पिता-पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो ?

पुत्र दिवस पर विशेष

अमरीका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों और अब भारत में भी चार मार्च को राष्ट्रीय पुत्र दिवस मनाने की परम्परा चल पड़ी है। पश्चिमी देशों में वयस्क होने पर बेटे को अपना डेरा, तम्बू अलग गाड़ने की परम्परा उनके विकसित देश होने के दौर से पड़ती गई और अब वहां यह मामूली बात। है। पिता यह सोचकर अपने को परेशान महसूस नहीं करता कि बेटा बालिग होकर अपनी दुनिया अलग बसाने जा रहा है, बल्कि वह सहयोग करता है कि अलग होने की प्रक्रिया के दौरान बेटे को कुछ मदद चाहिये तो पिता इसके लिए तैयार है।
कह सकते हैं कि एकल परिवार यानी अब बड़ा हो गया हूँ तो मुझे अपने जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित करनी है और मेरी जो भी दशा होगी, वह मेरी अपनी बनाई होगी, इसके लिए खुद ज़िम्मेदार हूँ और माता-पिता तो कतई नहीं। इसके साथ ही उन्होंने अब तक मुझे जो जीवन दिया, उसके लिए उनका आभार मानने या ऋ णी महसूस करने की न तो आवश्यकता है और न ही उसकी उम्मीद की जाती है।
फलसफा यही है कि मैं यह करूं, वह करूं, मेरी मज़र्ी, इसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं और माता-पिता का तो बिलकुल नहीं। अलग रहने और अकेले सभी फैसले करने की आज़ादी मिलने की आदत पड़ जाने से बाप-बेटे को एक-दूसरे पर निर्भर रहने से मुक्ति मिल जाती है। वे न तो सोचते और कहते हैं कि हमने तेरे लिए यह किया और तू हमारे साथ यह कर रहा है या आपने मेरे लिए किया ही क्या है, जैसी बातें दोनों के दिमाग में आम तौर से नहीं आतीं। भावुक होकर या भावनाओं में बहकर अपने मन या इच्छा के खिलाफ  कुछ कहने या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो कुछ होता है या जैसे भी संबंध बनते या बनाए जाते हैं, वे व्यावहारिक आधार पर बनते हैं।
इन देशों में परिवारों के लिए विकसित होने का यही अर्थ है कि न अपने साथ कोई ज़्यादती होने दो और न ही अपने पिता से उम्मीद रखो कि उनसे क्या मिला और क्या नहीं मिला या वह मिलना चाहिये जो नहीं मिल रहा और उसे हासिल करने के लिए मुझे यह करना है। इस व्यवस्था में एक अच्छी बात यह है कि पिता के न रहने पर संतानों के बीच झगड़े होने की संभावना न के बराबर रहती है क्योंकि जिसे जो मिलता है, उसे उसकी उम्मीद नहीं होती, इसलिए वह उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेता है।
राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर मकसद यही रहता है कि पिता और पुत्र अपने परिवारों सहित एक दूसरे से मेल-मिलाप करें, चाहे वर्ष में एक बार ही सही। असल में होता यह है कि अलग रहने से आपस में बाप-बेटे से ज्यादा दोस्ती का रिश्ता पनप चुका होता है जिसमें एक-दूसरे के प्रति मित्र की भांति स्नेह और लगाव रहता है। 
भारतीय व्यवस्था
अब जहां तक हमारे देश की बात है, हम संयुक्त परिवार व्यवस्था में पालन पोषण होने के लिए जाने जाते हैं। पारिवारिक परम्पराओं को मानने और उन पर चलने को मजबूर कर दिए जाने की बाध्यता रहती है। पुत्र पर तो इसकी ज्यादा ही ज़िम्मेदारी रहती है। उसके किसी भी व्यवहार या कदम से जिसमें पिता की सहमति या आज्ञा न ली गई हो, पिता के लिए नाक कटने जैसा हो जाता है। 
पिता द्वारा पुत्र को लेकर अक्सर गैर-जरूरी टिप्पणी करना, उसकी सराहना के स्थान पर आलोचना और हरेक काम में मीनमेख निकालना तथा पुत्र को चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, नादान, नासमझ मानकर कुछ भी करने से पहले उसकी हिम्मत तोड़ देने जैसा है। नतीजा यह होता है कि जाने अनजाने पुत्र धीरे-धीरे हीनभावना का शिकार होने लगता है, उसमें अपने बलबूते कुछ करने का साहस कमज़ोर पड़ता जाता है और वह एक तरह से जीवन भर पिता की उँगली थामे अर्थात् प्रत्येक निर्णय के लिए उन पर निर्भर रहने की आदत का गुलाम बनने लगता है।
अब क्योंकि भारत तेजी से बदल रहा है, इसलिए राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर प्रत्येक पिता को यह सोचना होगा कि वह अपने पुत्र को भारतीय परम्परा के अनुसार जीवन भर आश्रित रखना चाहते हैं या उसके वयस्क होते ही अपनी तथाकथित छत्रछाया से मुक्त कर उसे अपने पैरों पर खड़े होकर उसकी मंज़िल तक उसके फैसलों से पहुंचने देना चाहते हैं।
पिता और पुत्र दोनों को स्वीकार करना ही होगा कि अब संयुक्त परिवार व्यवस्था का टूटना ही भविष्य है। एकल परिवार के रूप में निजी संबंधों की व्याख्या करनी होगी जिसमें अलग-अलग रहते हुए भी मिलना जुलना होता रहे और बिखराव के स्थान पर अच्छा बुरा वक्त आने पर आपस में जुड़ाव का अनुभव कर सकें। पिता को अपने पुत्र की तरफदारी से बचना होगा और पुत्र को अपने पिता या परिवार से कुछ मिलने की उम्मीद रखने से दूर रहना होगा। आपसी तनाव न होने देने के लिए न तो किसी चीज की अपेक्षा हो और न ही इसे लेकर एक-दूसरे की उपेक्षा हो, यही राष्ट्रीय पुत्र दिवस का लक्ष्य होना चाहिए।