द्वि-शब्दीय कविताओं का विलक्ष्ण कवि दर्शन बुट्टर

दर्शन बुट्टर छोटी कविताएं लिखते हैं। अति छोटी। द्वि-शब्दीय। इनके अर्थ बड़े हैं। बहुत बड़े। उनका श्रमिक फंदा देखते हुए भी सोचता है। उनके काव्य संग्रह ‘अक्कां दी कविता’ में ऐसे दर्ज है : 
इह कोई ढंग नहीं ऱुखसत होण दा
मुड़के दा मुल्ल
ऐना घट्ट नहीं हो सकदा

संघ हेठ लहर उतारन नाल 
पैरां हेठली ज़मीन वापस नहीं आऊंदी
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बे रुत्ते ऱुखसत होण वाले
भार मुक्त नहीं हुंदे
हऊकियां दीयां पंडां हेठ दब्बे
वैणां दी प्रकरमा करदे रहिंदे
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छत्त नाल लमकदा रस्सा
छत्त दी सलामती दा ज़ामन नहीं बणिया
=
बुट्टर अपने ‘महां कम्बणी’ संग्रह में लम्बी उड़ान भरने वालों की भी द्वि-शब्दीय करते हैं : 
इक कण कमज़ोर होवे
तां लैय उखड़ जांदी कुदरत दी
इक खम्भ हम्भ जावे  
तां मूधे-मुंह आ डिग्गे परिंदा
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अजे असीं सिखणां है बहुत कुछ
पत्तियां नाल खेडदी हवा कोलों 
गुबारियां...पतंगां कोलों
हवा संग उड्डदे खम्बां कोलों 
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कोई कोई परवाज़
खम्भां तों बागी वी हुंदी 
कोई कोई पतंग 
हवा तों बगैर वी उडदी
कोई कोई नज़म 
हरफां तों बिना वी संचार करदी
बुट्टर अधिक शब्दों का दामन नहीं थामते। लो देखो ‘खड़ावां’ काव्य संग्रह में से भ्रम पालने वालों के शब्द :
बोलण नूं तां...बहुत उच्चा बोलदे हां
कि अंदरला शोर डर जावे 
पर दस्सण वाले दस्सदे हन
कि असीं चुप्प दी ज़ुबान नहीं जाणदे
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लंघण नूं तां लंघ आये हां
सत्त समुंदरों पार
पर दस्सण वाले दस्सदे हन 
कि हर रात पिंड परत आऊंदे हां
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बीतण नूं तां...बीत रिहा है
वक्त...वक्त सिर 
पर दस्सण वाले दस्सदे हन
वक्त दी गरारी घस चुकी है।
=
‘शब्द शहर ते रेत’ काव्य संग्रह में हस्ती पहचानने का अनूठा क्यास भी नोट करने वाला है।
कई बेलां बुड्ढे बिरख दी अहमियत पछाण 
सुक्के तणियां ’ते वी चढ़ जांदीयां 
=
कई संजीवनीयां कुड़त्तण ’चों मिठास भाल
थोर दे जड़ीं उग्ग पैंदीयां
=
कई ठंढीआं पौणां
धुखदे वरोलियां संग रल के सुलघ पैंदीयां 
=
इसी प्रकार दर्शन बुट्टर के ‘दर्द मजीठी’ संग्रह में से ज़िन्दगी के साथ उलझने की वेदना भी नोट करने वाली है :
ज़िन्दगी दे बूहे ’ते उक्करिया हुंदा
मौत दा मुकम्मल सिरनावां
सोचणां तां इह है कि 
ज़िंदा किवें रखणा है मौत नूं
=
कोई चामल चामल के
खर्च लैंदा है ज़िन्दगी
कोई संभल संभल के
मौत संभाल लैंदा है
=
अंत में मैं देश की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष से गुज़रता हुआ कवि द्वारा दिये गये अमन के संदेश की बात करना चाहूंगा। विशेष कर इसलिए कि मैंने अपनी जवानी में सन् सैंतालीस के बहुत बुरे दिन देखे हैं, मार-काट तथा लूट-पाट वाले।
जंग दे दिनां विच्च सिखर दुपहरे पै जांदा
चिट्टे सूरजां का काल
नहीं लभदे 
गोरीयां मावां नूं ...चन्ना वरगे बाल
=
जंग खोह लेंदी साडे सुख...चैन...आराम
खुल के जिऊण दीयां इच्छावां नूं 
मूलीयां वांग कट्ट दिंदी
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लहू डुलदा जद सरहद दे आर-पार
डुल-डुल पैंदी मुटियार दा दिल कंबदा
नन्हे बाल दा भविख...बुल चित्थ के रोंदा
=
यदि मैंने अपनी बात दर्शन बुट्टर के ही शब्दों से समाप्त करनी हो तो निम्नलिखित कविता पेश करूंगा :
भालदा फिरदा हां धुंध ’च लुकिया सूरज
सीने ’च बाल के...निक्कीयां निक्कीयां धूणीयां
साहां दी सुलगण ’चों 
लाट बण उठदीयां इह नज़मां
सिर्फ कनसोयां ने...मेरी तलाश दीयां
=
परन्तु कवि की अप्रकाशित कविताओं का एक नमूना दिये बिना उसके दम-खम की बात अधूरी होगी। सो— 
घर दी छत्त उत्ते
अच्छोपले जिहे आ बहिंदी चन्न चानणी
मेरा वजूद 
सगल सगल पसारे ’चों गुज़र जाणा नोचदा
दर्शन बुट्टर को उसकी द्वि-शब्दीय मुबारक!
अंतिका
-उस्ताद दामन-
इस मुलक दी वंड दे कोलों यारो
खोये तुसीं वी हो, खोये असीं वी हां
भावें मुंहों न कहीये, पर विचों विच्चीं
खोये तुसीं वी हो, खोये असीं वी हां
इन्हां आज़ादीयां हत्थों बर्बाद होणा
होये तुसीं वी हो, होये असीं वी हां
जागण वालियां रज्ज के लुट्टिया ए
सोये तुसीं वी हो, सोये असीं वी हां
लाली अक्खीयां दी पई दस्सदी ए
रोये तुसीं वी हो, रोये असीं वी हां।