विपक्ष का मुकाबला करने के लिए कई मोर्चों पर सक्रिय है भाजपा

एक तरफ कांग्रेस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाल रही है, और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस तोड़ो अभियान चलाया जा रहा है। जोड़ो और तोड़ो की इस प्रतियोगिता के बीच लोकतांत्रिक राजनीति का चरबा निकला जा रहा है। सवाल यह है कि इसे कैसे समझा जाए? कांग्रेस और राहुल गांधी ने पहले योजना यह बनाई थी कि वे तीन महीने तक अपनी यात्रा निकालेंगे, लेकिन इससे हो सकने वाले लाभों को देखते हुए कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इसे पांच महीने तक बढ़ा दिया है। इसी के साथ एक योजना यह भी है कि इस यात्रा के ़खत्म होने के कुछ दिन बाद ही एक और यात्रा शुरू कर दी जाए जिसका रास्ता उत्तर-पूर्व के इलाकों को भी स्पर्श करे। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को पदयात्रा के रूप में अपनी और अपनी पार्टी की वापसी के लिए एक रामबाण औषधि मिल गई है। 2014 के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि कांग्रेस लगातार अखिल भारतीय स्तर पर सड़कों पर होगी। इसलिए इस कार्यक्रम से भाजपा का माथा ठनकना स्वाभाविक ही है। दूसरी तऱफ गोवा में भाजपा ने कांग्रेस के विधायकों से दलबदल करवा कर दिखा दिया है कि वह देश की सबसे पुरानी पार्टी को नष्ट करने के लिए किस हद तक जा सकती है। गोवा में भाजपा की ही सरकार है। गोवा की घटना से भाजपा ने यह दिखाने की कोशिश भी की है कि कांग्रेस जितनी चाहे पदयात्रा कर ले, उसका गिरता हुआ ग्ऱाफ न रुकने वाला है, न उठने वाला है। 
जोड़ो बनाम तोड़ो के मर्म को अगर ठीक से समझना है तो हमें थोड़ा पीछे लौट कर महाराष्ट्र और बिहार के घटनाक्रम को याद करने से शुरुआत करनी होगी। महाराष्ट्र में महाअघाड़ी की सरकार को तोड़ने के लिए भाजपा ने जिस रणनीतिक कुशलता के साथ शिव सेना में बगावत करवाई, और फिर देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनने से रोक कर दूरंदेशी का परिचय देते हुए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनवाया, उसने इस पार्टी का सिक्का एक बार फिर से जमा दिया था। यह कोई छोटा-मोटा कारनामा नहीं था। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के मुँह से सत्ता का निवाला छीनना और वह भी इस तरह से छीनना कि उद्धव के नेतृत्व वाली शिव सेना की वैधता पर ही सवालिया निशान लग जाए—भविष्य की पेशबंदी थी। लेकिन, इससे पहले कि असाधारण जीत की यह सनसनी ़खत्म होती, बिहार में भाजपा को एक बहुत ज़बरदस्त पराजय का सामना करना पड़ा। नितीश कुमार ने रातोंरात भाजपा से गठजोड़ तोड़ कर तेजस्वी के साथ मिल कर सरकार बना ली। भाजपा भौंचक्की रह गई। 
महाराष्ट्र की तरह बिहार के इस घटनाक्रम का भी भविष्य की राजनीति के लिए गंभीर महत्व था। महाराष्ट्र में अगर भाजपा के लिए लाभ की संभावना थी, तो बिहार में नुकसान का अंदेशा था। लाभ-हानि के समीकरण का अगर आकलन किया जाए, तो 2019 का चुनाव जीतने के बाद पहली बार भाजपा को लगा कि वह घाटे में चली गई है। महाराष्ट्र के लाभ का तो बिहार ने सफाया कर ही दिया, साथ में विधानसभा और लोकसभा, दोनों में मुंह की खाने का अंदेशा तैयार हो गया। इस आकलन का कारण स्पष्ट था। अगर महागठबंधन बना रहता है, तो अकेले दम पर भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव जीतने का कोई सवाल ही नहीं है। लोकसभा के लिए बिहार एक ऐसा मॉडल पेश करता है जिसके तहत भाजपा अकेली है, और बाकी हर राजनीतिक ताकत उसके विरोध में है। 
