गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी सरकार की होती है

 

आजादी के अमृत महोत्सव मना चुके मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में आबादी के एक बड़े हिस्से का भूखे रहना या भूखे ही सो जाना राष्ट्र के कर्णधारों के लिये शर्म की बात होनी चाहिए। जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो गरीबी पर वोट की राजनीति करें, वह शासन-व्यवस्था कैसी? शर्म का विषय तो बेरोज़गार को रोज़गार न देना भी होना चाहिए, लेकिन हमारी पूर्व सरकारों ने गरीबी, भूख एवं बेरोज़गारी को केवल सत्ता हासिल करने का हथियार बना रखा था। दुनिया की अधिकतक शासन व्यवस्थाएं हर नागरिक को कोई न कोई ऐसा काम देने, जिससे वह खुद अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके, में नाकाम रही हैं। सबको रोटी एवं रोजगार देने की आदर्श स्थिति शायद किसी भी देश में नहीं है। इसलिए जो लोग खुद अपने भोजन का प्रबंध कर पाने में अक्षम हैं, उन्हें भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों पर आ जाती है। ऐसे लोगों के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार ने एक उल्लेखनीय जन-कल्याणकारी निर्णय के अन्तर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन प्रत्येक परिवार को प्रतिमाह 35 किलो अनाज मुफ्त सुलभ कराने की घोषणा की है। अब किसी को भूखे पेट नहीं सोना पड़ेगा। भारत की 140 करोड़ आबादी में से 81 करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं जो इस मदद का लाभ उठायेंगे।
सरकार को अधिक लोककल्याणकारी शासन-व्यवस्था की ओर बढ़ते हुए ऐसी भी योजनाएं लागू करनी चाहिए जिससे किसी भी नागरिक को मुफ्त अनाज के लिए विवश न होना पड़े। वह अपने भरण-पोषण के लिये सक्षम बने। हर व्यक्ति को काम मिले, ऐसी योजना पर गंभीरता से कदम बढ़ाये जाने चाहिए। इसी से गरीबी का संबोधन मिट सकेगा। इसी से भारत एक आदर्श समाज-व्यवस्था को निर्मित करते हुए ‘नया भारत-सशक्त भारत’ के संकल्प को सार्थक आयाम दे सकेगा। स्वयं का भी विकास और समाज का भी विकास, यही समष्टिवाद है और यही धर्म है, यही संतुलित एवं समतामूलक नज़रिया है। निजीवाद कभी धर्म नहीं रहा। 
हालांकि भोजन के अधिकार के नाम से विख्यात राष्ट्रीय सुरक्षा खाद्य अधिनियम-2013 में डा. मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान पारित हुआ था मगर इसे सुचारु रूप से लागू करने की जिम्मेदारी 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार को ही निभानी पड़ी थी। केन्द्र सरकार ने 2020 में कोरोना संक्रमण के फैलने पर इस अधिकार के अतिरिक्त गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह पांच किलो अनाज मुफ्त प्रदान कराने की योजना भी लागू की थी। इस योजना को दिसम्बर 2022 तक बढ़ा दिया गया था जबकि खाद्य सुरक्षा अधिनियम बदस्तूर लागू था। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीब परिवारों को चावल तीन रुपये, गेहूं दो रुपये व मोटा अनाज एक रुपये, प्रति किलो की दर से मुहैया कराया जाता था। अब यह मुफ्त सुलभ कराया जायेगा और यह योजना 1 जनवरी, 2023 से शुरू होकर 31 दिसम्बर 2023 तक लागू रहेगी।
कल्याणकारी राज्य में सरकार अपने नागरिकों की आर्थिक हैसियत देखकर जो भी सुविधाएं उन्हें उपलब्ध कराती है, वह कोई खैरात या दया नहीं होती बल्कि उनका अधिकार होता है क्योंकि प्रत्येक नागरिक किसी न किसी रूप में राष्ट्र के विकास में अपना योगदान डालता है। वैसे भी लोकतन्त्र का यह नियम होता है कि नागरिकों को सुविधाएं उनके कानूनी हक के रूप में मिलती हैं क्योंकि उन्हीं के एक वोट की ताकत से सरकारों का गठन या बदलाव होता है। इस तरह मुफ्त अनाज उपलब्ध कराना एवं वोटों को प्रभावित करने के लिये मुफ्त की बिजली एवं पानी या अन्य सुविधाओं में बड़ा अन्तर है। इनमें नीति एवं नियत का भी फर्क है। मगर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अगले वर्ष 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं। अत: गरीबों को मुफ्त अनाज के राजनीतिक उद्देश्य भी हो सकते हैं। इसके बावजूद सरकार का फैसला सराहनीय कहा जायेगा क्योंकि लोकतन्त्र में नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति करना सरकार का प्राथमिक दायित्व होता है। मूलभूत आवश्यकताओं में रोज़गार भी है, रोज़गार का अर्थ केवल सरकारी नौकरी या सरकारी काम से मानते चलेंगे तो कभी भी लक्ष्य हासिल नहीं कर पायेंगे। नागरिकों को ऐसी सुविधाएं दी जायें कि वे रोज़गार लेने वाले नहीं बल्कि रोज़गार देने वाले या स्वरोज़गार करने वाले बने।
अगर तटस्थ दृष्टि से देखें तो गरीबी एक बड़ा अभिशाप होती है। लेकिन इस गरीबी से बड़ी है भूखे सोने की विवशता। यह भूख एवं गरीबी भयभीत करती है। अमीरी एवं गरीबी के बीच बढ़ता अंतर अधिक भयभीत करता है। क्योंकि गरीबी का बड़ा कारण कुछ चुनिन्दा लोगों के हाथ में अमीरी का केन्द्रित होना है। जब अमीर व गरीबी के बीच अन्तर मिटेगा, तब हम ‘नया भारत-सशक्त भारत’ का सपना साकार होगा।
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