ब्राज़ील के चुनाव भारत पर भी डालेंगे असर

भ्रष्टाचार के मामले में जेल काटकर लौटे लुइज़ इंसियो लूला द सिल्वा ने ब्राज़ील के राष्ट्रपति चुनावों में राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो को भ्रष्टाचारी बता कर और उनके खिलाफ  भ्रष्टाचार का व्यापक अभियान चलाकर उन्हें इसी मुद्दे पर चुनाव में हरा दिया। अब नए साल से लूला ही ब्राज़ील के नये और कुल मिलाकर तीसरी बार राष्ट्रपति बनेंगे। यह बदलाव ब्राज़ील की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति और उसके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर क्या असर डालेगा, खासकर भारत को लेकर इसे किस तरह लेना चाहिये? 
 नव निर्वाचित लुइज़ इंसियो लूला डेढ़ महीने बाद जब ब्राज़ील के राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे, तब तक उनकी जीत से उठते कुछ सवाल, जुड़ रही मान्यताओं और स्थापनाओं तथा अपने देश के ऊपर इस परिदृश्य के प्रभाव के संबंधों में जवाब तलाशना और उस संदर्भ में सोचना समीचीन होगा। लूला की जीत के बाद वामपंथी बेहद उत्साहित हैं। उनके अनुसार यह लैटिन अमरीका में वामपंथ की लहर है। दक्षिणपंथी बोलसोनारो की वामपंथी लूला के हाथों हार को क्या वाकई वामपंथ के वर्चस्व के तौर पर देख सकते हैं? एक स्थापना दी जा रही है कि लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चला रहे या उसका परोक्ष प्रयास कर रहे शासकों को जनता उखाड़ फेंक रही है। नेतान्याहू, डोनाल्ड ट्रंप, राजपक्षे के बाद अब बोलसोनारो की बारी आयी है। क्या वाकई ऐसा चलन है? कम से कम बोलसोनारो की हार को तो तानाशाहों को जड़ से उखाड़ने के ट्रेंड में नहीं गिना जा सकता। उनको जनता के 49 फीसदी से ज्यादा का समर्थन मिला है। लूला की विजय वास्तविक तौर पर ब्राजील की गरीब जनता, उनकी अपेक्षाओं की जीत है, ऐसा प्रचार करने वाले भी बहुत हैं। इससे उलट यह कहने वाले भी हैं कि बोलसोनारो के समर्थक आसानी से यह हार नहीं पचा पाएंगे और देश में हिंसा और अराजकता फैलेगी।
आखिर इन सब दावों में कितना दम है? ब्राज़ील में चुनावी नतीजों के बाद हारा उम्मीदवार परिणाम से सहमति जताते हुए जनता को सम्बोधित करता है। लेकिन नज़दीकी हार से पदच्युत हुये पूर्व राष्ट्रपति बोलसोनारो ने इस परम्परा के खिलाफ अपनी हार अस्वीकार की और चुनाव अधिकारियों में लूला के समर्थक होने, उनके द्वारा ईवीएम का दुरुपयोग कर हराये जाने का आरोप लगाते हुए अपने समर्थकों को भड़काया कि इसका बदला लेना है। क्या इसका व्यापक असर होगा? क्या वाकई बोल्सोनारो ब्राज़ील के कार्यकारी राष्ट्रपति रहते हुये अपने ही देश में ऐसी अशांति पैदा करवाएंगे कि लूला अपनी कुर्सी से वंचित रह जाएं अथवा उनका रास्ता इस तरह कंटकाकीर्ण हो जाए कि वह लाचार हो जाएं? या फिर ब्राज़ील की दलीय राजनीति के अत्यंत अनुभवी राजनीतिज्ञ लूला इन सब आशंकाओं से भलीभांति निबट कर न सिर्फ  सत्ता में बने रहेंगे बल्कि अपनी नीतियों को प्रभावी तौरपर लागू करके ब्राज़ील की अर्थवयवस्था को उबार लेंगे। देश को भुखमरी जैसी स्थिति से बचा कर उसे प्रगतिपथ पर डाल देंगे? क्या धुर दक्षिणपंथी शासन वाले देश चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों के समर्थन के चलते वामपंथी पहचान वाले लूला की खुलकर सहायता करेंगे? अमरीका और ब्रिटेन जैसी कतिपय महाशक्तियों से ब्राजील के रिश्ते कैसे रहेंगे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नव निर्वाचित राष्ट्रपति लूला को बधाई संदेश देते हुए कहा है, द्विपक्षीय संबंधों को और प्रगाढ़ व व्यापक बनाने के साथ ही वैश्विक मुद्दों पर सहयोग के लिए साथ मिलकर काम करने के लिए उत्सुक हूं। मगर क्या यह जानते हुये कि मोदी एक धुर दक्षिणपंथी सरकार के नेता और बोलसोनारो के प्रबल समर्थक रहे हैं, वह भी इसके लिए उतने ही उत्सुक होंगे? ब्राजील में छह साल बाद वामपंथ की वापसी हुई है मगर अर्जेंटीना, कोलंबिया, पेरू, चिली, होंडूरास और मेक्सिको में वामपंथी नेताओं की जीत के बाद अब इस क्षेत्र के सबसे बड़े देश में लूला की जीत दक्षिण अमरीका में वामपंथ के उभार का परिचायक है, यह तर्क कुछ भ्रामक है क्योंकि इस जीत का फासला दो प्रतिशत से भी कम है। एक को 50 फीसदी से थोड़े कम तो दूसरे को 51 से थोड़ा ही ज्यादा वोट मिले हैं। गार्जियन लिखता है, लूला अब बहुत कट्टर कम्युनिस्ट नहीं बल्कि पूर्व साम्यवादी, प्रगतिवादी नेता हैं। लूला ने यह चुनाव वामपंथी से ज्यादा मध्यमार्गी एजेंडे पर लड़ा है। उनके गठबंधन में मध्यमार्गी ही नहीं दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टियां भी हैं। हालत यह है कि उप राष्ट्रपति पद के लिए उनके दक्षिणपंथी उम्मीदवार जेराल्डो एल्कमिन कभी उनके खिलाफ  ही लड़ चुके हैं। 
बीते तीस सालों में बोलसोनारो पहले राष्ट्रपति रहे जिनको जनता ने एक बार में ही नकार दिया। वजह वामपंथ का उभार नहीं बल्कि कोविड के कुप्रबंधन के अलावा बोलसोनारो की भ्रष्ट राजनीति से उपजी महंगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी जैसी स्थिति थी। चुनाव हद से ज्यादा ध्रुवीकरण वाला था, जिसमें मतदाता दो उम्मीदवारों के बीच बंट गए। 
प्रधानमंत्री मोदी को महाबली हनुमान सरीखा संकटमोचक मानने वाले उनके महाप्रशंसक बोलसोनारो को मोदी ने उनकी नकारात्मक वैश्विक छवि के बावजूद गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि बनाकर इज़्ज़त बख्शी। बोलसोनारो ने भी भारत से तकरीबन 80 समझौते किए। रक्षा, नेचुरल गैस, व्यापार, निवेश, विज्ञान और तकनीकी, दवाइयां, सेहत वगैरह पर कुछ समझौते बहुत महत्वपूर्ण हैं। प्रश्न यह भी है, क्या लूला के शासन काल में उन समझौतों का पूर्ववत सम्मान बना रहेगा? ब्राज़ील में भारतीयों ने कई क्षेत्रों में निवेश किया है। उन पर कोई संकट तो नहीं आयेगा? ब्राज़ील ने बहुत कम निवेश भारत में किया है, क्या वह बढ़ेगा? ब्राज़ील हमारे लिये तेल का बड़ा निर्यातक है। क्या आगे भी बना रहेगा? सच तो यह है कि लूला भली प्रकार जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलसोनारो के कितने करीब रहे हैं लेकिन उसके बाद भी वह भारत और ब्राज़ील के बीच हुए समझौतों को और मजबूती देंगे, यह भी तय है। लूला शुरू से ही व्यावहारिक और लचीला रुख अपनाते आ रहे हैं और इन विषम परिस्थितियों में तो वह भारत जैसे देश के महत्व को खूब समझते होंगे। भारत के विशाल आर्थिक, लोकतांत्रिक स्वरूप, ब्रिक्स, जी-20, जी-4, आईबीएस, और इंटरनेशनल सोलर अलायंस के अलावा बहुपक्षीय निकायों जैसे  संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, यूनेस्को जैसे संगठनों में जिसे ब्राज़ील भरत के साथ साझा करता है, उसमें भारत की क्या हैसियत है, लूला जानते हैं। अपने रिश्ते जितना हो सके वह बेहतर बनाना चाहेंगे। 
   -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर