एक दूसरे के पूरक हैं मनुष्य और पशु-पक्षी 

अक्सर इन्सान और जानवर के बीच संघर्ष होने, एक-दूसरे पर हमला करने की घटनाएं होती रहती हैं। मनुष्य क्योंकि सोच सकता है, इसलिए वह अपने लाभ के लिए उनकी नस्ल मिटाने में भी संकोच नहीं करता जबकि प्रकृति की अनूठी व्यवस्था है कि दोनों अपनी-अपनी हदों में एक साथ रह सकते हैं।
देश में चीते समाप्त हो गए थे और जानकारों के मुताबिक उससे प्राकृतिक संतुलन में विघ्न पड़ रहा था, इसलिए उन्हें फिर से यहां बसाया जा रहा है। कुछ तो महत्वपूर्ण होगा कि यह कवायद की गई। चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जीव है, अपनी हदें पार न करने के लिए जाना जाता है, जैव विविधता और इकोसिस्टम बनाए रखने में सहायक है। वन संरक्षण के लिए ज़रूरी जानवरों की श्रेणी में आता है जैसे शेर, बाघ, तेंदुआ, हाथी, गैंडा जैसे बलशाली, भारी भरकम और बहुउपयोगी जानवर हैं।
सभी पशु-पक्षी मनुष्य के सहायक हैं लेकिन यदि उनके व्यवहार को समझे बिना, उन्हें उजाड़ने की कोशिश की जाती है तो वे हिंसक होकर विनाश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हाथी ज़मीन को उपजाऊ बना सकता है लेकिन उसे क्रोध दिला दिया तो पूरी फसल को चौपट कर सकता है। इसी तरह गैंडा कीचड़ में रहकर मिट्टी की अदला-बदली का काम करता है, प्रतिदिन पचास किलो वनस्पति की खुराक होने से जंगल में कूड़ा करकट नहीं होने देता। उसके शरीर पर फसल के लिए हानिकारक कीड़े जमा हो जाते हैं, वे पक्षियों का भोजन बनते हैं और इस तरह संतुलन बना रहता है लेकिन यदि वह विनाश पर उतर आए तो बहुत कुछ नष्ट कर सकता है।
हाथी के दांत और गैंडे के सींग के लिए मनुष्य उनकी हत्या कर देता है जबकि ये दोनों पदार्थ उसकी कुदरती मौत होने पर मिल ही जाने हैं। इन पशुओं के सभी अंग और उनके मलमूत्र दवाइयां बनाने से लेकर खेतीबाड़ी के काम आते हैं और कंकाल उर्वरक का काम करते हैं। मांसाहारी पशु शाकाहारियों का शिकार करते हैं और उनकी आबादी को नियंत्रित करने का काम करते हैं। जो घास फूस खाते हैं, वे वनस्पतियों को ज़रूरत से ज्यादा नहीं बढ़ने देते और इस तरह जंगल में अनुशासन बना रहता है। इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और वह प्राकृतिक संतुलन होने के कारण नुकसान से बचा रहता है। यदि हम अंधाधुंध जंगलों को नष्ट करते हैं तो उसका सीधा असर हम पर ही पड़ता है।
बहुत से पशु-पक्षी ऐसे हैं जो न हों तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जाएगा। चमगादड़ जैसा जीव कुदरती कीटनाशक हैं। यह एक घंटे में खेतीबाड़ी के लिए हानिकारक एक हज़ार से अधिक कीड़े-मकोड़े खा जाता है। मच्छरों को पनपने नहीं देता और इस तरह कृषि और उसमें इस्तेमाल होने वाले जानवरों और दुधारू पशुओं की बहुत-सी बीमारियों से रक्षा करता है। 
मधुमक्खी, तितली और चिड़ियों की प्रजाति के पक्षी अन्न उगाने में किसान की भरपूर सहायता करते हैं। परागण में कितने मददगार हैं, यह किसान जानता है। पेस्ट कंट्रोल का काम करते हैं। गिलहरी को तो कुदरती माली कहा गया है। केंचुआ ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए कितना ज़रूरी है, यह किसान जानता है।
जितने भी घर में पाले जा सकने वाले जानवर और दूध देने वाले पशु हैं, उनकी उपयोगिता इतनी है कि अगर वे न हों या उनकी संख्या में भारी कमी हो जाए तो मनुष्य की क्या दशा होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। गाय, भैंस, घोड़े, बैल, सांड  से लेकर कुत्ता, बिल्ली तक किसी न किसी रूप में मनुष्य के सहायक हैं। इसीलिए कहा जाता है कि पशु-पक्षी आर्थिक संपन्नता के प्रतीक हैं। हमारी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने वाले घटकों में पर्यावरण संतुलन, वन संरक्षण, जैव विविधता और मजबूत इकोसिस्टम शामिल हैं। हमारा औद्योगिक विकास इन्हीं पर निर्भर है। इसके साथ ही पर्यटन, मनोरंजन, खेलकूद और जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटाने के लिए वन विकास और वन्य जीव संरक्षण जरूरी है। यह समझना सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
इस स्थिति में सुधार तब ही संभव है जब सामान्य व्यक्ति यह समझ सके कि मनुष्य और पशु एक-दूसरे पर न केवल निर्भर हैं बल्कि पूरक भी हैं। दोनों का अस्तित्व ही खुशहाली का प्रतीक है। यदि जंगल से एक जीव लुप्त हो जाता है तो उसका असर सम्पूर्ण पर्यावरण पर पड़ना स्वाभाविक है। चीता इसका उदाहरण है। इस लुप्त हो गए जीव को फिर से स्थापित करने का प्रयास यही बताता है कि किसी भी भारतीय पशु के लुप्त होने का क्या अर्थ है। इसलिए आवश्यक है कि यह समझा जाए कि इसके क्या कारण हैं?
यदि हम गैर-कानूनी शिकार, जानवरों की बस्तियों में इन्सान के दखल और थोड़े से पैसों के लाभ को छोड़ने का मन बना लें तो कोई कारण नहीं कि इनकी उपयोगिता समझ में न आए।
औद्योगिक विकास देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है लेकिन यदि इससे जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है तो दोबारा सोचना होगा। आधुनिक विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि बिना वन विनाश किए उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं। यह प्राकृतिक असंतुलन का ही परिणाम है कि हमें प्रति वर्ष अतिवृष्टि या अत्यधिक सूखे का सामना करना पड़ता है। इससे बचना है तो प्रकृति के साथ टकराव नहीं, सहयोग करने की आदत डालनी होगी।