जजों की नियुक्ति संबंधी उपजा विवाद


सर्वोच्च न्यायालय ने देश की भिन्न-भिन्न अदालतों में जजों की नियुक्तियों हेतु होने वाली देरी को लेकर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की है। यह देरी इसलिए सामने आ रही है क्योंकि केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जजों की नियुक्ति हेतु भेजे गये नामों के पैनल को अधर में रखे हुए है, और कि इस पर वह अभी तक कोई फैसला नहीं ले सकी है। नि:सन्देह अकारण हो रही इस देरी के लिए सर्वोच्च न्यायालय का कुपित होना तर्क-संगत एवं लाज़िमी हो जाता है। उच्च अदालतों के लिए नये जजों की नियुक्ति हेतु अपनाई जाती प्रक्रिया के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय औचित्य एवं योग्यता की कसौटी पर खरा एवं सक्षम उतरने वाले जजों के नामों का एक पैनल केन्द्र सरकार की जानकारी एवं विचार हेतु भेजता है। केन्द्र सरकार को तर्क एवं सक्षमता के आधार पर इस पैनल पर विचार करके इसे पुन: सर्वोच्च न्यायालय को  लौटाना होता है जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय इन नामों में से ही जजों की गई नियुक्तियों की घोषणा करता है। इस मामले को लेकर अक्सर सरकार और न्यायिक प्रक्रिया के बीच पहले भी मतभेद उभरते रहे हैं, परन्तु इस बार उपजे मतभेद थोड़ा अधिक गम्भीर एवं चिन्ताजनक सीमा तक बढ़ गये लगते हैं। तभी तो सर्वोच्च न्यायालय को इसे लेकर कड़ी टिप्पणी भी करनी पड़ी है।  
नि:सन्देह नये जजों की नियुक्ति हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गये पैनल को इस प्रकार से रोके जाने का और फिर विवाद उपजने की घटना कोई पहली बार नहीं हुई है।  इससे पूर्व एक बार इसी मामले पर सर्वोच्च न्यायालय सरकार के विरुद्ध फैसला भी सुना चुका है। अदालत की यह टिप्पणी भी अपने आप में काफी अहम हो जाती है कि नामों के पैनल को रोकना सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गये नामों को वापिस लेने हेतु उस पर दबाव डाले जाने की प्रक्रिया सा प्रतीत होता है। जजों की पीठ ने केन्द्र सरकार के इस रवैये को नितांत अस्वीकार्य  करार देते हुए इस प्रकार की अवज्ञापूर्ण कार्रवाई  बाकायदा नोटिस भेज कर जवाब-तलबी भी की है। यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च अदालत ने विगत वर्ष 20 अप्रैल को इस कार्य हेतु एक समय-सीमा तय की थी, किन्तु केन्द्र सरकार द्वारा एक बार फिर इस मामले को लेकर ढिल-मुल रवैया अपनाए जाने से सर्वोच्च न्यायालय का खिन्न होकर कोई अप्रिय एवं विपरीत टिप्पणी करना बहुत स्वाभाविक हो जाता है। न्यायालय ने सरकार के इस आचरण को न्यायिक प्रक्रिया एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत हेतु हानिकर करार दिया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गये इस पैनल में 11 जजों के नाम हैं जिन पर अभी तक कोई फैसला नहीं लिये जाने से जहां नये जजों की नियुक्ति के कार्य में अकारण और अनावश्यक देरी हो रही है, वहीं जन-साधारण को न्याय प्रदान किये जाने की प्रक्रिया भी बाधित होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में इस एक तथ्य को भी चिन्ताजनक करार दिया कि कालेजियम द्वारा भेजे गये पैनल में एक नाम ऐसा भी शुमार था जिनका नियुक्ति की प्रतीक्षा करते-करते देहांत हो गया।  सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति हेतु भेजे गये एक अन्य नाम पर भी सिफारिश की प्रक्रिया पांच सप्ताह तक लम्बित पड़ी रही। 
नि:सन्देह देश में सामाजिक और राजनीतिक ढांचा आज जिस प्रकार चरमराया है, उसके दृष्टिगत न्यायपालिका ही एकमात्र सम्बल बचा है जिसे लेकर देश का आम आदमी इन्साफ की सही कामना कर सकता है। देश की राजनीति और प्रशासन भ्रष्टाचार की दलदल में आकंठ डूबे हुए प्रतीत होते हैं। जन-साधारण की आवाज़ को लोक तंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता यदि बुलन्द करता है, तो  न्यायपालिका अन्याय और उत्पीड़न के स्याह अन्धेरों के बीच आज भी प्रकाश की एक किरण बनी दिखाई देती है। तथापि, न्यायालयों की स्थिति आज ऐसी हो गई है कि नीचे से लेकर ऊपरी अदालतों तक लाखों की तादाद में लम्बित पड़े मामले न्याय को मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते हैं। इस सन्दर्भ में केरल एवं कोलकाता उच्च न्यायालयों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पुलिस और राजनीतिज्ञों का गठजोड़ होने की गुहार लगाना भी बड़ा महत्त्वपूर्ण मामला हो जाता है।
हम समझते हैं कि देश में इस समय न्यायालय  ही एकमात्र ऐसा विकल्प बचा है जिस पर जन-साधारण की आस टिकी रह सकती है, परन्तु इसी के विरुद्ध यदि राजनीति और सत्ता-व्यवस्था की आंख टेढ़ी हुई, तो फिर आम आदमी कहां जाएगा। नि:सन्देह न्यायपालिका के कार्य क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, अथवा हो भी तो यह न्यूनतम स्तर तक का होना चाहिए ताकि यह न्यायालयों के कार्य में दखल की सीमा तक न पहुंचे। हम समझते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय  और केन्द्रीय विधि मंत्रालय की सहमति से जब एक कालेजियम बना दिया गया है, तो फिर उसकी सिफारिशों पर यथा-शीघ्र और यथा-सम्भव अमल होना चाहिए। कालेजियम की सिफारिशों को सरकारी प्रशासनिक तंत्र के प्रतीक्षा-कुएं में नहीं उतरने देना चाहिए। इससे न्याय प्रक्रिया बाधित होती है, और आम आदमी को न्याय मिलने में देरी होती है। यह काम जितनी शीघ्र सम्पन्न होगा, उतना ही देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए अति उत्तम रहेगा, और कि इससे अदालतों की कार्य-प्रणाली अधिक मजबूत होगी।