जल विद्युत परियोजनाओं का अभिशाप झेल रहा हिमालय

 

उत्तराखंड में जोशीमठ जैसा खतरा हिमाचल प्रदेश में भी दिखाई देने लगा है। मंडी ज़िले में तीन ग्रामों के घरों में भी दरारें देखने को मिल रही हैं। पूरा हिमालय इस समय विकास एवं पर्यटन के लिए निर्मित की जा रहीं जल विद्युत परियोजनाओं का अभिशाप झेल रहा है। इन परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों पर ऊंगलियां शुरू से ही उठाई जाती रही हैं। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लम्बा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदुषित होगी ही, साथ ही हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है। केदारनाथ में हुआ हादसा इसी पारिस्थितिकी तंत्र के गड़बड़ाने का दुष्परिणाम था। इस हादसे के सात साल बाद 2021 में उत्तराखंड में एक बार फिर तबाही का अलाम देखने को मिला था। बर्फ  के एक बड़े शिलाखंड के टूटने से आई बाढ़ के कारण चमोली जिले में ऋ षिगंगा और धौलीगंगा जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांध टूट गए थे। परिणामस्वरूप लगभग 150 लोगों के बहने के साथ इतने ही लोगों की मौत की खबर आई थी। इस घटना ने भी आधुनिक विकास बनाम प्रलय की चेतावनी दी थी, लेकिन न भारत सरकार चेती और न ही उत्तराखंड सरकार। अब जोशीमठ तो मानव निर्मित कृत्रिम आपदा का संकट झेल ही रहा है, लेकिन इसे यदि गम्भीरता से नहीं लिया गया तो धीरे-धीरे हिमालय की ज्यादातर आबादी का हाल कहीं जोशीमठ जैसा ही न हो। 
 औद्योगिक-प्रोद्यौगिक विकास के लिए हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को नज़रअंदाज़ किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय भी इस बिंदु पर चिंता जता चुका है। केंद्र सरकार के अधीन जल संसाधन मंत्रालय 2016 में न्यायालय से कह चुका है कि अब यहां यदि कोई नई विद्युत परियोजना बनती है तो पर्यावरण के लिए खतरा साबित होगी। दरअसल 2013 में केदारनाथ त्रासदी के बाद एक याचिका की सुनवाई करते हुए चैबीस निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी गई थी। यह मामला आज भी विचाराधीन है। इसके बावजूद पहाड़ी क्षेत्रों में बिजली के लिए जल के दोहन का सिलसिला जारी है। इसके साथ ही रेल परियोजनाओं के लिए भी हिमालय के गर्भ में सुरंगे खोदी जा रही हैं और सतह पर आधुनिक सुविधा युक्त रेलवे स्टेशन बनाए जा रहे हैं। मसलन त्रासदियों से सबक लेने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाई नहीं दे रही है। जबकि 1976 में गढ़वाल के आयुक्त महेशचंद्र मिश्रा की समिति ने 47 साल पहले ही कह दिया था कि जोशीमठ का जिस अनियमित ढंग से विकास हो रहा है, उससे यह कभी भी दरक सकता है, क्योंकि यहां नए निर्माण के लिए पहाड़ों को ताकतवर विस्फोटों के जरिए ढहाया जा रहा था, जिसने हिमालय की जडें़ हिलने शुरू हे गई थीं।   
विभिन्न परियोजनाओं के तहत लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खम्बे व दीवारें खड़ी की जाती हैं। इन गड्ढों की खुदाई के समय ड्रिल मशीनों से जो कम्पन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कम्पन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं नंदादेवी क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं। इसीलिए ऋषिगंगा, धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी गंगा के जल अधिग्रहण क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। इन्हीं नदियों का पानी गोमुख से निकलकर गंगा की धारा को निरन्तर बनाए रखता है। स्पष्ट है, गंगा की धारा को ये संयंत्र अवरुद्ध कर रहे हैं। नतीजतन पहाड़ घंसने के संकेत अब जोशीमठ के घरों में आई दरारों से स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं। फिलहाल भले ही यह सब जोशीमठ में दिख रहा हो, लेकिन भविष्य में इसका विस्तार पूरे चामोली जिले में दिखाई दे सकता है। 
ऋषिगंगा पर बन रहा संयंत्र रन ऑफ रिवर पद्धति पर आधारित था। अर्थात यहां बिजली बनाने के लिए बांध तो नहीं बनाया गया था, लेकिन परियोजना को निर्मित करने के लिए नदी की धारा में मज़बूत आधार स्तंभ बनाए गए थे। इन पर टावर खड़े करके विद्युत निर्माण के यंत्र स्थापित कर दिए गए थे। ऐसे में यह समूची परियोजना हिमखंड के टूटने से जो पानी का तेज प्रवाह हुआ, उससे क्षतिग्रस्त हो गई। यह संयंत्र जिस जगह बन रहा था, वहां दोनों किनारों पर संकरी घटियां हैं। इस कारण पानी का वेग अधिक था, जिसे आधार स्तंभ झेल नहीं पाए और संयंत्र तबाह हो गया। यह पानी आगे चलकर विष्णुगंगा तपोवन परियोजना तक पहुंचा तो वहां पहले से ही बने बांध में पानी भरा था, परिणामस्वरूप बांध की क्षमता से अधिक पानी हो गया और बांध टूट गया। यही पानी तबाही मचाता हुए निचले क्षेत्रों की तरफ  बढ़ता चला गया। चूंकि हिमखंड दिन में टूटा था, इसलिए जन व धन की हानि ज्यादा नहीं हुई, अन्यथा अधिक नुकसान हो सकता था। 
इन शपथ-पत्रों को देते समय 70 नए ऊर्जा संयंत्रों को बनाए जाने की तैयारी चल रही थी। दरअसल परतंत्र भारत में जब अंग्रेज़ों ने गंगा किनारे उद्योग लगाने और गंगा पर बांध व पुलों के निर्माण की शुरूआत की थी तब पंडित मदनमोहन मालवीय ने 1916 में ब्रिटिश शासन को यह अनुबंध करने के लिए बाध्य किया था कि गंगा में हर वक्त हर क्षेत्र में 1000 क्यूसिक पानी निरन्तर बहता रहे। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर टिहरी जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े बांध और बिजली संयंत्रों की स्थापना के लिए आधार स्तंभ बनाकर गंगा और उसकी सहायक नदियों की धाराएं कई जगह अवरुद्ध कर दी गई हैं। बहरहाल, हिमालय की नदियों को सुरंगों में डालने से उनके दोहन का सिलसिला और तेज़ हो जाता है। इसी का परिणाम 2021 की त्रासदी थी और इसी का विस्तार हम जोषीमठ में देख रहे हैं।  
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