देश की राजनीति में गैर-प्रासंगिक होते जा रहे हैं पंथक संगठन

देश की आज़ादी से पहले और बाद में भी पंथक राजनीति का देश पर काफी प्रभाव रहा है। आज़ादी से पहले तो स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बाद शिरोमणि अकाली दल को तीसरे पक्ष का दर्जा भी प्राप्त था। अंग्रेज़ों के साथ आज़ादी के संबंध में होने वाली कांफ्रैंसों में भी अकाली दल तीसरे पक्ष के रूप में शिरकत करता आ रहा है। गुरुधामों से भ्रष्ट महंतों को निकालने के लिए चली अकाली लहर तथा इस दौरान मोर्चों में हुई शहीदियों ने भी शिरोमणि कमेटी तथा शिरोमणि अकाली दल की देश की राजनीति में अहम पहचान बना दी थी। 
आज़ादी तथा देश के विभाजन के बाद भी शिरोमणि अकाली दल का देश में दबदबा बना रहा है। पंजाबी सूबे की स्थापना के लिए शिरोमणि अकाली दल ने लम्बा संघर्ष किया। पंजाब तथा सिख पंथ की मांगों सहित राज्यों को अधिक अधिकार दिलाने के लिए भी अकाली दल निरन्तर आन्दोलित रहा है। धर्म युद्ध मोर्चे से चाहे अकाली दल को कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हो सकी, अपितु आन्दोलन अकाली दल के हाथों से बाहर जाने से हिंसक भी हो गया था, और इसके बाद आप्रेशन ब्लू स्टार, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या तथा इसके बाद नवम्बर 1984 में देश भर में सिख विरोधी हिंसा आदि की बड़ी तथा दुखद घटनाएं भी घटित हुईं। इस पृष्ठभूमि में ही राजीव-लौंगोवाल के मध्य हुए समझौते को देखा जा सकता है। इसके बाद डेढ़ दशक तक राज्य में हिंसा एवं दहशत का दौर रहा। इसमें सरकारी तथा गैर-सरकारी हिंसा में हज़ारों सिख तथा हिन्दू मारे गए। इसके बाद राज्य में शिरोमणि अकाली दल ने 1985 में विधानसभा चुनाव जीते और सुरजीत सिंह बरनाला मुख्यमंत्री बने। उनकी सरकार लगभग अढ़ाई वर्ष चली। इसके बाद लम्बे समय तक राज्यपाल का शासन रहा। शिरोमणि अकाली दल द्वारा 1992 में हुए विधानसभा चुनावों का बहिष्कार किये जाने के कारण लगभग 23.82 प्रतिशत वोट लेकर कांग्रेस ने बेअंत सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई। (गैर-सरकारी सूत्रों के अनुसार उस समय हुआ मतदान इन आंकड़ों से भी काफी कम ही था) स. बेअंत सिंह के मारे जाने के बाद कुछ समय के लिए हरचरण सिंह बराड़ तथा बीबी राजिन्दर कौर भट्ठल मुख्यमंत्री बने। 1997 में शिरोमणि अकाली दल तथा भाजपा गठबंधन पुन: सत्ता में आया तथा प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री बने। 2002 में हुए विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने जीते और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मुख्यमंत्री बने। 2007 के बाद शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन विधानसभा चुनाव जीत कर सत्ता में आया तथा प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में यह गठबंधन 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में पुन: सफल रहा और इस प्रकार 2017 तक शिरोमणि अकाली दल तथा भाजपा गठबंधन के हाथ में राज्य की सत्ता बनी रही। 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में पुन: कांग्रेस सत्ता सम्भालने में सफल हुई। इसके बाद शिरोमणि अकाली दल पंजाबियों का विशेषकर सिख भाईचारे का विश्वास गंवा बैठा। यदि लोकसभा चुनावों की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनावों में भी अकाली दल को अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। इसने सिर्फ 4 सीटों पर जीत प्राप्त की तथा 2019 के लोकसभा चुनावों में भी अकाली दल की स्थिति खराब रही और यह दो सीटें ही जीत सका। 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में भी अकाली दल को नमोशीजनक हार का सामना करना पड़ा तथा यह सिर्फ 3 सीटें ही जीत सका। 
