कांग्रेस को मोर्चे में रखना घाटे का सौदा साबित होगा

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां अभी से तैयारी में जुट गई हैं,
लेकिन इस मामले में भारतीय जनता पार्टी का कोई मुकाबला नहीं। कहा जाता है
कि यह पार्टी हमेशा चुनावी मोड में रहती है, भले उस समय चुनाव नहीं हो रहे हों।
इसलिए चुनाव के लिए उसका सबसे ज्यादा तैयार रहना लाजिमी है। इधर विपक्षी
पार्टियां मोर्चेबंदी की कोशिश कर रही हैं, ताकि भाजपा को 2024 में बहुमत पाने से
रोका जा सके। विपक्षी पार्टियों में अब जदयू भी शुमार हो गया है, जिसके नेता
नितीश कुमार भी विपक्षी एकता संभव बनाने में जुट गए हैं। लेकिन विपक्षी एकता
में अनेक बाधाएं हैं और सबसे बड़ी बाधा का नाम है कांग्रेस, जो अपने खराब दिनों
में भी आज देश के बहुत बड़े हिस्से में फैली हुई है। वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है
और उसका विस्तार भी विपक्षी पार्टियों में सबसे ज्यादा है।
अनेक राज्यों में तो क्षेत्रीय दलों के साथ उसकी मोर्चेबंदी हो ही नहीं सकती, क्योंकि
कांग्रेस खुद इतनी कम सीटों पर नहीं लड़ना चाहती, जिससे उस राज्य में उसके
अस्तित्व पर ही खतरा हो जाए। जहां जहां कांग्रेस जूनियर पार्टनर बनकर चुनाव
लड़ी है, वहां-वहां वह समाप्त होती गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और झारखंड
इसका उदाहरण हैं। उत्तर प्रदेश में वह अपने बूते लड़ी, उसे दो सीटें आईं। बिहार
और झारखंड में भी यदि वह अपने बूते लड़े, तो नतीजा अलग नहीं होगा यानि
जूनियर पार्टनर के रूप में गठबंधन के बाद वह पूरी तरह से क्षेत्रीय पार्टी पर हमेशा
के लिए आश्रित हो जाती है और यदि अकेले चुनाव लड़े, तब मुश्किल से एकाध
सीटें जीत पाती है।
इसलिए यदि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ पूर्ण गठबंधन करने के लिए मोर्चाबंदी
करे, तो जिन राज्यों में वह अभी अकेले लड़ती है, वहां भी उसे अपनी जमीन खोनी
पड़ेगी। यदि सपा से उसका समझौता होता है, तो उसे मध्यप्रदेश में सपा को सीटें
देनी पड़ेंगी, जो वह नहीं चाहेगी। यदि कांग्रेस आम आदमी पार्टी से समझौता करती
है, तो पंजाब में उसे आम आदमी पार्टी को बहुत सीटें देनी होंगी और वहां भी वह
समाप्त होने लगेगी। दिल्ली में में तो वह लगभग समाप्त हो ही गई है। आम
आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ मोर्चाबंदी करेगी, तो गुजरात में भी कांग्रेस से सीटें
मांगेगी, जो कांग्रेस हरगिज नहीं देना चाहेगी। यह तो कांग्रेस की समस्या है। अनेक
राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को सीट नहीं देना चाहेंगी। तेलंगाना में केसीआर
कांग्रेस के लिए एक भी सीट छोड़ने को तैयार नहीं होंगे, क्योंकि उनकी खुद
प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है और ज्यादा से ज्यादा सीटें खुद जीतना चाहेंगे।
ओडीसा में नवीन पटनायक कांग्रेस के साथ समझौता करने की नहीं सोच सकते
और इसी कारण उनकी पार्टी विपक्षी एकता की मुहिम से बाहर रहती है। उनका खुद
का दिल्ली आना जाना बहुत कम रहता है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी
कांग्रेस के लिए सीटें नहीं छोड़नी चाहेंगी। वह खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं और
अपनी पार्टी के निशान पर ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालना चाहेंगी। 
गुलाम नबी आज़ाद ने कहा है कि कांग्रेस की सीटें अगले लोकसभा चुनाव में
घटकर 25 हो जाएंगी। अब जो कांग्रेस की स्थिति है, उसमें यह असंभव नहीं।
कांग्रेस की सीटें अभी केरल, तमिलनाडु और पंजाब के कारण हैं। केरल में उसका
मुकाबला वाम मोर्चे से है। जितनी सीटें उसने केरल से पिछले लोकसभा चुनाव में
जीता था, उसे बचाना उसके लिए मुश्किल होगा। तमिलनाडु में अब सत्तारूढ़ पार्टी
के साथ है। इसके कारण सत्ता विरोधी भाव का सामना उसे तमिलनाडु में भी
करना होगा। इसलिए वहां भी उसकी सीटें घटेंगी। पंजाब में उसकी हालत बहुत
खराब हो चुकी है। इसलिए वहां भी उसकी सीटें घटेंगी। जहां-जहां उसका सीधा
संघर्ष भाजपा से है, वहां वहां लोकसभा चुनाव में उसका जीतना कठिन होता रहा
है। अब कांग्रेस की हालत तो और भी बदतर हो गई है इसलिए वैसे राज्यों में
उसकी जीत और कठिन होगी। असम जैसे राज्यों में भाजपा ने अपने को बहुत
मजबूत कर लिया है। वहां कांग्रेस की पराजय तय है।
यदि कांग्रेस को अलग कर के विपक्षी पार्टियां मोर्चा बनाएं तो यह आसानी से बन
जाएगा, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का अपना अलग क्षेत्र है, जहां वे एक दूसरे से नहीं
टकरातीं। यह सच है कि एक राज्य की क्षेत्रीय पार्टी का दूसरे राज्य में कोई प्रभाव
नहीं होता। लेकिन एकताबद्ध होने से एक ऐसा संदेश अवश्य जाता है, जिससे
क्षेत्रीय पार्टी अपना वोट प्रतिशत कुछ बढ़ा सकती है। अब यदि क्षेत्रीय पार्टियों की
पूर्ण मोर्चेबंदी हो जाये, तो यह लगने लगेगा कि भाजपा को सत्ता से बाहर किया
जा सकता है। इस तरह की उम्मीद क्षेत्रीय पार्टियों को मजबूती भी प्रदान करती है।
इसलिए अब गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा का वह मोर्चा बनाना चाहिए, जो 1990 के
दशक में बनता था। इस तीसरे मोर्चे का उद्देश्य 272 से ज्यादा सीटें लाना होना
चाहिए। और यदि उतनी सीटें नहीं आती है, तो कांग्रेस के साथ चुनाव बाद गठबंधन
का रास्ता तो खुला रहेगा ही। (संवाद)