पंजाब से बाहर के सिखों को अपने फैसले स्वयं लेने दिये जाएं

अ काली दल हमेशा भारत में फैडरल ढांचे का समर्थन करता रहा है। राज्यों को पूर्ण अधिकार देने का नारा लगाता रहा है। परन्तु अकाली दल स्वयं इसके विपरीत पंजाब से बाहर अलग-अलग राज्यों में रहते सिखों को अपने नियन्त्रण में रख कर उन पर वैयक्तिक शासन करता रहा है। और तो और तख्त पटना साहिब तथा हज़ूर साहिब पर भी अपना नियन्त्रण रखता आ रहा है। कभी भी कोई बिहार का सिख पटना साहिब कमेटी का अध्यक्ष नहीं बना। दिल्ली के बादल गुट के स. अवतार सिंह हित लम्बी अवधि से पटना साहिब के अध्यक्ष हैं। चाहे अकाल तख्त ने उन्हें तन्खाहिया होने की सज़ा लगा दी थी। अकाली दल की इस हठधर्मी के कारण सबसे अधिक सिखों का नुकसान हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल तथा दिल्ली राज्यों में हुआ है। इतनी जनसंख्या होने के बावजूद सत्ता में सिखों को कोई हिस्सा नहीं मिला। 
आज मैं इस विषय पर लिख रहा हूं। पंजाब के बाहर रहते सिखों ने अपनी हिम्मत से  सत्ता में कैसे नाम कमाया है। इस अद्वितीय सफलता में पंजाब की या अकाली दल की कोई भूमिका नहीं है। मैं आप सभी को स्मरण करवाना चाहता हूं कि 1952 में जब भारत में पहली बार चुनाव हुये थे तो सरदार अमर सिंह सहगल मध्य प्रदेश की बिलासपुर लोकसभा सीट जीत कर दिल्ली पहुंचे थे। मेरा दोस्त सरदार सतराज सिंह मध्य प्रदेश की होशंगाबाद सीट से तीन बार सांसद चुने गये तथा 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री का पद सम्भाला था। जब्बलपुर शहर में भी स. हरिन्दर सिंह बब्बू दो बार विधायक बने। कश्मीर में सरदार बुद्ध सिंह सांसद बने थे। सरदार ज्ञान सिंह सोहनपाल सात बार बंगाल में कांग्रेस विधायक तथा ट्रांसपोर्ट मंत्री भी रहे थे। उड़ीसा में हर बार दो-तीन सिख विधायक के चुनावों में जीत हासिल करते रहे हैं। वहां से ही स. भूपिन्दर सिंह गिल सांसद बने थे। मुम्बई शहर में दो बार स. तारा सिंह विधायक चुने गये। राजस्थान में तीन या चार सिख विधायक अलग-अलग पार्टियों में से बनते रहे हैं। उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड में भी सिख हिम्मत से असैम्बली में आते हैं। एक सिख उत्तर प्रदेश में मंत्री भी है। स. बलवंत सिंह रामूवालिया उत्तर प्रदेश में 1996 में सांसद बने थे। मैं स्मरण करवा दूं कि स. इन्द्र सिंह कानपुर शहर के मेयर बने, फिर सांसद तथा उनके बेटा राम सिंह भी सांसद बने थे।  1960 में मुम्बई के शैऱफ स. दलीप सिंह बने थे तथा दूसरे सिख स. कुलवंत सिंह कोहली पुन: शैऱफ 2001 में बने थे। मुम्बई के मेयर भी स. मनमोहन सिंह बेदी रहे हैं। दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री डा. गुरमुख निहाल सिंह बने थे तथा बावा बचित्तर सिंह लगातार 10 वर्ष तक दिल्ली शहर के मेयर रहे। नागपुर के मेयर स. अटल बहादर सिंह रहे हैं। नागपुर के परशन सिंह एम.एल.सी. 1980 में बने थे। कभी हमें स्मरण नहीं था कि स. इन्द्र सिंह नामधारी बिहार के मंत्री तथा झारखंड के स्पीकर तथा फिर सांसद भी बने थे। स. एस.एस. आहलुवालिया बंगाल से दो बार संसदीय सीट जीते थे। गुरु की कृपा से मैं 2004 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में हरियाणा से सांसद (राज्य सभा) जीता था। स. तिरलोक सिंह बाजवा महबूबा मुफ्ती पार्टी के कश्मीर से तत्कालीन सांसद बन कर आए थे। अवतार सिंह करीमपुरी उ.प्र. से मायावती की पार्टी के सांसद बने थे। स. रंगील सिंह कश्मीर में तीन सरकारों के मंत्री रहे थे। 
