश्चिम बंगाल में भी कमोबेश ऐसा ही घटा था। मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हराने वाली जनता ने लोकसभा में मोदी और भाजपा को उत्साह से अपना समर्थन दिया था। विपक्ष के राज्य स्तर पर प्रभावी नेताओं को सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि विधानसभा स्तर पर जीतने के बाद वे लोकसभा में भी मोदी को जीतने से रोक सकते हैं। अगर पूरी तरह से नहीं हरा सकते, तो कम से कम लोकसभा की सीटों को आधा-आधा तो बांट ही सकते हैं। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उनका विधानसभा चुनाव जीतना राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने में विफल हो जाता है। 
मोदी को इस बात का एहसास है कि राज्यों में उनका दावा केंद्रीय राजनीति जितना प़ुख्ता नहीं है। इसलिए राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान के वाहक के रूप में अपनी छवि का नवीकरण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत के अनावरण के समय उनका भाषण भले ही उनके आलोचकों को अति नाटकीय लगे, लेकिन वह मोदी समर्थकों के लिए थाली में परोसे गए व्यंजन की तरह था। भारत की अर्थव्यवस्था को ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था से आगे दिखाने का प्रचार भी कुछ ऐसा ही प्रभाव डालने की क्षमता रखता है। 
एक दिन में ऐसे दो-दो मीडिया आइटम मोदी के ़िखल़ाफ किसी भी तरह की एंटी-इनकम्बेंसी के अंदेशे को समाप्त कर देते हैं।  पिछले दो चुनावों ने दिखाया है कि एक बड़े हिस्से में बहुत ज्यादा जीतने, और दूसरे हिस्सों में कहीं कम या बिल्कुल नहीं जीतने के बावजूद मोदी को बहुमत मिल सकता है। क्या विपक्ष इस परिणाम के दोहराव को गड़बड़ा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर ़गैर-भाजपा शक्तियों को देना ही होगा। 
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)