‘आप’ ने गुजरात चुनाव को बनाया त्रिकोणीय


चुनाव आयोग द्वारा गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक सरगर्मियां उग्र हो गयी हैं। किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र एवं प्रांत में चुनाव सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाती है। गुजरात की जनता इन चुनावों में किसको तिलक करेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। भले ही 1995 से ही गुजरात में भाजपा लगातार मजबूती से चुनाव जीतती रही है, परन्तु क्या इस बार भी वह यह इतिहास दोहरायेगी? कांग्रेस यहां सफल एवं सक्षम प्रतिद्वंद्वी रही है। पिछली बार सत्ता के करीब पहुंचने में वह एक बार फिर चूकी थी। क्या इस बार वह ऐसा होना रोक पायेगी? क्या आम आदमी पार्टी दिल्ली जैसा कोई चमत्कार वहां घटित कर पाएगी?
इन सवालों के बावजूद मुख्य मुकाबला तो इस बार भी भाजपा एवं कांग्रेस के बीच है। हालांकि तीसरे मज़बूत दल के अभाव को दूर करते हुए आम आदमी पार्टी अपनी उपस्थिति से भाजपा एवं कांग्रेस दोनों को ही कड़ी टक्कर दे रही है। दोनों ही दलों की राह इस बार कुछ ज्यादा कठिन जान पड़ती है, क्योंकि ‘आप’ की दस्तक से यहां का चुनावी समीकरण बदलता और चुनाव त्रिकोणात्मक होते दिख रहा है। आप नेता अरविंद केजरीवाल कई महीनों से उग्र प्रचार कर रहे हैं, जिसका असर भी दिखने लगा है। ‘आप’ लोगों का भरोसा जीत पाएगी या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है। इस बार का चुनाव मज़ेदार होने के साथ संघर्षपूर्ण होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमाग में है। एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार को नकेल डाली जा सकती है। लोगों का विश्वास जीता जा सकता है और सुशासन स्थापित किया जा सकता है। 182 सीटों वाली यह विधानसभा क्या एक बार फिर भाजपा को सत्ता पर बिठायेगी? यह प्रश्न राजनीतिक गलियारों में सर्वाधिक चर्चा में है। भले ही त्रिकोणात्मक परिदृश्यों में भाजपा की राह भी संघर्षपूर्ण बन गयी है क्योंकि इस बार के चुनाव नये परिवेश एवं नवीन स्थितियों के बीच त्रिकोणीय होंगे। यहां के पिछले उप-चुनाव भी त्रिकोणीय संघर्ष के संकेत दे रहे हैं मगर इस संघर्ष में एक तरफ  भाजपा है, तो दूसरी तरफ ‘आप’ और कांग्रेस। मौजूदा स्थिति यही उजागर कर रही है कि यहां भाजपा व दूसरी पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला है। यहां के मतदाता भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रभावित हैं। इसीलिए नज़र इस बात पर होगी कि गुजरात चुनावों में दूसरे और तीसरे पायदान पर कौन सी पार्टी कब्जा करती है? 