विपक्षी एकता का ऐसा सूचकांक न तो भाजपा ने 2014 में देखा था, न ही 2019 में। ज़ाहिर है कि बिहार के संदर्भ में महागठबंधन का बना रहना भाजपा के लिए यह संदेश है कि लोकसभा में उसकी खैर नहीं है। नितीश कुमार द्वारा सारे देश में घूम-घूम कर विपक्ष की एकता की संभावनाएं टटोलने की प्रक्रिया भाजपा को कोढ़ में खाज की तरह प्रतीत हो रही है। कुल मिला कर बिहार भाजपा के दबदबे को मिली एक ऐसी चुनौती है जिसका जवाब भाजपा के पास अभी तक नहीं है। 
मेरी समझ यह है कि जब से बिहार का झटका लगा है, तभी से भाजपा कुछ न कुछ ऐसा कर दिखाने के फेर में है जिससे इस नुकसान की भरपाई हो सके। कभी वह झारखंड में सोरेन सरकार को गिराने की योजना पर काम करते हुए दिखती है, कभी दिल्ली में उसके ऊपर ‘ऑपरेशन लोटस’ चलाने का आरोप लगता है। कभी वह गोवा में कांग्रेस तोड़ते हुए अपनी पीठ स्वयं थपथपाती है। यह तो केवल एक मोर्चा है। एक दूसरे मोर्चे पर भाजपा स्वयं को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाते हुए दिखाना चाहती है। अगर पिछले एक महीने में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर द्वारा डाले गए छापों की सूची बनाई जाए तो शायद आज़ादी के बाद इतने कम समय में सबसे ज़्यादा छापों की संख्या सामने आ जाएगी। एक तीसरा मोर्चा भी है जो मुसलमान समुदाय को उत्तरोत्तर कोने में धकेलने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। चाहे असम हो या उत्तर प्रदेश, भाजपा की सरकारें मदरसों की जांच और सर्वेक्षण के नाम पर इस समुदाय की देश-भक्ति पर लगातार शक का माहौल बनाये रखना चाहती हैं। चौथा मोर्चा है कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की खिल्ली उड़ाने का अभियान। पांचवां मोर्चा है मीडिया के ज़रिये समरकंद यात्रा के संदर्भ में नरेंद्र मोदी को विदेशनीति के मुकाम पर ‘विश्व-गुरु’ के रूप में पेश करना। छठा मोर्चा है राजपथ-कर्त्तव्य पथ प्रकरण में वि-उपनिवेशीकरण के महारथी के रूप में प्रधानमंत्री की छवि बनाना। सातवां मोर्चा है चीतों के भारत आगमन के अवसर पर उन्हें वन्यजीवन और पर्यावरण का रक्षक बताना। 
भाजपा एक साथ इतने मोर्चों पर अति-सक्रिय है। यह केवल एक संयोग ही नहीं है। यह एक सुनियोजित शृंखला है। एक बार अगर महीने भर के भीतर हुई इन गतिविधियों के पीछे मौजूद समेकित राजनीतिक इरादे को देख लिया जाए तो ताज्जुब होता है कि भाजपा इतनी तरह की योजनाओं पर एक साथ कैसे काम कर पा रही है। इनके पीछे की बेचैनी भी हमें देखनी होगी। पहले बिहार, और अब कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा ने भाजपा को कहीं न कहीं यह एहसास दिला दिया है कि 2024 का लोकसभा चुनाव उसके लिए आसान नहीं रहने वाला है। चुनाव शास्त्री संजय कुमार ने हाल ही में किये गये एक विश्लेषण में दिखाया है कि अगर विपक्ष ज़्यादातर सीटों पर संयुक्त प्रत्याशी खड़ो करने में कामयाब रहता है तो कम से कम 77 सीटें ऐसी हैं जो भाजपा के हाथ से निकल सकती हैं। अगर ऐसा हुआ तो उसकी सीटों की संख्या 240 के आसपास रह जाएगी। यह संभावना चिंताजनक तो है ही, इसमें अघोषित और अव्याख्यायित अनिष्ट के अंदेशे भी छिपे हुए हैं। यहीं से भाजपा को एक साथ बहुत से मोर्चों पर आक्रामक गतिविधियां चलाने की प्रेरणा मिल रही है। ‘भारत जोड़ो’ के मुकाबले कांग्रेस और विपक्ष को तोड़ने की मुहिम को इसी रूप में देखा जा सकता है।  
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)