़खुश-आमदीद ‘नव वर्ष मुबारक’


ये शब्द जहां आने वाले समय के लिए उम्मीद भरपूर प्रतिक्रिया हैं, वहीं बीते वर्ष की खट्टी-मीठी तथा कड़वी-कटुतापूर्ण यादों को भी संजोए बैठे हैं। यह समय मन के भीतर गहन दृष्टिपात करने का है। समय स्थिर नहीं रहता। इसके व्यतीत होने से बहुत कुछ बदलता, उपजता तथा गिरता रहता है। देश की आज़ादी के दौरान सभी तरफ एक बड़ा उत्साह तथा उम्मीद की भावना थी। उप-निवेशवादियों की दो सदियों तक सहन की गुलामी ने देश को विघटन तथा हर पक्ष से बेहद कमज़ोर कर दिया था। इसकी अर्थव्यवस्था डगमगा चुकी थी। इसका बहुत कुछ गौरव सदियों से यहां आये आक्रमणकारी लूट कर ले जाते रहे। शेष रहता उप-निवेशवादी शासकों ने समेट लिया परन्तु जिस तरह आज़ादी मिलने के बाद जागरूकता पैदा हुई, जिस तरह का एक प्रगतिशील एवं दीर्घकालिक संविधान बनाया गया, जिस तरह सभी को विचरण तथा अभिव्यक्ति के अधिकार दिये गये, उससे और भी बड़ी उम्मीदें पैदा हुईं।
आज 75 वर्षों के इस स़फर में देश खुशहाली तथा विकास के मार्ग पर कितना चल सका है, कितनी खटकतीं तथा दुखद कमियों को पूरा नहीं किया जा सका, आने वाले समय से किस तरह की तथा कितनी उम्मीद रखी जा सकती है, यह सभी के लिए सोचने वाली बात होगी। आज हम तकनीक, विज्ञान तथा कम्प्यूटर के युग में प्रवेश कर चुके हैं। दशकों के इस स़फर ने बहुत कुछ बदल दिया है। बहुत कुछ नया निर्मित किया जा चुका है। आज देश का ढांचा कमज़ोर नहीं शक्तिशाली दिखाई दे रहा है। इसकी पहचान विश्व भर में मानी जाने लगी है परन्तु इस स़फर में अलग-अलग क्षेत्रों में हम कितने आगे बढ़ सके हैं, आज यह अधिक सोचने का विषय बनना चाहिए। सामाजिक रूप से हमारे भीतर कितनी परिपक्वता आई है, हम अपनी सोच का दायरा कितना विशाल कर सके हैं, यह देखने-समझने वाली बात है।
यदि संविधान की भावनाओं की बात करें तो इस पक्ष से हम बड़ी सीमा तक पिछड़ गए हैं। पहले तो ऊंचे स्वर में अलग-अलग धर्मों की बात होती थी परन्तु अब जातिवादी स्वर भी कहीं ऊंचे हो गए प्रतीत होते हैं। आज आर्थिक श्रेणियों के विभाजन से भी अधिक हम जातिवादी विभाजन में उलझ कर रह गए हैं। हमारी पूर्ण सोच इसके आस-पास घूमती प्रतीत होने लगी है। आज हर जाति-बिरादरी अपने लिए अधिक से अधिक अधिकार हासिल करने का नारा ऊंचा कर रही है। यहां तककि लोकतांत्रिक चुनावों की प्रक्रिया में भी जातिवाद अधिक प्रबल तथा प्रकट हो रहा प्रतीत होता है। समय के व्यतीत होने से इस दिशा में तेज़ी के साथ आगे बढ़ते देश के समक्ष हमें बड़े ़खतरे दिखाई देने लगे हैं। जहां तक आर्थिक पहलू की बात है, चाहे संविधान ने सभी नागरिकों को एक समान अवसर उपलब्ध करवाने की बात की है परन्तु देश में अधिक आर्थिक अन्तर से लगातार ़खतरे की घंटियां सुनाई देने लगी हैं। करोड़ों ही लोग ़गरीबी  से त्रस्त दिखाई देते हैं। अमीरों तथा ़गरीबों का अन्तर लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसको भर पाना अब कठिन ही नहीं, असम्भव प्रतीत होता है।
यदि बढ़ते इस अन्तर में संतुलन कायम न किया जा सका तो देश के आकाश पर ऐसे घने बादल छा जाएंगे जो इस धरती को पूरी तरह अंधकार में धकेलने के समर्थ होंगे। लगातार बढ़ती जनसंख्या पर काबू न पा सकने के कारण भी कठिनाइयों तथा दुश्वारियों में वृद्धि हो रही है। बेरोज़गारी ़खतरनाक सीमा तक बढ़ रही है। देश के निर्माण के मूलभूत ढांचे संबंधी बहुत कुछ किया जाना शेष है। हम अब तक प्राप्त की उपलब्धियों को नकारते नहीं, अपितु इनकी प्रशंसा करते हैं परन्तु इनके साथ-साथ जो कुछ अभी किया जाना शेष है, उसके संबंध में भी चिन्ता व्यक्त करते हैं। चिन्ता का यह स़फर बढ़ता ही जा रहा है। देश को इस हालत में से हर स्थिति में निकालना होगा। अवसान की तरफ जाती अपनी समूची राजनीति को पुन: ऊंचा उठाना हमारे लक्ष्यों में शामिल होना चाहिए। सदाचारक नैतिक-मूल्यों में आई भारी गिरावट संबंधी सोचवान होना ज़रूरी है तथा इन्हें पुन: परम्परागत मार्ग पर चलाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके अलावा  प्रत्येक क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है परन्तु फिर भी उम्मीद की एक कड़ी को जोड़ने का प्रयास करते हुए हम नव वर्ष को ़खुश-आमदीद कहते हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द