यह सब कुछ मैं इसलिए लिख रहा हूं कि पंजाब से बाहर रह रहे सिख अपनी हिम्मत से बड़ी उपलब्धियां प्राप्त कर चुके हैं और पंजाब की राजनीतिक उलझन से बाहर रहे हैं। मेरे विचार से हम सभी सिख दरबार साहिब अमृतसर को अपना इष्ट मानते हैं और सभी अकाल तख्त को समर्पित हैं। परन्तु हमें यह समझने की आवश्यकता है कि पंजाब के बाहर रहता सिख अपनी राजनीति का कैसे फैसला करे? उसे पता है कि कौन-सी राजनीतिक पार्टी उसकी सहायक हो सकती है। पंजाब में बैठे नेता उनके लिए कोई निर्णय नहीं ले सकते। पंजाब की राजनीति पंजाब तक ही सीमित है। इसलिए आज हम सभी को इस ज़रूरी राजनीतिक मामले पर सोचने की आवश्यकता है। 
ज्ञानी ज़ैल सिंह 1982 में भारत के राष्ट्रपति बने थे। डा. मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री बने। स. हुकम सिंह तथा डा. गुरदयाल सिंह ढिल्लों संसद के स्पीकर बने थे। एक बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी सिख बन चुकें हैं। दो बार सेना के सिख कमांडर-इन-चीफ और तीन बार वायु सेना के प्रमुख तथा एक बार जल सेना प्रमुख भी सिख बने है। उनकी अपनी हिम्मत और सूझबझ के कारण यह सफलता मिली है, जिस की हर तरफ से प्रशंसा हो रही है। 
इस संबंध में भारत से बाहर गए 32 लाख सिख हमारा सम्मान बढ़ा रहे हैं। वहां उन्होंने  देशों की राजनीति में विभिन्न पार्टियों में शामिल होकर उनमें उपलब्धियां हासिल की हैं। दलीप सिंह सौंध 1952 में पहले भारतीय अमरीका में सांसद बने थे। उज्जल सिंह दुसांझ 2002 में कनाडा के ब्रिटिश कोलम्बिया स्टेट के अध्यक्ष बने थे। फिर कनाडा में दर्जनों सिख सांसद तथा 5-6 केन्द्रीय मंत्री बन चुके हैं। जब जस्टिन ट्रूडो भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि भारत के मुकाबले अधिक सिख कनाडा में मंत्री हैं। लंदन की संसद में दो सिख सांसद तथा पांच सिख हाऊस आफ लार्ड में हैं। सिंगापुर में दो सांसद, मलेशिया में एक सिख मंत्री, न्यूज़ीलैंड में एक सिख सांसद है। युगांडा तथा कीनिया आदि देशों के सिख राजदूत हैं। मेरा कहने का भाव यह है कि जब सिखों को अपना फैसला स्वयं करने का अधिकार होता है तो वह चढ़दी कला में रहने का आनंद मानते हैं। कनाडा में तो एक सिख बड़ी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष हैं तथा उनके प्रधानमंत्री बनने की चर्चा भी चल रही है। 
मास्टर तारा सिंह ने 1952 में दिल्ले के समारोह में घोषणा की थी कि पंजाब से बाहर सिख स्वयं फैसला ले कि कौन-सी पार्टी को विजयी बनाना है। वह अल्प-संख्यक  हैं तथा उन्हें सत्ता में हिस्सा मिलना चाहिए। 
सिख विद्वान इस संबंध में राय बना कर नेताओं पर रचनात्मक नीति अपनाने हेतु दबाव डालें। 
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