हिजाब मुद्दे को प्रतिष्ठा का सवाल बनाना उचित नहीं


मुस्लिम महिलाओं से जुड़ा एक विवादित विषय है हिजाब या पर्दा। पिछले कुछ समय से हिजाब विवाद की गूंज भारत से लेकर ईरान तक सुनाई दे रही है। भारतीय अदालतों में भी इस विवाद ने दस्तक दे डाली। भारत में कट्टरपंथी दक्षिण पंथियों द्वारा फरवरी 2022 में  कर्नाटक के उडुप्पी में एक कॉलेज छात्रा द्वारा हिजाब पहनने का विरोध किया गया जोकि आग की तरह फैल गया। कॉलेज में हिजाब पहनी छात्राओं को कक्षाओं में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी थी। 5 फरवरी, 2022 को कर्नाटक सरकार द्वारा राज्य के विभिन्न कॉलेजों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया गया। कर्नाटक के कई कॉलेजों में हिजाब पहनने पर रोक लगाने के बाद कर्नाटक के उच्च न्यायालय में भी दो याचिकाएं दायर की गई हैं। बाद में यही हिजाब विवाद पर सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया।
अभी कर्नाटक के हिजाब का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि अचानक यह मुद्दा ईरान में भी गर्मा गया। ईरान में गत 16 सितम्बर को महसा अमीनी नामक एक कुर्द लड़की की पुलिस हिरासत में हुई मौत हो गयी। ़खबरों के अनुसार अपनी तेहरान यात्रा के दौरान अपने सिर को हिजाब से न ढकने के आरोप में कुछ सुरक्षा कर्मियों द्वारा महसा अमीनी को इतना मारा गया कि 22 साल की इस युवती की पुलिस हिरासत में मौत हो गई । इसके विरोध में चंद दिनों के भीतर ही लगभग पूरा ईरान हिजाब विरोधी प्रदर्शनों का केंद्र बन गया। मामला चूंकि ईरान से  जुड़ा था इसलिये पश्चिमी देश भी ईरान की हिजाब नीति के विरुद्ध मुखर होते दिखाई दिये। महसा अमीनी की मौत के बाद ईरान में हुये हिजाब विरोधी प्रदर्शनों में अब तक 300 से अधिक लोगों के मारे जाने की ़खबर है। 
यह मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि ईरान के दो बार राष्ट्रपति रहे अली अकबर हाशमी ऱफसंजानी की बेटी फैजेह को हिजाब विरोधी दंगाइयों व प्रदर्शनकरियों को उकसाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया जा चुका है। ईरान के अनेकानेक प्रगतिशील व उदारवादी लोग खुल कर हिजाब का विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों कतर में आयोजित फीफा फुटबाल मैच के दौरान ईरान की टीम ने तो हिजाब विरोधी प्रदर्शनकारियों का पक्ष लेते हुये ईरानी राष्ट्रगान पहने से इन्कार कर दिया था। 
 इन सवालों के बीच हिजाब को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातों की अनदेखी करना भी इस विषय के साथ अन्याय करना होगा। अरब, ईरान, इराक भारत, पाकिस्तान मिस्र आदि अनेक देशों में मुस्लिम महिलायें अलग-अलग जिस्म के पर्दे या हिजाब अपनाती हैं। कहीं सिर ढका है और चेहरा खुला है। कहीं चेहरा और सिर दोनों ढके है। तो कहीं सिर से लेकर पैरों की एड़ियां तक सब कुछ पर्दे में हैं और कहीं इन में से कुछ भी नहीं है फिर भी महिलायें गर्व से स्वयं को मुस्लिम समाज का सदस्य बताती हैं। अत: कौन-सा पर्दा या हिजाब सही है, यह कौन तय करेगा?
 दूसरा मुख्य प्रश्न यह भी है कि किसी भी देश की मुस्लिम महिला को उस देश के प्रचलित दस्तूर के मुताबिक हिजाब या पर्दा धारण करने के लिये मजबूर करना, यह पुरुषों की पितृ सत्ता का स्पष्ट लक्षण है अथवा नहीं? यदि इस विषय पर हम आम तौर पर तालिबानी और वर्तमान ईरानी हालात पर नज़र डालें तो हिजाब को लेकर कट्टरता का संकेत मिलता है। न ही पश्चिमी देश न ही इस्लाम विरोधी ताकतें अ़फानिस्तान में बेपर्दिगी के नाम पर महिलाओं को सार्वजनिक रूप से बेरहमी से जुल्म करने के लिये प्रेरित करती हैं न ही उन्होंने महसा अमीनी  की हत्या के लिये ईरानी कट्टरपंथियों को उकसाया। बल्कि स्वयं इन जैसे देशों की धर्म के नाम पर की जाने वाली बर्बरता व हठधर्मिता ने इस्लाम विरोधी ताकतों व पश्चिमी देशों को इस्लाम पर ऊँगली उठाने का मौका दिया।
ईरान हो या अ़फानिस्तान भारत या पाकिस्तान, कहीं भी हिजाब की व्यवस्था को महिलाओं पर जबरन थोपने की ज़रुरत नहीं है। कोई भी महिला अपनी स्वेच्छा से जैसा भी हिजाब या बुर्का धारण करे, यह उसी महिला पर छोड़ देना चाहिये। जब इसका अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ही तय नहीं तो किसी भी देश द्वारा इसकी अनिवार्यता कैसे निर्धारित की जा सकती है? अत: दुनिया के किसी भी देश को हिजाब के मुद्दे को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कतई उचित नहीं है। इसे कैसे, कब और कहाँ धारण करना या नहीं करना है, यह पूरी तरह मुस्लिम महिलाओं की इच्छा और उनके विवेक पर ही छोड़ दिया जाना चाहिये।