महंगाई पर अकुंश लगाने हेतु सरकार की कवायद 

महंगाई को नियंत्रित करने के लिए रिजर्व बैंक ने एक बार फिर से रेपो रेट में 0.50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने 30 सितम्बर, 2022 को रेपो रेट में बढ़ोत्तरी का यह ब्रह्मास्त्र मई 2022 के बाद से चौथी बार चलाया है। इससे अब तक महंगाई कितनी कम हुई है, यह तो हम सब अपने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से जानते ही हैं लेकिन इस कवायद से बैंक कज़र्दारों को 500 रुपये से लेकर 10000 रुपये मासिक तक ब्याज की बढ़ोत्तरी ज़रूर हो चुकी है। 30 सितम्बर, 2022 को रेपो रेट में की गयी 0.50 फीसदी की बढ़ोत्तरी के बाद अब रेपो रेट बढ़कर 5.90 फीसदी हो गया है। रेपो रेट दरअसल ब्याज की वह दर होती है जिसमें रिजर्ब बैंक दूसरे बैकों को कज़र् देता है। मई 2022 के बाद से इसमें अब तक 1.90 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इस कारण जिन लोगों ने होम लोन, कार लोन, पर्सनल लोन ले रखे हैं, उनकी ईएमआई की किस्तें असहनीय बोझ बन गयी हैं।
यह कैसी बड़ी विडम्बना है कि आरबीआई के गवर्नर ने महंगाई कम करने के नाम पर रेपो रेट की जो बढ़ोत्तरी की है, उससे 20 करोड़ से ज्यादा लोगों के गले में पड़ा ईएमआई का फंदा पिछले छह महीनों में चौथी बार थोड़ा और कस गया है। गौरतलब है कि क्रेडिट इंफर्मेशन कंपनी (सीआईसी) की 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कुल वर्क फोर्स का आधा यानि 20 करोड़ से कुछ ज्यादा लोग कम से कम एक ऋण या क्रेडिट कार्ड से लिए गये उधार की ईएमआई चुका रहे थे। मतलब देश में कम से कम 20 करोड़ से कुछ ज्यादा लोग हर महीने एक मासिक किस्त का भुगतान कर रहे थे। एक अन्य आंकड़े के मुताबिक करीब 11 करोड़ लोगों पर होम लोन और पर्सनल लोन का शिकंजा है। ऐसे में रेपो रेट बढ़ाकर महंगाई पर लगाम लगाने की कोशिश भले अंधेरे में तीर मारने जैसी हो लेकिन रेपो रेट बढ़ने के कारण करीब 20 करोड़ कज़र्दारों पर कज़र् का बोझ बढ़ना हकीकत है। सवाल है, क्या कज़र् का बोझ बढ़ना महंगाई बढ़ने जितना चिंताजनक नहीं है?
