दीपावली की खुशी

दीपावली नज़दीक थी। लोग अपने-अपने घरों की रंगाई . पुताई में मशगूल थे। बाज़ार में दीयों से लेकर तरह-तरह के पटाखों की भरमार थी। लोग मिठाइयों व दीयों की खरीदारी में व्यस्त थे। दुखिया, बहुत बीमार होने के कारण खटिया से हिल भी नहीं पाती थी। काम-धंधे की कौन कहे। पहले जब ठीक थी। तो घरों में चूल्हा-चौका, कपड़े-बर्तन कर देती थी। लोग कुछ न कुछ हाथ पर धर देते थे। उसी से गुजरा चल जाता था। लेकिन, इधर कुछ दिनों से उसे रह-रहकर तेज़ बुखार आ जाता था। डॉक्टर को दिखाने के लिए इतने पैसे भी पास में नहीं थे।
अपने मटमैले और उदास झौपड़े में खाट पर पड़ी यही सब सोच रही थी कि सहसा उसे अपने पति घोपू की याद आई। पिछले साल कोविड़ में उसका पति भी चल बसा था। तब से वो अकेली और अलग-थलग पड़ गई थी।
एक बेटा दीपु था। जो सालों पहले परदेश कमाने गया था। जो अब तक नहीं लौटा था।  पता नहीं किस हाल में था वो।
वो अभी इन्हीं बातों को सोच रही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई -‘दुखिया ओ, दुखिया ...दरवाज़ा खोल...।’
आवाज़ कुछ जानी-पहचानी सी लगी। तो बहुत हिम्मत करके दुखिया किसी तरह खटिया से उठकर दरवाजे तक आई। और किसी तरह उसने दरवाज़ा खोला।
सामने देखा तो मंगत राम खड़ा था। दुखिया, मंगत राम की तरफ  देखते हुए बोली-‘क्यों मंगत इतनी रात गये? सब ठीक-ठाक तो है।’
दुखिया सशंकित होते हुए बोली।
मंगत राम जानकी बाबू और सोसायटी का चौकीदार था। दरवाजे पर आकर रौबदार आवाज़ में बोला- ‘चल, सोसायटी वालों ने तुझे याद किया है।’
दुखिया अचरज से बोली-‘कोई ज़रूरी काम है क्या मंगी?’
‘मुझे नहीं पता। लेकिन जब जानकी बाबू और सोसायटी वालों ने बुलाया है तो कोई न कोई काम जरूर ही होगा। जानकी बाबू और सोसायटी वालों ने कुछ बताया नहीं है। हो न हो शायद तेरे वास्ते कोई काम निकल आया हो।’
दुखिया बोली- ‘अभी तो रात का टाइम है। चल मैं कल सुबह आती हूँ । इतना कहकर उसने दरवाज़ा बंद कर दिया।’
सुबह जब, बुखार कुछ कम हुआ। तो दुखिया, सोसायटी पहुँची। उसे सारी रात जानकी बाबू का डर सताता रहा था कि पता नहीं आखिर क्या बात हुई है कि जानकी बाबू और सोसायटी वालों ने रात को ही मंगतराम को मुझे बुलाने को भेजा था।
वैसे सोसायटी वाले लोग काफी स्नेहशील और मिलनसार स्वभाव के थे। लेकिन, जानकी बाबू बहुत ही सख्त स्वभाव के थे।
लेकिन, जब वो सोसायटी पहुँची तो उसका मन खुशी के मारे चहक उठा।
सबसे पहले जानकी बाबू ही आगे आये और बोले-‘तुम्हारा यह व्यवहार हमें बिल्कुल भी पसंद नहीं आया, दुखिया। तुम हमें गैर समझती हो क्या?’
तुम सप्ताह भर से बीमार हो और हमें पता ही नहीं था। खैर, इसके बारे में हमें तुम्हारी बस्ती के ही एक आदमी ने बताया कि तुम बीमार हो। तुम्हें कम-से-कम एक फोन ही कर देना चाहिये था। यह सोसायटी और हम लोग सब तुम्हारे अपने हैं। तुम हमारे सुख-दु:ख में हमारा कितना ख्याल रखती हो। हमारा भी तो तुम्हारे प्रति कुछ दायित्व बनता है कि हम भी तुम्हारे लिये कुछ करें।’
डा. घोष हाथ में दीये और कंदीले लेकर खड़े मुस्कुरा रहे थे। शीला दी के हाथ में मिठाइयों का डिब्बा था। गोमती दी कपड़ों का पैकेट पकड़े मुस्कुरा रहीं थीं।
तब, फिर घोष बाबू बोले- ‘सच्ची, दीपावली मनाने का असली मज़ा तभी है जब हम इसे अपने आस-पड़ौस के लोगों के साथ मिलकर मनायें। दीपावली का यह पावन त्यौहार अपने सहकर्मियों और शुभेच्छुओं के साथ मिलकर मनाना चाहिये। दुखिया, तुम्हारे बिना हमारी दीपावली हमेशा अधुरी मानी जायेगी। अच्छा किया जो आज तुम आ गई। आज तुम नहीं आती तो कल हम तुम्हारे घर चले आते। कल क्लीनिक पर आ जाना। ब्लड का सैंपल ले लूँगा? फिर दवा भी लेती जाना। दवा, टैस्ट और जाँच करवा लेना। पैसे नहीं लगेंगें।’ 
इस अपनत्व और प्रेम भरे व्यवहार को पाकर दुखिया आह्लादित होकर रह गई। उसका हृदय सोसायटी के लोगों का स्नेह पाकर गद्गद् हो गया।
कौन कहता है। उसका कोई परिवार नहीं है। यह इतनी बड़ी सोसायटी ही तो उसका परिवार है। दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं? उसकी सारी शंका निर्मूल ही थी। आज दीपावली का दिन था। दुखिया, अपने झौपड़े की तरफ  लौट गई। झौपड़ी में दीये जलाये। सोसायटी से मिली नई साड़ी पहनी। आस-पड़ोस के लोगों को मिठाई खिलाई। खुद भी खाई। देर रात मिट्टी के बर्तन में खीर पकाई।
आधी रात को दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोलकर देखा तो सामने उसका बेटा दीपु खड़ा था। दुखिया की आज दीपावली के दिन लाटरी निकल आई थी। दुखिया ने दीपु को खीर खिलाई। दीपावली की वह रात बहुत ही खुबसूरत थी। दिल के अंदर और बाहर दोनों जगह दीपावली मनी थी! सचमुच में आज बड़ी दीपावली थी।*
-मेघदूत मार्किट फुसरो
बोकारो (झारखंड) पिन.829144