ज़िंदा रहे, दीये तले अंधेरा


हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां पुरानी भाषा, पुराना व्याकरण और पुराने सूत्र वाक्य नकारने के बावजूद आज भी अधिकांश लोगों के ‘मुंह में राम-राम और बगल में छुरी’ जैसे ज़िंदा है। ऐसा विरोधाभासी और विखण्डित व्यक्तित्व विजेता है कि जो अपने मुंह से मुखर हो चिल्लाये, ‘अपना-अपना राम-राम’ और अपने बगल की छुरी तलाशने से इन्कार करते हुए दूसरे के बगल में छिपी छुरी और उसकी घातक भवोवृत्ति का शोर-शराबा करने से कोई परहेज न करे।  कट्टरता से अपनी स्वार्थ साधना करते हुए आजकल कोई नीतिशास्त्र, कोई संविधान, कोई मर्यादा, कोई मूल्य हमें याद नहीं आता। हां, दूसरों को इस सबसे ग्रस्त हो हमारे परिवेश, हमारी ज़िन्दगी, हमारे माहौल, हमारे भविष्य को अन्धेरा कर देने की शिकायत हम लगातार करते हैं। उस पर अपने भाषणों, अपने दावों, अपने वक्तव्यों में लगातार टसुवे बहाने से हम बाज़ नहीं आते। इसकी सहायता से हमारा स्वार्थ सधे, हमारी झोंपड़ी प्रासाद में तबदील हो जाये इसे तो मानते हैं, अपना जन्म सिद्ध अधिकार और दूसरों का फुटपाथी जीवन तरक्की के नाम पर कूड़े के डम्प में तबदील हो जाए, तो इसे उसका दुर्भाग्य या उसके बुरे सितारों का खेल कह कर नकारते हुए एक क्षण भी नहीं लगाते।  मज़े की बात यह है कि देश की अधिकांश जनता की इस आर्थिक दुर्दशा के लिए गाहे-बगाहे, विशेषकर नये चुनावों की घोषणा के आस पास हम मरहम भरी शोक सभाएं भी आयोजित करते हैं। इन्हें हम क्रांति सभाएं कह देते हैं, जिनमें उनके जीवन के कायाकल्प के वायदे सिमटे रहते हैं। लेकिन आप जानते हैं, शोषक और शोषित दोनों को पता रहता है कि यही जीवन है। इस जीवन का यही है रंग-ओ-बू। इसलिए बहुत जल्दी यह समय बीत जाता है, जैसा कि हर नीतिवेत्ता हमें हमारे दु:ख के समय में दिलासा देता रहता है, ‘धीरज धरो यह सयम भी बीत जाएगा।’
लेकिन इन वायदों से भरा नया इन्द्रप्रस्थ बसा देने के समय में कोई हमें याद नहीं दिलाता कि ‘जनाब दुबारा दुबारा नहीं सपने देखिये, कि जिनकी उम्र चुनाव काल है। इसके बाद तो इनकी नियति हवा में धुआं हो कर तिरोहित हो जाने की है।’ यह वायदों भरा खुशनुमा समय भी बीत जाएगा, और फिर उसी राहत और रियायतों भरी अनाज की दुकान के बाहर, उसके खुलने का इंतज़ार करते हुए, आप वही बात दुहरा भी न पायेंगे कि ‘फिर वही रात है फिर वही है दर्द। द्वार दिल का खुल गया, चुनाव का हाथी निकल गया, बाकी रह गई है दुम,’ जो आपके साथ हमदर्दी भी नहीं जताती, क्योंकि उसे आपकी यह हालत देखने की आदत हो गई है। 
आदत की भली कही। अभी आपने खबर सुल ली होगी कि देश को नये वर्ष का उपहार मिल गया है। मुफ्तखोरी के एक साल और के कानूनी विस्तार के उपहार का। अपने भाग्य विधाताओं के इस उपहार से हम गदगद हो गये हैं कि देश की इक्कासी करोड़ जनता को एक साल के लिए और मुफ्त या रियायती अनाज बांट दिया जाएगा। हम गर्वित हैं कि हमारा देश दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जो इतनी बड़ी आबादी को हर मास, हर रोज़, हर सप्ताह इतना मुफ्त अनाज बांटने का इतना बड़ा काम कर रहा है, और अपने धर्म ग्रंथों का यह सूत्र वाक्य हर पल सिद्ध कर रहा है कि ‘दया धर्म का मूल्य है।’
बल्कि इससे भी चार कदम आगे जाकर हमारी सरकार तो यह अनुग्रह भी करने लगी थी कि यह अनाज आपके घर के दरवाज़े तक छोड़ दिया जायेगा। यह तो भला हो उन अनाज बांटने वाली दुकानों और उसके करिन्दों का, जो चिल्लाने लगे कि अगर उपकार कर दोगे, तो हमारे काम धंधे का क्या होगा? उस चोर दरवाज़े का क्या होगा कि जिसे किसी निर्वासित अंधेरे में काले बाज़ार में खोल डिपो वाला आपकी गरीबी का दु:ख हरता है, अपना दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल देता है। 
सुनो, आज का मूल मन्त्र यही है कि तुम्हारी कथनी और करनी में अन्तर बना रहना चाहिए। कथनी ऐसी हो कि तुम्हारे जैसा आदर्शवादी, राष्ट्रवादी, नये युग का नया मसीहा कोई और नहीं है, लेकिन आदर्श ऐसी कतार जैसे हों जो तुम्हारे अस्तित्व की बेहतरी और शोभा गायन से शुरू होकर उसी पर खत्न हो जायें। राष्ट्रवाद का अर्थ तुम्हारे लिये जातिवाद, मुहल्लावाद और पास-पड़ोस का आपके प्रति समर्पण हो, और आप उसे नये युग का मसीहा बनो, जो तुम्हारे आंगन और उससे उभरती तुम्हारी आवाज़ का प्रशस्तिगायन करे। मस फूटती पीढ़ियों से उम्मीद रखे कि वह तुम्हारे लिए कृत्य-कृत्य हो करतल ध्वनि से इसका स्वागत करें। करती रहें, जब तक कि तुम अपनी बुढ़ौती में इस ध्वनि को अपने वंशजों के लिए सुरक्षित न कर दो। हां, अपना आखिरी भाषण अवश्य परिवारवाद को अपने देश के लिए अभिशाप बन जाने का कर जाओ।  सुनो, यहां दोगलापन एक ऐसा व्यवहार बन गया है, जिसे दूसरों में तलाश करते हुए इन्हें हम धिक्कारते थकते नहीं, लेकिन जहां तक हमारा अपना संबंध है, हम इसे अपने व्यक्तित्व का वह विलक्षण गुण मान लेते हैं कि जिसकी सहायता से हम अपने जीवन में सफलता की सीढ़ियां निरन्तर चढ़ते चले जाते हैं। 
कुछ नीति वाक्य हैं जो हमने कभी नकारने के बारे में सोचा था। पहला वाक्य था, ‘हथेली पर सरसों जमाना’ और दूसरा वाक्य था, ‘दीये तले अंधेरा।’ लेकिन आज यही वाक्य ज़िन्दगी का नया सच बन गये हैं। हथेली पर सरसों जमाना सीखोगे, तभी विजेता कहलायोगे। धीरज, मेहनत और अध्यवसाय तो आज एक उपालम्भ बन गया है। मत कहना कि ‘अरे, अंधेरा तो होना ही चाहिए, तभी तो आपका दीया और भी चमचम चमायेगा और सबको बताएगा, तुम्हारे जैसा और कोई नहीं।