  आरबीआई रेपो रेट से महंगाई पर लगाम लगाने के अनुमानित नतीजे की एवज में, हर महीने ईएमआई चुकाने वालों को किस्तों के बोझ में दबा दिया गया है। यह तो कर्ज लेने वालों के साथ सरासर नाइन्साफी है। आरबीआई सरेआम एक बहुत बड़े वर्ग को कज़र् बढ़ोत्तरी के फंदे से लटका रही है।  कहीं ऐसा न हो कि आरबीआई की बार-बार कज़र्दारों पर बोझ बढ़ाने की यह कोशिश बड़े पैमाने पर आम कज़र्दारों को भी डिफॉल्ट लाइन में लाकर खड़ा कर दे। गौरतलब है कि देश में बड़े कज़र्दार भले लाखों, करोड़ रुपये की कज़र् अदायगी में डिफॉल्ट कर जाते हों, लेकिन 90 फीसदी से ज्यादा छोटे कज़र्दार समय पर अपनी किस्त की अदायगी कर रहे हैं। इनमें भी 70 फीसदी से ज्यादा देश के छोटे कज़र्दार बिल्कुल सही समय पर कज़र् की किस्त अदा कर रहे हैं। अब वे कैसे अदा कर रहे हैं, कोरोनाकाल की आफत के बाद वही जानते हैं, लेकिन जिस तरह से उन पर लगातार कज़र् की किस्त का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ाया जा रहा है, क्या आरबीआई चाहती है कि बढ़े पैमाने पर ये छोटे कज़र्दार भी किस्त अदा कर पाने में असमर्थ हो जाएं? अगर नहीं तो आखिर छोटे कज़र्दारों पर बार-बार ब्याज का बोझ बढ़ाने का क्या मतलब है?  गौरतलब है कि हिंदुस्तान दुनिया के उन कुछ गिने चुने देशों में से एक है जहां ज्यादातर आम लोग अपने कज़र् की किस्त समय पर अदा करते हैं लेकिन जो सिलसिला पिछले छ: महीनों से चल रहा है, यह उन्हें कब तक ऐसा बना रहने देगा? करीब दो साल तक रेपोरेट 4 फीसदी रही, जिस कारण बड़े पैमाने पर लोगों ने कर्ज लेकर अपनी छोटी छोटी महत्वाकांक्षाओं को पंख दिए लेकिन अब उनके फंदे में फंस जाने के बाद जिस तरह से उन्हें नींबू की तरह निचोड़ा जा रहा है, उससे वे कब तक सलामत रह पायेंगे? सरकार अपनी तमाम योजनाओं के ज़रिये बार-बार कहती है कि वह देश में निजी कज़र् यानी साहूकार से लिए जाने वाले कज़र् को खत्म करना चाहती है लेकिन क्या कोई साहूकार छह महीने के भीतर चार बार अपने ब्याज में बढ़ोत्तरी करता है। अगर लोग सरकार के तमाम उपदेशों के बावजूद साहूकारों के पास आज भी कज़र् लेने जाना नहीं छोड़ रहे, तो इसके पीछे कहीं न कहीं आरबीआई की ऐसी नीतियां भी हैं जो भले अर्थशास्त्र के पैमाने पर दुरुस्त हों लेकिन ज़िन्दगी के शास्त्र में फिट नहीं बैठतीं। आम छोटे कज़र्दार आखिर अपनी यह पीड़ा किसे सुनाने जाएं? किसे यह बताये जाएं कि पहले से ही ईएमआई का बोझ उनके लिए भारी पड़ रहा है। उस पर एक बार फिर यह बढ़ोत्तरी, आखिर बैंक चाहते क्या हैं?
गौरतलब है कि शहरी क्षेत्र में सीईसी के मुताबिक ईएमआई चुकाने वाले आम तौर पर 18 से 33 साल के नौजवान हैं और इसी वर्ग ने कोरोना के कारण बड़े पैमाने पर अपनी जॉब खोई है। अब ये लोग कोरोना से निपटने के बाद पहले से कम वेतन पर नौकरी करने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में उन पर मासिक किस्तों की यह बढ़ोत्तरी वाकई घाव पर नमक छिड़कने के जैसा है। कोरोना काल में असंगठित क्षेत्र की करीब 71 फीसदी महिलाओं ने अपना काम खो दिया था। हालांकि अब उनमें से करीब 50 फीसदी महिलाएं दोबारा से काम पर लग चुकी हैं, लेकिन अभी भी 20 से 22 फीसदी महिलाएं बेरोज़गार हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जिन महिलाओं ने दोबारा से रोज़गार हासिल कर लिया है, उन्हें भी  कोरोना काल के पहले के वेतन से 8 से 15 फीसदी तक कम मिल रहा है। आखिरकार ये महिलाएं बढ़ी हुई मासिक किस्तें कैसे दे पाएंगी? पता नहीं क्यों आरबीआई और सरकारें यह भूल जाती हैं कि देश में 94 फीसदी लोग सरकारी नौकरी की सुरक्षित छाया से बाहर बसते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर