प्रतीकों का नैरेटिव क्या देश का नया सियासी मूड सेट करेगा ?

‘गुलामी का प्रतीक राजपथ अब कर्त्तव्य पथ बन गया है। हम कल की तस्वीर में
नये रंग भर रहे हैं।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 सितम्बर, 2022 की शाम 8 बजे
जब इंडिया गेट के सामने अब तक राजपथ के नाम से मौजूद सड़क का कर्त्तव्य
पथ के रूप में उद्घाटन किया, तो यह एक झटके में आज़ादी के बाद से जुबान पर
चढ़े राजपथ का आधिकारिक रूप से कर्त्तव्य पथ पर बदल जाना भर नहीं था
बल्कि आने वाले चुनावी समर के लिए एक राष्ट्रवादी नैरेटिव की नींव डालना भी
था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर किये गये अपने
राष्ट्रीय संबोधन में संकेत दे दिया था कि आज़ादी के इस अमृत महोत्सव में देश
को ऊर्जा मिले, इसलिए गुलामी के प्रतीकों को मिटाया जायेगा। उन्हें नया रूप रंग
और नाम दिया जायेगा।
राजपथ को कर्त्तव्य पथ में बदलने को विपक्ष ने सियासी पैंतरा बताते हुए आड़े
हाथों लिया है। खासकर कांग्रेस ने इस पर कई सवाल खड़े किये हैं लेकिन लगता
है, राजनीतिक गलियारे में कांग्रेस का यह विरोध कांग्रेस के भीतर ही नहीं ठहर
रहा। हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के बेटे ने नाम बदलने
के प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले का न केवल स्वागत किया है बल्कि इसे ज़रूरत
भी बताया है। अभी कुछ दिन पहले तक कांग्रेस के प्रवक्ता रहे जयवीर शेरगिल ने
भी इसे अच्छा और राष्ट्रवादी कदम बताया है। सवाल है, क्या इन दिनों दिल्ली में
प्रतीकों को नया रंग रूप देने की जो कवायद चल रही है, वह आगामी लोकसभा के
लिए सियासी नैरेटिव तय करने की कवायद है? ...और क्या इसका विरोध विपक्ष
के लिए भारी पड़ेगा? भारतीय राजनीति में मुद्दों का इतिहास उठाकर देखें तो यहां
ठोस व्यवहारिक मुद्दों से हमेशा भावनात्मक मुद्दे ही ज्यादा प्रभावी साबित होते रहे
हैं चाहे यह धर्म का हो, जाति का हो और चाहे भाषा का हो। चूंकि हिंदुस्तान को
आज़ादी एक लम्बे संघर्ष के बाद मिली, इसलिए भले आज़ादी मिले 75 साल गुजर
गये हों और इसके बाद कई पीढ़ियां पैदा हो चुकी हों, जिनके लिए आज़ादी का
संघर्ष महज इतिहास में पढ़ने का विषय है, इसके बावजूद हिंदुस्तान में राष्ट्रवाद की
एक अंतर्धारा लगातार मौजूद रहती है।
लगता है भारतीय जनता पार्टी ने आगामी आम चुनावों के लिए इसी राष्ट्रवाद की
अंतर्धारा को व्यापक तौर पर सियासी नैरेटिव बनाना तय किया है। भाजपा जिस
तरह से पिछले कुछ महीनों से लगातार राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रबोध की
वकालत कर रही है, उसका मतलब साफ है कि वह आगामी आम चुनावों में
राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाएगी इसीलिए इसका बहुत व्यवस्थित तरीके से नैरेटिव सेट
किया जा रहा है। देश में धीरे-धीरे इसकी ओर एक आम झुकाव भी बढ़ रहा है। ऐसे
में विपक्ष का इसे पूरी तरह से खारिज करने का राजनीतिक निर्णय उसके लिए वोट
के मामले में भारी पड़ सकता है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे जब
कहते हैं कि राजपथ के बने रहने में क्या दिक्कत थी तो शायद वह यह नहीं
समझ पाते कि दिक्कत व्यवहारिक नहीं, भावनात्मक है क्योंकि इस देश का
मिजाज़ ही भावनात्मक है। इसलिए अगर कांग्रेस की तरह ही दूसरे विपक्षी राजनेता
