टिक टिक करता माइक्रो प्लास्टिक का टाइम बम

पिछले महीने आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक ओजोन परत के छेद अब धीरे-धीरे भर रहे हैं और उमीद है कि साल ख्म्म् तक ये पूरी तरह से भर जायेंगे। वायु प्रदूषण को लेकर इस अच्छी खबर के साथ ही मानव सयता पर जल और थल से जुड़े प्रदूषण को लेकर बेहद गंभीर खतरा बताने वाली एक दूसरी रिपोर्ट भी इसी समय सामने आयी है। कई देशों के वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट में दावा किया है कि मानव शरीर में औसतन पांच ग्राम प्लास्टिक रोज़ाना पहुंच रहा है। यह माइक्रो प्लास्टिक के रूप में यानी पांच मिलीमीटर से छोटे कणों के आकार में शरीर में दाखिल हो रहा है। यह प्लास्टिक मानव सयता के लिए एक 'टाइम बम' जैसा है।
मलेशियाए इंडोनेशिया और नीदरलैंड के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि माइक्रो प्लास्टिक मानव शरीर के आधे से अधिक अंगों तक पहुंच चुका है। इंडोनेशिया की 'एअरलंग्गा यूनिवर्सिटी' के शोधकर्ताओं की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि प्लास्टिक उत्पाद बनाने में क्, से अधिक रसायनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इनमें से अधिकतर रसायन मानव शरीर के लिए बेहद खतरनाक हैं। मलेशिया के साइंस विश्वविद्यालय के शोधकर्ता ली योंग ये ने अपने अध्ययन में पाया कि मानव शरीर में प्लास्टिक के क्ख् से लेकर एक लाख कण तक रोज़ पहुंच रहे हैं।
नीदरलैंड के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट और अधिक डराने वाली है। इसमें दावा किया गया है कि मां के दूध के जरिए भी बच्चों के शरीर में माइक्रो प्लास्टिक पहुंच रहा है। दूध के ख्भ् में से क्त्त् नमूनों और सी.फूड के त्त् में से स्त्र नमूनों में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पाए गए हैं। रिपोर्ट कहती है कि समुद्री नमक में भी माइक्रो प्लास्टिक है। शरीर में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पाचन तंत्र, किडनी, लीवर, फेफड़े, दिल से जुड़े गंभीर रोगों के साथ ही कैंसर का कारण बनते हैं। यही नहीं, मोटापा, प्रजनन क्षमता और भ्रुण के विकास पर नकारात्मक असर भी माइक्रो प्लास्टिक की वजह से हो सकता है। साल ख्क्- में आयी एक रिपोर्ट में ख्ख् तक विश्व में क्ख् अरब टन प्लास्टिक कचरा जमा होने का अनुमान लगाया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल करीब भ् अरब प्लास्टिक कैरी बैग इस्तेमाल किए जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) का दावा है कि करीब त्त् लाख टन प्लास्टिक कचरा हर साल समुद्र में पहुंच जाता है। यह माइक्रो प्लास्टिक के रूप में समुद्री जीवों के जरिए लोगों के शरीर में प्रवेश कर रहा है। वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि समुद्री जीवों की कम से कम ख्म्स्त्र प्रजातियों को प्लास्टिक कचरा नुकसान पहुंचा रहा है। पिछले साल जून में वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका की बर्फ में भी माइक्रो प्लास्टिक मिला था। ये तथ्य पारिस्थिति की तंत्र के लिए गंभीर खतरे की घंटी हैं। इंडोनेशिया के शोधकर्ताओं ने तो यहां तक दावा किया है कि अगर ठोस कदम नहीं उठाए गए तो साल ख्भ् तक समुद्र में मछलियों के वजन से ज्यादा प्लास्टिक कचरा जमा हो जाएगा।
माइक्रो प्लास्टिक को प्लास्टिक कचरे से अगली कड़ी के खतरे के तौर पर देखा जा रहा है। यह प्लास्टिक उत्पादों के इस्तेमाल के साथ ही प्लास्टिक के विघटन के जरिए भी पैदा होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पाद प्लास्टिक कचरा बढ़ने का सबसे बड़ा कारण हैं, लेकिन इसके अलावा भी कई पहलू हैं जो सीधे तौर पर माइक्रो प्लास्टिक से जुड़े हैं। आईयूसीएन की रिपोर्ट के मुताबिक, माइक्रो प्लास्टिक में फ्भ् प्रतिशत हिस्सेदारी सिंथेटिक टेसटाइल की है। इसके अलावा ख्त्त् प्रतिशत टायर, ख्ब् प्रतिशत सिटी डस्ट, स्त्र प्रतिशत रोड मार्किंग, ब् प्रतिशत प्रोटेटिव मेरिन कोटिंग और ख् प्रतिशत हिस्सेदारी पर्सनल केयर प्रोडट्स की है। पिछले साल यानी दिसबर ख्ख्ख् में आयी अमरीकन केमिकल फोरम की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि धूप के बजाय ड्रायर में कपड़े सुखाने पर ब् गुना अधिक माइक्रोफाइबर निकलते हैं, जो माइक्रो