राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन सकता है जालन्धर का उप-चुनाव

मामला जब भी चिरागों का उठे,
़फैसला सिर्फ हवा करती है।
समझा जाता है कि जालन्धर लोकसभा के उप-चुनाव इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इसके परिणाम 2024 के लोकसभा चुनावों के परिणाम को प्रभावित करने के समर्थ हो सकते हैं। यह परिणाम पंजाब में कांग्रेस, ‘आप’, अकाली दल तथा भाजपा की स्थिति तथा भविष्य की राजनीति की दशा तथा दिशा तय करेगा। अब तक यह सीट कांग्रेस के पास थी। इसलिए यदि कांग्रेस अपनी यह सीट उप-चुनाव में बचा न पाई तो उसका ग्राफ और नीचे चला जाएगा। वैसे अभी तो यही समझा जा रहा है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने पंजाब के कांग्रेसी गलियारों में उत्साह पैदा किया है। जहां तक आम आदमी पार्टी का संबंध है, उसके लिए तो यह चुनाव अग्नि परीक्षा जैसा है। क्योंकि सरकार बनते ही वह अपने गढ़ संगरूर के लोकसभा का उप-चुनाव हार चुकी है।
यदि ‘आप’ जालन्धर उप-चुनाव भी हार जाती है तो नैतिक रूप से तो ‘आप’ के लिए बड़ी समस्या पैदा हो सकती है। उसके लिए 2024 के लोकसभा चुनावों में भी विरोधी हवा चलने की सम्भावना बन जाएगी। हालांकि ‘आप’ के लिए संगरूर के मुकाबले जालन्धर का चुनाव अधिक कठिन होगा, क्योंकि संगरूर ज़िले में सभी विधायक ‘आप’ के थे तथा जालन्धर में स्थिति बिल्कुल अलग है। जहां तक अकाली दल का संबंध है, इसके लिए उसके अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के लिए भी यह चुनाव जीने-मरने का सवाल है। अकाली दल यह चुनाव चाहे न भी जीते परन्तु यदि वह सम्मानजनक वोट ले जाने में सफल होता है तो उसकी वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। परन्तु यदि यहां अकाली दल संगरूर की तरह भाजपा से भी पीछे चला गया तो फिर उसके कम से कम 2024 के लोकसभा चुनावों तक पुन: उठने की सम्भावनाएं दिखाई नहीं देंगी। जबकि भाजपा की 2024 के चुनावों हेतु पूरी रणनीति ही इस चुनाव के परिणाम पर निर्भर करेगी। यदि भाजपा इस चुनाव में अकाली दल से बहुत ज्यादा वोट ले जाती है तो वह 2024 में अकेले चुनाव लड़ने में सक्षम हो सकती है या अपनी शर्तों पर अकाली दल के साथ समझौता कर सकेगी, परन्तु यदि इस चुनाव में वह पिछड़ जाती है तो उसे अकाली दल के साथ समझौता करने हेतु विवश होना पड़ सकता है।
कौन-कौन सम्भावित उम्मीदवार
चमकने वाली है तहरीर मेरी किस्मत की,
कोई चिरागों की लौ ज़रा कम कर दे।।
(बशीर बदर)
हालांकि हर कोई चुनाव लड़ने वाला एवं टिकट की मांग करने वाला यह समझ कर मैदान में उतरता है कि उसकी किस्मत चमक सकती है। वह जीत सकता है, परन्तु जीतना तो सिर्फ एक ने ही है। किस्मत तो किसी एक की ही चमकेगी। शेष सभी की किस्मत में तो हार ही होती है। इसके बावजूद जालन्धर उप-चुनाव में टिकटों के चाहवानों की भरमार है, परन्तु कुछ सम्भावित उम्मीदवार सचमुच ऐसे हैं, जिन्हें टिकट मिलने की सम्भावनाएं बहुत प्रबल हैं। सभी पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवार की तलाश तेज़ कर दी है। जहां तक कांग्रेस का संबंध है, यहां से पहले स्थान पर पूर्व लोकसभा सांसद स्व. संतोख सिंह चौधरी की पत्नी करमजीत कौर चौधरी का नाम चल रहा है। दूसरे स्थान पर पूर्व सांसद महिन्दर सिंह के.पी. तथा पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के नाम भी हैं। जबकि आम आदमी पार्टी के चाणक्य माने जाते संदीप पाठक भी यहां से सम्भावित उम्मीदवार की तलाश कर रहे हैं। अभी विधायक शीतल अंगुराल तथा विधायक बलकार सिंह के पारिवारिक सदस्यों में से किसी एक के संबंध में विचार करने की सूचना है। परन्तु जानकारी मिली है कि ‘आप’ कांग्रेस के पूर्व सांसद महिन्दर सिंह के.पी. को भी पार्टी में शामिल करके उम्मीदवार बनाने संबंधी सर्वेक्षण करवा रही है। पहले अकाली नेता पवन टीनू के संबंध में भी बात चली थी। परन्तु प्रतीत होता है कि टीनू अकाली दल में ही रहना चाहते हैं।
अकाली दल के पास यहां से सबसे अधिक चाहवान उम्मीदवार हैं। पहले स्थान पर पवन टीनू को ही माना जा रहा है। जबकि अकाली दल द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ 18-19 हज़ार मतों से हारने वाले लोकसभा के पूर्व उप-स्पीकर चरणजीत सिंह अटवाल या उनके पूर्व विधायक बेटे इन्द्र इकबाल सिंह अटवाल पर भी दांव खेला जा सकता है। जबकि अकाली दल के पास बलदेव सिंह खैहरा तथा डा. सुखविन्दर सिंह सुक्खी जैसे नेता भी टिकट के चाहवान हैं।
भाजपा इस सीट पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन विजय सांपल या राजेश बाघा में से किसी एक को मैदान में उतार सकती है। परन्तु ताज़ा  सूचना के अनुसार कांग्रेस से भाजपा में आये पूर्व मंत्री डा. राज कुमार वेरका को भी यहां से उम्मीदवार बनाने के लिए विचार किया जा रहा है।
कैप्टन का राज्यपाल बनना तय?
ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के फिर से दिन बदलने वाले हैं तथा उनका महाराष्ट्र का राज्यपाल बनना तय हो गया है? यह घोषणा किसी भी समय हो सकती है। वैसे मीडिया बैरन पर आजकल सत्तारूढ़ पार्टी के नज़दीकी माने जाते इंडियन एक्सप्रैस समूह के एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर आनंद गोइनका ने तो इस सम्भावना संबंधी 5 दिन पहले ही ट्वीट भी कर दिया था कि कैप्टन की महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के स्थान पर नियुक्ति की सम्भावना है। जानकारी मिली है कि कैप्टन कुछ छोटे प्रदेशों में राज्यपाल नियुक्त होने के लिए तैयार नहीं थे तथा अब वह महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त होने हेतु हां कर चुके हैं। यह भी जानकारी मिली है कि उनके ओ.एस.डी.  के रूप में एम.पी. सिंह तथा पूर्व पत्रकार रवीन ठुकराल भी उनके साथ ही होंगे, जबकि एक और बहुत बड़े अधिकारी संबंधी भी चर्चा जारी है।
कनाडा के मंदिरों पर खालिस्तानी नारे
कनाडा के मंदिरों की दीवारों पर खालिस्तानी नारे लिखने की बहुत-सी घटनाएं चर्चा में है। हम नहीं समझते कि मंदिरों की दीवारों पर ये नारे लिखने से सिख समुदाय की समस्याएं हल होने में कोई सहायता मिलेगी। ऐसी बातें तो अपितु देश के अन्य भागों में रहते सिखों की छवि तथा वहां के समाज में उनकी स्थिति खराब करने का कारण भी बनती हैं तथा वैसे भी ये नारे मंदिरों पर लिखने खालिस्तान बनाने में कोई सहायता नहीं करते। 
हम समझते हैं कि कनाडा के सिख नेतृत्व को इस संबंध में गम्भीर विचार-विमर्श करना चाहिए कि सिखों के पक्ष में क्या है तथा क्या यह आर.एस.एस. के हिन्दू राष्ट्र के  लक्ष्य हेतु हिन्दुओं को प्रभावित करने के लिए तो नहीं लिखवाए जा रहे या इसके पीछे कोई राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसी तो नहीं? परन्तु इसके साथ ही भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार को भी चाहिए कि वह सिखों में बेगानगी की भावना पैदा होने से रोकने के लिए ईमानदारी दिखाएं। नहीं तो ऐसी दोहरी नीति का कोई लाभ नहीं कि एक तरफ तो सिखों के साथ हमदर्दी दिखाने वाले तथा खुश करने वाले कार्य किए जाएं तथा दूसरी तरफ दुष्कर्म तथा हत्या के मामलों में सज़ाय़ाफ्ता  एवं सिख विरोधी समझे जाते एक कथित बाबा को आये दिन पैरोल पर रिहा किया जाये तथा दूसरी तरफ दशकों से जेलों में बंद तथा सज़ा पूरी कर चुके बंदी सिखों को रिहा करने से आनाकानी की जाए। कैनेडियन पंजाबियों, विशेष तौर पर सिखों को भारतीय वीज़ा देने से इन्कार करने के समाचार भी अच्छे नहीं हैं। भाजपा नेतृत्व को समझ लेना चाहिए कि सिखों के प्रति सरकार की दोहरी नीति का भाजपा तथा देश दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। 
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