एक अनिवार्य विकल्प

‘हम आपको भूख से मरने नहीं देंगे। कोई मरने लगेगा, तो उसे मुफ्त लंगर लगा कर बचा लेंगे। नया साल उग आया है। हमने पूरे साल के लिए आपको रियायती अनाज देने के वायदे को बढ़ा दिया है। इससे अगला साल तो है ही चुनावी वर्ष। वोटें लेनी हैं। हमें गद्दी पक्की करनी है न। इसलिए इस वायदे की उम्र तो अपने-आप एक साल बढ़ जाएगी।’ यह देश का गौरव इन बातों से कतई कम नहीं होता। सुनो बन्धु, अपना देश उपलब्धियों के रिकार्ड बनाने में विश्वास करता है। है कोई और एक भी ऐसा देश, जो इक्यासी करोड़ की भारी आबादी को साल दर साल रियायती अनाज खिलाता चला जाए?
फिर हम तो अपने हर नये कदम से इस धर्मप्राण देश के लिए यही सिद्ध कर लेते हैं कि ‘दया  धर्म का मूल है।’
लीजिये इस महान देश का इतिहास हम पुन: लिखने लगें। हमने साबित कर दिया कि महान है यह देश और इसके प्रशासक। हमने एक ही झटके में लोगों को दो सौ बीस करोड़ टीके लगा दिये। फिर एक ही झटके में टीका लगाने वालों ने अपनी दुकान बढ़ा दी। अब फिर महामारी के खतरे के लौटने की बातें होने लगीं, तो लोग टीका लगवाने के लिए आगे बढ़े हैं। उन्हें निर्दिष्ट स्थान पर एक सूचना पट्ट नज़र आया कि जो बेचते थे दर्दे दिल वे दुकान अपनी बढ़ा गये। अब टीका लगवाना है, तो अपने जैसे दस अन्य टीका प्रेमियों को इकट्ठा करके लाओ, तभी आपकी बात बनेगी। हां, अगर टीके का स्टाक खत्म हो गया है, तो धीरज से इंतज़ार कीजिये। आपूर्ति बढ़ाने का हुक्म जारी कर दिया है। मंज़िलें मकसूद पर पहुंच कर अपना असर ज़रूर दिखाएगा। तब तक इंतज़ार कीजिये। कोई नई बात नहीं है यह आपके लिए। आपने तो अभी-अभी अपने वायदे पूरे करने की विनय पत्रिका अपने  माबदौलत को पेश करने का अमृत महोत्सव भी मना लिया। यह इंतज़ार ही तो था। 
इसके जवाब में शतकीय महोत्सव तक चलते रहने का विकास पथ खिल गया है। चलने की तैयारी शुरू हुई तो पता चला कि अभी तो चलने के लिए आर्थिक ढांचा बनाने का काम शेष है। इसलिए फिलहाल उस ढांचे को बनाने वाले बजटों से निर्माण का काम शुरू हो गया है। निर्माण पूरा हो जायेगा तो सफलता की घोषणाओं के मीलपत्थर आपको मिलने लगेंगे। आपको तो पता है, ये मीलपत्थर मिलते हैं, तो देश में उत्साह और प्रेरणा जागती है। चलना शुरू करने का संकल्प उभरता है। इस संकल्पहीन हो गये देश में संकल्प पैदा करना भी तो बहुत ज़रूरी है। अभी तक इसकी कमी की वजह से ही तो यह मिथ्या आंकड़ों का पुचकारता हुआ आडम्बर रचना पड़ा। 
बन्धु जन, आडम्बर पर ही तो दुनिया कायम है। अब उठ बैठो और आसमान पर अपनी कामयाबियों का इतिहास लिख दो। इसी में सब का कल्याण है। यह इतिहास निरन्तर लिखा जाता रहे, चाहे दीये के तले अंधेरे की पहचान कोई न करे। हमने कह दिया, ‘अपना देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया।’ चाहे इस ताकत ने देश के ताकतवरों की ताकत को और बढ़ा दिया, लेकिन जो फिसड्डी थे, वे और भी फिसड्डी होकर धूल-मिट्टी हो गये। हम तो चाहते थे इस बढ़ते हुए कूड़े के डम्पों को हटा दें। इनसे मुक्ति पाने के लिए निस्तारण मशीनें भी लगा दीं थीं, लेकिन इनको चलाने के लिए कारीगर निपुण होंगे, तो मशीनें चलेंगी न? फिलहाल तो सब कारीगर अपने लिए अनुकम्पा बढ़ाने की मांग करने वाली कतार में लगे हैं। 
यहां दिन-प्रतिदिन अनुकम्पाओं की तालिका लम्बी होती जा रही है। सरकार की दरियादिली का भी अन्त नहीं। छोटे-बड़े चुनाव होते ही रहते हैं। निगम और विधानसभाओं से लेकर संसद तक। इन्हें जीत कर अपनी सत्ता को चिरस्थाई बनाना है। इसलिए मूलभूत ढांचा बदलने की दिलासा के साथ  मुफ्तखोरी को दुलराने का यह ढांचा स्वीकार कीजिये। बीच-बीच में देश आश्वस्त करने देने वाली खबरों के दहाने पर खड़ा हो जाता है, और बढ़ती मौतों के आंकड़ों को बढ़ती मानसिक विज्ञिप्तता की वजह बता अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है। 
लोगों ने श्मशानघाट में आयोजित हो रहे मुत्यु भोजों को भी अपनी जन्म दिवस पार्टी कहना शुरू कर दिया। इसके साथ-साथ न जाने कितने नये ज्ञान का सर्वाधिकार धनपतियों के पास सुरक्षित हो गया। देश की आर्थिक विकास गति बढ़ानी है तो कामकाज धन कुबेरों के हवाले कर दो। और अपनी कार्य संस्कृति को चौराहों तक अपने लिए बैसाखी तलाशने वाली कार्य नीति सीमित कर दो।
 यह कार्य नीति ‘अपना हाथ जगननाथ’ या ‘अपने भाग्य निर्माता आप बनो’ के लुभावने नारों को पेश करती है, लेकिन एक ही समय सब पक्षों का पक्षधर हो जाने का वायदा करके सब देशों से मुक्त व्यापार कर सकने का चौराहा मांगने वाली इस कूटनीति का महिमामंडल अवश्य कर लेना। देखते ही चाटुकारिता, मध्यजनों व सम्पर्कसूत्रों की विकल्पविहीन अनिवार्यता बन गई। अपनी विलक्षणता का गुणगान करते हुए हमें फिर यही कहना है, ‘राह पकड़ कर एक चलाचल पा जायेगा, मधुशाला।’ मधुशाला मिली या नहीं, हम नहीं जानते, लेकिन एक तथ्य अवश्य उभर कर सामने आ गया कि अन्तर्राष्ट्रीय गिरावट के बावजूद पैट्रोल और डीज़ल की कीमतें चाहे हम न घटा पायें लेकिन मदिरा अवश्य सस्ती बिकेगी, क्योंकि इसी से राजस्व बढ़ता है, और अपने लिए कोई सही रोज़गार न पा सकने का गम भी दूर हो जाता है।