या पुरानी पैंशन योजना ही है अर्थ-व्यवस्था पर बोझ ?

क्रकारी नौकरियों की पुरानी पेंशन योजना समाप्त कर नई पेंशन योजना लागू किये जाने का राष्ट्रव्यापी विरोध जारी है। उल्लेखनीय है कि 'सरकारी नौकरी' ही देश में युवाओं के जीवन यापन के लिये उनकी पहली पसंद ही हुआ करती थी योंकि किसी भी सरकारी सेवा में कार्यरत कर्मचारी व अधिकारी को उसके सेवाकाल के दौरान निर्धारित मासिक वेतन के अतिरित अनेक सुविधायें तो मिलती ही थीं, साथ ही प्रत्येक सेवानिवृा कर्मचारी को अनिवार्य पेंशन पाने का भी अधिकार प्राप्त था। अनिवार्य पेंशन सेवानिवृिा के समय मिलने वाले मूल वेतन का लगभग भ् प्रतिशत भाग होता होता था। इसके अतिरित  सेवानिवृा कर्मचारी को भी किसी भी कार्यरत सरकारी कर्मचारी की ही तरह लगातार महंगाई भो में बढ़ोतरी की सुविधा भी मिलती रहती थी। केंद्र सरकार ने इसी पुरानी पेंशन योजना को वर्ष ख्ब् में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय खत्म कर न्यू पेंशन स्कीम की घोषणा की थी। ख्ब् में पेंशन योजना को बंद करते समय अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा था कि पेंशन योजना देश की आर्थिक स्थिति के लिये बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। कुछ अर्थशास्त्री तो पेंशन योजना को देश की भविष्य की विाीय तबाही का कारक तक बता रहे थे। संप्रग सरकार में योजना आयोग के अध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे अर्थशास्त्री उन दिनों सभी राजनीतिक दलों व सााधारी पार्टियों को यह सीख दे रहे थे कि वे सभी 'व्यवस्था' को ऐसे कदम उठाने से रोकें जो निश्चित रूप से विाीय तबाही का सबब है। अनेक ओपीएस विरोधी अर्थ शास्त्रियों व सााधारियों ने तो इस योजना को 'सबसे बड़ी रेवड़ी' तक बता दिया है।
चुनाव हेतु लाभकारी समझ कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे को विभिन्न राज्यों में उछाला और जहां-जहां उसे ओ पी एस लागू करने के वादे के बाद चुनावी सफलता मिली वहां-वहां कांग्रेस ने इसे बहाल भी कर दिया। कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान और छाीसगढ़ के बाद अब हिमाचल प्रदेश में भी ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल किया जा चुका है। झारखण्ड में चल रही जे एम एम, कांग्रेस, आर जे डी व एनसीपी  की महागठबंधन सरकार ने भी ओल्ड पेंशन स्कीम पुनः लागू कर दी है। कांग्रेस की ओर से  पुरानी पेंशन योजना पुनः बहाल किये जाने के पक्ष में जो तर्क दिये जा रहे हैं उन्हें राजस्थान के मुयमंत्री अशोक गहलोत के इन शदों से समझा जा सकता है कि यदि देश म् वर्ष  तक ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करके और पेंशन देकर विकास कर सकता है तो या कर्मचारी को अपने बुढ़ापे के दौरान सुरक्षित महसूस करने का अधिकार नहीं है? और यदि कर्मचारी फ्-फ्भ् साल नौकरी करता है और उसे बुढ़ापे में पेंशन भी नहीं मिलेगी तो गुड गवर्नेंस में वह कैसे भागीदारी कर सकेगा? निश्चित रूप से देश के सेवानिवृत कर्मचारियों का यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि एक ओर तो दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही महंगाई, परिवार के सदस्यों में फैली बेरोज़गारी और ऊपर से परिवार के संरक्षक रूपी किसी बुज़ुर्ग सेवानिवृत कर्मचारी के जीवन यापन का एकमात्र सहारा यानी पेंशन का समाप्त हो जाना देश की सेवा में अपना जीवन खपा देने वाले किसी भी कर्मचारी के साथ अन्याय नहीं तो और या है?
इसके बावजूद भाजपा केन्द्र सरकार निकट भविष्य में भी पुरानी पेंशन योजना की बहाली की संभावना से फिलहाल इनकार कर रही है। जबकि विपक्ष इसे चुनावी मुद्दे के रूप में प्रमुखता से उठाना चाह रहा है। ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल किए जाने के लिए देश भर की ट्रेड यूनियंस भी इस विषय पर सरकार पर अपना दबाव बढ़ा रही हैं। ख्ख्ब् में लोकसभा के आम चुनावों से पूर्व छाीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान व तेलंगाना सहित नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। पूरी संभावना है कि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल राजस्थान, छाीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, पंजाब व झारखण्ड की ही तरह इन चुनावी राज्यों यहाँ तक कि लोकसभा चुनावों में भी पुरानी पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा पूरे ज़ोर-शोर के साथ उठा सकते हैं। विपक्ष को पूरी उमीद है कि पुरानी पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा उठा कर उन्हें अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारियों के रूप में देश के एक बड़े वोट बैंक का साथ मिल सकता है, जो साा दिलाने में सहायक भी हो सकता है। उधर साापक्ष ने 'लाभार्थी ' नामक एक नवनिर्मित वोट बैंक साधने की कोशिश की है जो केवल चंद महीने मिलने वाले भ् किलो अनाज पर ही सरकार का 'कृतज्ञ' रहता है।
दूसरी ओर विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा पेंशन योजना को देश की भविष्य की विाीय तबाही का कारक बताते हुये साा के सुर से अपना सुर मिलाना पुनः पेंशन बहाली की आस लगाये लोगों को इसलिये भी रास नहीं आ रहा कि जब देश की आर्थिक स्थिति इस योग्य भी नहीं कि वह विगत म् दशक से चली आ रही पेंशन योजना को और आगे चालू नहीं रख सकती, तो वही सरकार सांसदों और विधायकों की प्रत्येक सदस्य्ता पर मिलने वाली अलग-अलग पेंशन को भी समाप्त यों नहीं करती? देश यदि आर्थिक तंगहाली के दौर से गुज़र रहा है तो देश को लगभग ख् हज़ार करोड़ की लागत से बन रहे सेंट्रल विस्टा प्रोजेट की या ज़रुरत थी? देश के लोगों को प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के आठ हज़ार चार सौ करोड़ के अति महंगे विमानों की खरीद से आखिर या हासिल? साा के संरक्षण में पलने वाले भगौड़ों द्वारा समय-समय पर देश को लाखों-करोड़ रुपये की चपत लगाई जाती रही है। या यह विषय आर्थिक तबाही का कारक नहीं?