ने भी सरकार के इस कदम का यूं ही विरोध किया तो देश के आम मतदाताओं
तक यह संदेश जायेगा कि विपक्षी राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रवादी भावनाओं के विरुद्ध
हैं। उन्हें भारत के राष्ट्रवादी प्रतीकों से चिढ़ होती है और इसका खमियाजा उसे कम
से कम देश की हिंदी बेल्ट में तो भुगतना ही पड़ सकता है। अपनी रोजमर्रा की
समस्याओं से पीड़ित आम लोगों के पास एक मजबूत राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय गौरव
ही तो वह पूंजी है, जिसके भरोसे वे अपने आपको सम्पन्न समझते हैं।
हाल के महीनों और सालों में मौजूदा मोदी सरकार ने कई पारम्परिक प्रतीकों को
राष्ट्रवादी प्रतीकों में बदला है। चाहे वह नौसेना का झंडा हो, चाहे राजधानी दिल्ली
में परेड के बाद बजने वाले संगीत की बात हो, और अब चाहे किंग्सवे से  राजपथ
को कर्त्तव्य पथ में बदलने की गतिविधि हो। ये छोटे-छोटे प्रतीक भले विपक्ष को
लग रहे हों कि यह मुख्य मुद्दों से ध्यान बंटाने की सियासत है, लेकिन हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि गौरव से वंचित इस देश में वे छोटी-छोटी भावनात्मक बातें,
बड़े-बड़े वास्तविक मुद्दों पर भी भारी पड़ती हैं। इसलिए विपक्ष का आंख मूंदकर
सरकार के इन फैसलों का विरोध करना आगामी आम चुनाव में महंगा पड़ सकता
है। देश का भावुक मतदाता जब वोट डालने जाता है तो उसे अपनी समस्याओं से
ज्यादा उन प्रतीकों की चिंता होती है, जिन्हें हम राष्ट्रवादी प्रतीक कहते हैं। भारतीय
जनता पार्टी आम मानस की इस भावनात्मक नस को बहुत अच्छी तरह से
समझती है। इसीलिए प्रधानमंत्री आईएनएस विक्रांत की कमीशनिंग सेरेमनी में इस
एयरक्राफ्ट कॅरियर की विशेषताओं को भुनाने के साथ सबसे ऊपर नौसेना के झंडे
में अपनाये गये छत्रपति शिवाजी के चिन्ह को महत्व देते हैं और जब दिल्ली में
सेंट्रल विस्टा एवेन्यू राष्ट्र को समर्पित करते हैं तो वह तेलुगू के महाकवि भरतियार
का ज़िक्र करते हैं कि उन्होंने किस तरह से भारत की महानता का कंठगान किया
है।
सैकड़ों साल गुलामी का दंश झेलने के कारण भारतीय जनमानस आज़ादी और
राष्ट्रवाद को लेकर काफी संवेदनशील है। विपक्ष को इस बात को समझना होगा कि
वास्तव में कर्त्तव्य पथ केवल ईंट-पत्थरों का बना रास्ता भर नहीं है बल्कि उसकी
भावनात्मक राष्ट्रीयता से सियासी समर्थन का एक चौरस रास्ता भी निकलता है।
इसलिए अगर आने वाले दिनों में यह कर्त्तव्य पथ, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की
प्रतिमा, नेशनल वार मैमोरियल, नई बनी संसद और उसकी छत पर स्थापित नई
तरह का अशोक प्रतीक अगर मिलकर देश में भाजपा के लिए वैसा ही वातावरण
बनाएं जैसे एक जमाने में राम मंदिर जैसा मुद्दा बनाता रहा है तो इसमें किसी को
आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इतिहास में अब तक हमारे यहां ज्यादातर आम चुनाव
भावनात्मक मुद्दों पर ही लड़े और जीते गये हैं।
हमारे यहां राजनीतिक नैरेटिव बहुत ठोस मुद्दों पर कभी सेट नहीं होता, क्योंकि
ठोस मुद्दों को समझने और उनसे प्रभावित होने के लिए देश के मतदाताओं का जो
सियासी प्रशिक्षण होना चाहिए, वह अभी नहीं हुआ है या फिर उसे जानबूझ कर
नहीं होने दिया गया।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर