लोगों को बांटने के लिए धर्म का इस्तेमाल करना सही नहीं

 

अठारहवीं सदी भारत के इतिहास में बहुत उथलपुथल भरी रही। अंग्रेज़ी शासन अपनी जड़ें जमा रहा था और भारतीय जनमानस उसे सफल न होने देने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा पर चल रहा था। फिरंगी हमारी कमज़ोरियों को खोजकर हमें अपना गुलाम बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे थे। यहां तक कि धर्म के आधार पर हमें आपस में लड़ाने और बांटने का खेल, खेल रहे थे।
रामकृष्ण परमहंस
उस समय बंगाल की धरती पर एक साधारण और गरीबी झेल रहे परिवार में 18 फरवरी को एक बालक का जन्म होता है, जिसका नाम गजाधर रखा जाता है, जो बड़े होकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में प्रसिद्धि पाता है।
आज हम उनका स्मरण और उनके द्वारा किए गए अनेक प्रयोगों की बात इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि आज सभी धर्मों के अनुयायियों में अपने धर्म को दूसरे से बेहतर बताने की होड़ लगी हुई है। इसके लिए वे आपस में लड़ाई-झगड़ा और संघर्ष तक करने पर आमादा हो जाते हैं। इस बात का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि जहां एक ओर यह कहा जाता है कि कोई भी धर्म आपस में बैर करना नहीं सिखाता, लेकिन कुछ लोग इसे लेकर ईर्ष्या, द्वेष और नफरत फैलाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते ताकि अस्थिरता बढ़े और उनके निहित स्वार्थ सिद्ध हो सकें।
स्वामी रामकृष्ण को ऐसे ही परमहंस नहीं कहा गया। उसका कारण था कि वह एक शिक्षक की भांति अपने शिष्यों से कुछ कहने से पहले स्वयं उस बात को अपने पर लागू कर के देखते थे और जब पूरी तरह संतुष्ट हो जाते तब ही उस पर चलने के लिए कहते थे।
उनका जन्म हिन्दू धर्म में हुआ था और वह दूसरे प्रमुख धर्मों विशेषकर इस्लाम और ईसाईयत को समझना चाहते थे। इसे जानने के लिए उन्होंने स्वयं को इन दोनों धर्मों के गुणों को अपने अंदर अर्थात् अपनी आत्मा के साथ मिला कर देखने का प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि वह जितने हिंदू हैं, उतने ही मुस्लिम और ईसाई हैं। कोई अंतर नहीं है।
कहते हैं कि जब नरेंद्र यानी स्वामी विवेकानंद उनसे अपनी गुरु की खोज के दौरान पहली बार मिलने गए तो रामकृष्ण के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी और उन्होंने इस युवक को नर अर्थात् नारायण का अवतार कहा। नरेंद्र कुछ समझ नहीं पाए, परन्तु जब नरेंद्र तीसरी बार उनसे मिलने पहुंचे तो उन्हें आभास हुआ कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। एक गुरु की भांति उनकी प्रत्येक शंका का समाधान कर सकता है। उसके बाद पांच वर्ष तक नरेंद्र उनकी प्रत्येक कथनी और करनी को तर्क की कसौटी पर कसते रहे।
रामकृष्ण को अपने शिष्यों द्वारा अपनी परीक्षा लिए जाने से आनंद प्राप्त होता था। वह अपने व्यवहार के परखे जाने को स्वयं अपने शिष्यों से कहते थे। यदि शिष्य अपने गुरु की बात से संतुष्ट नहीं होता तब तक शिक्षक द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है। यह ऐसा ही है कि जैसे रट्टा लगाकर परीक्षा पास कर ली जाए। 
रामकृष्ण के अनुसार शिक्षक वही है जो विद्यार्थी का मन पढ़ने की क्षमता रखता हो और इसे जानने के लिए अपने बनाए तरीकों का इस्तेमाल करता हो। इस तरह जो विद्यार्थी कम बुद्धि रखता हो, वह भी गूढ़ विषयों को समझने की योग्यता हासिल कर लेता है। विद्यार्थी और शिक्षक एक-दूसरे से निरन्तर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। साधारण और सामान्य सी लगने वाली घटना से कुछ अनदेखा और महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने की कला ही व्यक्ति को शिक्षित बना सकती है वरना चाहे डिग्रियों के कितने भी ढेर जमा कर लिए जायें, उनसे केवल जीवन यापन किया जा सकता है, मानसिक और वैचारिक संतुष्टि हासिल नहीं की जा सकती।
अपने अस्तित्व की पहचान
जहां तक अध्यात्मिक और धर्म की शिक्षा का संबंध है तो ये दोनों ही अपने को जानने और समझने के लिए ज़रूरी हैं क्योंकि यह पता होना ही चाहिए कि मैं क्या हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है और संसार में आने का मेरा अर्थ क्या है ?
आज के दौर में जब धर्म के अनुसार राष्ट्र बनाने की बात सुनाई देती है तो वह बचकानी लगती है। इसे लेकर घोषणा करने वालों के अपने स्वार्थ हैं, सामान्य व्यक्ति के मन को विचलित करने का प्रयास है, इसका न केवल विरोध होना चाहिए, बल्कि ऐसे लोगों के प्रति कठोर कार्यवाही भी हो, क्योंकि यह समाज को बांटने की कोशिश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मान्यता थी कि धर्म की पवित्रता का कोई अर्थ नहीं, जब तक आत्मा शुद्ध नहीं है। धर्म की शिक्षा तब कट्टरपन बन जाती है जब ईश्वर या सर्वशक्तिमान की सत्ता को नकारने के प्रयास शुरू हो जाते हैं और तब धर्म हमें बेकाबू कर देता है, परिणामस्वरूप दंगे होते हैं और जीवन बिखरने लगता है।
धर्म का लक्ष्य
धर्म मन की शांति के लिए है, उससे समाज में खुशहाली की उम्मीद की जा सकती है। धर्म मानवता की सेवा के लिए है, उसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए किया जा सकता है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा गरीबी दूर की जा सकती है, ज़रूरतमंद विद्यार्थियों की मदद की जा सकती है, नौकरी या कारोबार करने के लिए सहायता दी जा सकती है, शिक्षा के प्रसार के लिए प्रबंध किए जा सकते हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति की जा सकती है। इससे भी आगे बढ़कर समाज में एकरूपता लाने के लिए प्रयत्न किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त धर्म का इस्तेमाल कोई व्यक्ति समाज में भेदभाव के लिए करता है तो सावधान होना आवश्यक है।