क्या नये साल में आम ज़िंदगी फिल्म का हिस्सा होगी

 

मुम्बई की फिल्मी दुनिया यदि यह समझती है कि फिल्म जो कि उद्योग बन चुका है, उसका काम केवल मनोरंजन है और वह भी ‘भीड़ ’के लिए मनोरंजन तो उसकी इस बहुमूल धारणा पर तरस ही किया जा सकता है। क्या कारण है कि कुछ फिल्में जिनसे धन कमाने की बड़ी उम्मीद थी और बनाने वालों को भरोसा था कि खूब चलेगी। परन्तु ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ के लेबल में सिमट कर रह गयीं? ‘लाल सिंह चड्ढा’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’ बड़े सितारों से रंजित फिल्में थी लेकिन जानी मानी कहानी की वज़ह से बाक्स ऑफिस पर हिट नहीं हो पायीं। पृथ्वीराज की कहानी सभी को पता थी। लाल सिंह चड्ढा जिस अंग्रेजी फिल्म का पूरा रूपांतरण थी, लोग उसे पहले ही देख चुके थे। दक्षिण की फिल्मों से प्रभावित होकर ‘ब्रह्मास्त्र’ और ‘शमशेरा’ निर्मित हुई परन्तु बहुत कुछ कर नहीं पायीं।
हाल ही में एक फिल्म का गाना खबरों में काफी गर्म है। इस गाने का विरोध भी भरपूर हो रहा है। विरोध हो रहा है तो देखा भी जा रहा है। प्रतिबंधित साहित्य, प्रतिबंधित फिल्म ज्यादा चर्चित होती ही है। इस गाने में एक छत्तीस वर्षीय अभिनेत्री किसी टीनएजर की तरह नृत्य लीन नज़र आती है। एक सत्तावन साल का सुपर स्टार माना गया अभिनेता अपने से आधी उम्र के अभिनेता की तरह सीने की कसावट दिखाने में व्यस्त है। इस गाने को स्पेन में शूट किया बताया गया है। यह ‘वार’ फिल्म उसी गाने की नकल दिखाता है जिसे प्रोडक्शन हाऊस ने तीन साल पहले फिल्मांकित किया था। पिछले तीन साल समकालीन जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। कोरोना के रूप में वैश्विक महामारी आई। 
बेशकीमती ज़िंदगियां खत्म हो गईं। लाखों युवक बेरोज़गार हो गये। जिसमें से बहुत से युवक अभी तक सैटल नहीं हो पाये। यूरोप में युद्ध की विभिषिका ने बर्बादी का दृश्य दिखा दिया। कीमतें आसमान छूने लगीं। इस सबका चित्रांकण में इस सबके प्रभाव क्यों नज़र नहीं आते? इसलिए कि सिनेमा की दुनिया यथार्थ को छूना तक नहीं चाहती। बालीवुड राष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार झेल चुका है। फिर भी एक काल्पनिक दुनिया में रह रहा है जिसका जीवन के कठोर सत्य से कोई रिश्ता ही नहीं रहा गया। यदि कहानी में उपन्यास में या फिर फिल्म में आपको अपने जीवन की झलक तक नहीं मिलती तो आपका नाता उससे कितना रह सकता है? इस तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। कोई काल्पनिक दुनिया में कितना रह सकता है? फिर परिवार के साथ जाकर थिएटर में फिल्म देखना कितना महंगा होता चला गया है। कोई इतना धन खर्च कर उछल कूद, लड़ाई मारकुटाई देखने तो नहीं जाएगा न।
जिस गाने की चर्चा इस लेख में पहले की गई है। वह ‘पठान’ फिल्म से है। क्या इससे शाहरुख खान की जोरदार वापसी हो सकती है? बालीवुड को बचाने के लिए क्या ऐसी फिल्मों की ही ज़रूरत है? साल 2022 गुज़र गया है अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में सिर्फ चार हिन्दी फिल्में हैं। पहली पांच फिल्में दक्षिण से हैं। चार हिन्दी फिल्मों में भी एक मलयालम का रीमेक है। बताया गया है कि नये साल में शाहरुख खान की तीन फिल्में आ सकती है। ‘पठान’ के अलावा तामिल निदेशक एटली की जवान और राजकुमार हिरानी की ‘डंकी’। सलमान खान की भी दो फिल्में ‘किसी का भाई किसी की जान’ और ‘टाईगर-3’ आ सकती है। वह ‘पठान’ में भी नज़र आने वाले हैं। ‘पठान’ और ‘टाईगर-3’ के निर्माता यशराज़ फिल्मज़ है जो मार्वल को टक्कर देने के लिए एक्शन फ्रैंचाइज भी लाना चाहते है। मुमकिन है इन फिल्मों में से कुछ फिल्में भारी भरकम एक्शन सीन या आइटम सांग के बलबूते कुछ बिजनेस कर पायें, जबकि यही सब यशराज ‘धूम’ सीरिज़ में लेकर आये थे। अब बड़े-बड़े सितारों की भारी भरकम फीस भी तो फिल्म की आर्थिकता को प्रभावित करती है। 2023 में आने वाली फिल्मों में दक्षिण की फिल्म के रीमेक और बॉयोपिक भी होंगे। सवाल यह भी है कि दक्षिण की फिल्मों के रीमेक या एक्शन फिल्में बालीवुड को बचा पाएंगी? बालीवुड जीवन यथार्थ से जुड़ना ही नहीं चाहता। शाहरुख खान पहले ही बता चुके हैं कि अगले दस साल वह एक्शन फिल्म ही करना चाहेंगे। तो क्या देश का अवाम जीवन यथार्थ से वंचित ही रहेगा?
पैसा लगाने वाले कहते हैं कि प्रयोग करना है तो अपना पैसा लगाओ, हम अपना पैसा जोखिम में नहीं डाल सकते। फिर बड़े सितारों की फीस इतनी अधिक होती है कि निर्माता फिल्म के इस गाने का ़खतरा उठाना ही नहीं चाहते। अत: 2023 में भी यथार्थवादी सिनेमा का आगमन सपना ही है