प्लास्टिक का ही एक रूप है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ओर से सिडनी के फ्ख् घरों में किए गए अध्ययन में पाया गया कि धूल में फ्- प्रतिशत तक माइक्रो प्लास्टिक मौजूद है। इसका मतलब यह है कि हम बाहर ही नहीं, घर के अंदर भी सुरक्षित नहीं हैं। सिंथेटिक कपड़ों से लेकर खाने-पीने की पैकिंग, गिलास, प्लेट, पानी एवं शीतल पेय की बोतल, सौंदर्य प्रसाधन, सजावटी सामान जैसी चीजों के जरिए हम चौबीसों घंटे माइक्रो प्लास्टिक के संपर्क में हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कारण हमारे शरीर में भी पहुंच रहे हैं। अगर अपने देश भारत की बात करें, तो प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन में हम काफी पिछड़े हुए हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, देश में हर दिन करीब ख्म्, टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। इसमें से लगभग फ् प्रतिशत ही री-साइकल हो पाता है। बाकी को या तो डंप कर दिया जाता है या फिर यह नदी-नालों के जरिए समुद्र तक पहुंचकर जल प्रदूषण का प्रमुख कारण बनता है।
यह माइक्रो प्लास्टिक के रूप में बारिश के पानी के साथ भी वापस लोगों के पास पहुंच रहा है। प्यू चेरिटेबल ट्रस्ट की ख्ख्ख् की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल क्क् मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में पहुंच रहा है। मुंबई, केरल, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के आसपास का समुद्र सबसे अधिक प्रदूषित हो चुका है। गैर सरकारी संगठन 'प्रथम' की रिपोर्ट ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक कचरे को लेकर डराने वाली तस्वीर पेश करती है। देश के स्त्र ज़िलों के स्त्र गांवों पर अध्ययन के बाद तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में म्स्त्र प्रतिशत प्लास्टिक कचरा जला दिया जाता है, जिससे बेहद खतरनाक गैसें निकलती हैं। बाकी बचे कचरे में से अधिकांश डंप कर दिया जाता है, जो खेतों के जरिए फसलों में और फिर माइक्रो प्लास्टिक के रूप में मानव शरीर में पहुंच रहा है। क्ख् अगस्त, ख्ख्क् को भारत सरकार ने प्लास्टिक उपभोग को नियंत्रित करने के लिए त्रिस्तरीय योजना की अधिसूचना जारी की थी। इसके तहत एक जुलाई, ख्ख्ख् से दैनिक जीवन में अधिकाधिक इस्तेमाल होने वाले क्- प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध, फ् सितबर से स्त्रभ् माइक्रोन से कम मोटाई वाले प्लास्टिक बैग पर बैन और फ्क् दिसबर, ख्ख्ख् से क्ख् माइक्रोन से कम मोटे बैग पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई थी। जमीनी तौर पर यह अधिसूचना कितनी कारगर हो पायी, यह किसी से छिपा नहीं है। शुरुआत में अधिसूचना के तहत कार्यवाही का हो-हल्ला जरूर मचाए लेकिन कुछ दिनों में ही सारे दावे फुस्स हो गए। बाज़ार प्रतिबंधित प्लास्टिक उत्पादों से अटे पड़े हैं, तो वही लोग इसका बेरोकटोक इस्तेमाल कर रहे हैं।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-क्-त्त्म् की धारा क्भ् के तहत प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के उल्लंघन पर स्त्र साल की जेल और एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। हकीकत यह है कि कभी-कभार किसी छोटे-मोटे दुकानदार से प्रतिबंधित प्लास्टिक उत्पादों की छोटी-मोटी बरामदगी दिखाकर संबंधित विभाग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। ऐसे में, पर्यावरण प्रेमियों की इस दलील में ज्यादा दम नज़र आता है कि इस्तेमाल के बजाय प्लास्टिक उत्पादों की मैन्युफैचरिंग को नियंत्रित किया जाए तो ज्यादा प्रभावी नतीजे आ सकते हैं।
संबंधित विभागों की खानापूर्ति के बीच ऐसी खबरें कुछ सुकून जरूर देती हैं, जिनमें हैदराबाद के प्रोफेसर सतीश द्वारा प्लास्टिक कचरे से पेट्रोलियम ईंधन बनाने, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की ओर से जैविक चारकोल बनाने और प्लास्टिक कचरे से सड़कों का निर्माण करने के दावे किए जा रहे हैं। हालांकि, इन प्रयासों से मानव स्वास्थ्य पर मंडराते अत्यंत गंभीर खतरे को किस हद तक कम किया जा सकता है, इस बारे में किसी नतीजे पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी।
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