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अढ़ाई फीसदी वोट प्रतिशत का इज़ाफा करते हुए 41.4 प्रतिशत वोट के साथ स्पष्ट बहुमत से 7 सीटें अधिक लेकर 99 सीटें हासिल कीं एवं सरकार बनायी। उस समय भी मोदी के ही जादू ने असर दिखाया। जादू तो इस बार भी मोदी ही दिखायेंगे लेकिन एक प्रभावी नेतृत्व एवं आपसी फूट के कारण भाजपा की स्थिति जटिल होती जा रही है। गुजरात में आदिवासी मतदाता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। आदिवासी समुदाय के मुद्दों की उपेक्षा एवं आदिवासी नेताओं की उदासीनता के कारण इस बार भी यह समुदाय नाराज़ दिख रहा है। सीटों के बंटवारे के समय उचित एवं प्रभावी उम्मीदवारों का चयन करके इस नाराज़गी को दूर किया जा सकता है। आदिवासी समुदाय ऐसा उम्मीदवार चाहता है जो उनके हितों की रक्षा करे एवं आदिवासी जीवन को उन्नत बनाये।   
गुजरात चुनाव में मुद्दे तो बहुत से हैं किन्तु मुख्य मुद्दा मोरबी में हुआ पुल हादसा बन सकता है। ज़ाहिर है, विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बनाकर भाजपा पर तीखे वार करेगा। यहां आम मतदाताओं में सत्तारूढ़ दल के प्रति कुछ असंतोष दिखाई देता है खासकर पेंशन योजना को लेकर, क्योंकि यहां सरकारी कर्मचारियों की संख्या काफी ज्यादा है, जो चुनाव में तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा प्रभावी होते हैं। यही वजह है कि हर चुनाव में यहां सरकारी कर्मचारियों के मूड को भांपने का प्रयास किया जाता है। नाराज़ कर्मचारी एवं उपेक्षित आदिवासी समुदाय इन दो मुद्दों पर सकारात्मक सोच से भाजपा अपनी कमज़ोर जड़ों को सींच सकती है। अब तो चुनावी टिकटों का बंटवारा ही एकमात्र हल है। भाजपा ने इसके खिलाफ  भी कमर कस ली है। उसने करीब एक-तिहाई मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया है और नए चेहरों पर भरोसा किया है। एक और प्रभावी कोशिश में उसने करीब एक साल पहले यहां का पूरा मंत्रिमंडल बदल दिया था। यहां तक कि नए मुख्यमंत्री की भी ताजपोशी की गई थी। यह सब इसलिए किया गया, ताकि राज्य सरकार के खिलाफ  यदि लोगों में कोई असंतोष है, तो उसको दबाया जा सके। साफ  है, यहां भाजपा की कोशिश न सिर्फ  चुनाव जीतने, बल्कि बड़े अंतर से मैदान मारने की है। 
गुजरात चुनाव में आप की उपस्थिति एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। भाजपा एवं कांग्रेस  में भारी अंतर्कलह है। नतीजतन, कई बागी नेताओं को आप ने टिकट दिये हैं। निश्चित ही ये बागी अपनी पूर्व पार्टी का नुकसान करेंगे। ज़ाहिर है, इससे यहां चुनावी समीकरण नया रूप लेता दिख रहा है, जिससे मुकाबला कांटे का हो सकता है। आप मुकाबले को तिकोणा बना रही है। सबकी नजरें इस बात पर हैं कि यह पार्टी भाजपा और कांग्रेस में से किसके कितने वोट काटती है। कांग्रेस का जोर इस बार रैलियों और आम सभाओं के बजाय डोर-टू-डोर चुनाव अभियान पर है और उसका दावा है कि यह फ लित होगा। भाजपा के पक्ष में सबसे बड़ी चीज़ है उसकी मज़बूत चुनाव मशीनरी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वप्रिय छवि और गृहमंत्री अमित शाह का करिश्माई चुनावी प्रबन्धन एवं प्रभाव। 
कांग्रेस के पास ऐसी स्थितियों का सर्वथा अभाव है। किसी दौर में भले ही कांग्रेस यहां मज़बूत दल हुआ करती थी, लेकिन अब वह काफी कमज़ोर लग रही है। इसलिये ‘आप’ को जो भी मजबूती मिलेगी, वह कांग्रेस की कमज़ोर होती स्थितियों से ही मिलेगी। जाहिर है, कांग्रेस के लिए यहां दोतरफा संघर्ष है। एक तरफ  उसे भाजपा से लड़ना है, तो दूसरी तरफ ‘आप’ से मिल रही चुनौतियों से पार पाना होगा। बावजूद इसके उसकी चाल सुस्त दिख रही है। इसका फायदा भाजपा को मिलेगा। भाजपा के कुछ वोट टूटते भी हैं तो वह आप एवं कांग्रेस में बंट जायेंगे। त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष की स्थिति में असली फायदा भाजपा को ही मिलेगा। यह चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रोज़गार आदि नीतियों तथा प्रदेश की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा।  पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म, रोज़गार, आदिवासी समुदाय व व्यापार व्यापक रूप से उभर कर आए हैं। मोदी ने गुजरात को एक नई पहचान एवं विकास की तीव्र गति दी है, इसकी निरन्तरता ज़रूरी है। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंद कर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ‘अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।’
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