इस समय भी शिरोमणि अकाली दल (बादल) को लोगों का तथा सिख भाईचारे का कोई अधिक समर्थन प्राप्त नहीं प्रतीत हो रहा। उसकी स्थिति बेहद कमज़ोर नज़र आ रही है। राज्य में उसकी दूसरे नम्बर की भागीदार रही भारतीय जनता पार्टी ज़ोर-शोर से यह घोषणा कर रही है कि भविष्य में शिरोमणि अकाली दल (बादल) के साथ वह कोई भी गठबंधन नहीं करेगी। इसके बावजूद शिरोमणि अकाली दल (बादल) का यह प्रयास है कि किसी न किसी ढंग से उसका भाजपा के साथ गठबंधन हो जाए। 
दिलचस्प बात यह है कि शिरोमणि अकाली दल (बादल) के विरोधी अकाली दल जो कि उस पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने पंथक एजैंडा छोड़ दिया है, वह भी भविष्य की राजनीति करने के लिए या चुनाव समझौता करने के लिए भाजपा की तरफ ही देख रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली में दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्य, जो शिरोमणि अकाली दल बादल द्वारा दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव जीते थे, ने बगावत करके अपना अलग शिरोमणि अकाली दल (दिल्ली स्टेट) बना लिया है। दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने भी शिरोमणि अकाली दल (बादल)  के नेताओं से अपना नाता तोड़ लिया है, परन्तु इनको पर्दे के पीछे से भाजपा नेता चलाते नज़र आ रहे हैं। इसके प्रतिक्रम के तौर पर शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने अपने विरोधी रहे सरना भाईयों को अपने दिल्ली यूनिट का नेतृत्व सौंप दिया। हरियाणा में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अलग गुरुद्वारा कमेटी बनाये जाने के हक में फैसला देने से भी शिरोमणि अकाली दल (बादल) को बड़ा नुकसान हुआ है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (बादल) के नेताओं और उनकी नीतियों के खिलाफ जो ध्रुवीकरण हो रहा है उसके कारण बागी अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींडसा के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के साथ जुड़ते जा रहे हैं। हाल ही में जगमीत सिंह बराड़ ने भी शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) में शामिल होने का ऐलान किया है और बीबी जगीर कौर के भी इसी दल में शामिल होने के संकेत मिल रहे हैं।
उपरोक्त अकाली दलों के अलावा शिरोमणि अकाली दल (यूनाईटेड), शिरोमणि अकाली दल दिल्ली, शिरोमणि अकाली दल 1920, शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) और सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाला शिरोमणि अकाली दल अमृतसर आदि संगठन भी पंथक राजनीति के क्षेत्र में विचर रहे हैं। चाहे कि इनमें से शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के अलावा दूसरे अकाली दलों का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं है। 
समूचे तौर पर इस समय देश की और खास तौर पर पंजाब की राजनीति में सिख पंथ के नाम पर राजनीति करने वाले संगठन बेहद कमजोर और गैर प्रासंगिक हुए दिखाई देते हैं। इसी करण शिरोमणि अकाली दल के अलग-अलग दलों और अन्य पंथक संगठनों द्वारा उठाए मुद्दों की तरफ न तो केन्द्र सरकार कोई विशेष ध्यान देती है और न ही पंजाब सरकार कोई परवाह करती है। इसको अन्याय ही कहा जा सकता है कि खाड़कूवाद के दौर के दौरान अलग-अलग केसों में अदालतों द्वारा दोषी करार दिये गये और अब तक अपनी सज़ा पूरी कर चुके बहुत से सिख कैदियों को भी सरकारों द्वारा रिहा नहीं किया जा रहा। यह सरासर देश की न्यायिक व्यवस्था का उल्लंघन है। इनकी रिहाई के लिए शिरोमणि अकाली दल (बादल) और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी भी पिछले साल से काफी जदो-जहद करती रही है। अब चंड़ीगढ, मोहाली सीमा पर कुछ और पंथक संगठनों ने भी इस संबंध में पक्का धरना लगाया हुआ है। इसके बावजूद अभी तक सरकारों पर इस धरने का कोई खास असर होता नज़र नहीं आ रहा। देश की और पंजाब की राजनीति में पंथक संगठनों के इस हद तक कमजोर होने के क्या कारण रहे हैं और आने वाले समय में ऐसे संगठनों का क्या भविष्य हो सकता है? इसके संबंधी चर्चा हम इस लेख के दूसरे भाग में करेंगे। (क्रमश:)