सिखों में फूट बढ़ेगी तो प्रभाव और कम होगा

‘ये जब्र भी देखा है ताऱीख की नज़रों ने,
लम्हों ने ़खता की थी, सदियों ने सज़ा पाई’
मुज्ज़फर वारसी का यह शे’अर बार-बार याद आया जब आज का कॉलम लिखते समय मेरा ध्यान दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी तथा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी द्वारा दिल्ली ़फतेह दिवस के संबंध में अलग-अलग नगर कीर्तन निकालने की ओर गया। सच्चाई यही है कि यदि लाल किले पर कब्ज़े के बाद सिख जरनैलों को आपसी फूट के बाद बने हालात को सम्भालते हुए एक समझौते के तहत दिल्ली को छोड़ना न पड़ता तथा एक सिख शासन की स्थापना करने में वह सफल हो जाते तो इतिहास कुछ और ही होता। शायद भारत कभी अंग्रेज़ों का गुलाम ही न होता परन्तु पलों की ़गलती की सज़ा कई बार सदियों तक भुगतनी पड़ती है।
दिल्ली ़फतेह दिवस कोई एक दिन का कार्य नहीं था। सिखों द्वारा दिल्ली की ़फतेह उनकी एकता तथा एकजुटता का सबूत था, जो साहिब श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब के समय से सिखों के हथियारबंद होने के बाद लगातार चल रही जद्दो-जहद का एक बड़ा शिखर था।
इतिहास साक्षी है कि 11 मार्च, 1783 को मुगल सलतनत के चिन्ह लाल किले पर खालसायी निशान साहिब फहराने तक सिखों ने दिल्ली पर 1764 से लेकर कई हमले किये। 1 फरवरी, 1764 को बाबा बघेल सिंह, जस्सा सिंह आहलूवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया तथा कुछ अन्य सिख जरनैलों ने यमुना पार करके सहारनपुर पर हमला किया था तथा अपना अधिकार जमा लिया था। 1767 में जब अहमदशाह अब्दाली अपनी सेना लेकर भारत आया तो सिखों से 1764 में हार चुके नवाब नसीब-ओ-दीन-दौला ने अब्दाली से सुरक्षा मांगी। अब्दाली का जरनैल जहान खान 80 हज़ार की सेना लेकर निकला। बाबा बघेल सिंह ने अन्य सिख मिसलों की सहायता से यह लड़ाई भी जीत ली। चाहे इसमें सिखों का भी बहुत नुकसान हुआ तथा बाबा बघेल सिंह जो करोड़सिंघिया मिसल के प्रमुख थे, भी घायल हो गए थे। फिर स्वस्थ होने के बाद बाबा बघेल सिंह ने सभी सिख मिसलों को पत्र लिख कर कुछ प्रमुख जरनैलों को साथ लेकर दिल्ली पर पहला हमला किया। सिख सेना शाहदरा तक पहुचीं, परन्तु सैनिक दृष्टि से हालात अनुकूल न समझते हुए सिख सेना अमीरों तथा नवाबों के पास नज़राना लेकर पंजाब लौट आईं।
दिल्ली पर दूसरा प्रत्यक्ष हमला 17 जुलाई, 1775 को किया गया। इसमें भी कई मिसलों की सांझी सेना शामिल थी परन्तु इस बार भी सिख सेना हालात को ध्यान में रखते हुए 25 जुलाई, 1775 को वापिस लौट आई। जब 11 अप्रैल, 1776 को दिल्ली के वज़ीर ने अपने भाई अब्दुल कासिम को सहारनपुर का सेना प्रमुख बना दिया तो सिखों को रक्षा के लिए खिराज़ देने वाले सहारनपुर के सूबेदार ज़ाबता खान द्वारा सहायता मांगे जाने पर सिख उसकी सहायता के लिए गए तो वज़ीर का भाई मारा गया। 
फिर 12 अप्रैल, 1781 में बाबा बघेल सिंह ने दिल्ली के निकट बाघपत पर हमला किया तथा शाहदरा एवं पड़पड़गंज तक पहुंच गए, जहां उस समय के मुगल बादशाह ने सिखों के साथ एक संधि की कि गंगा-यमुना के बीच के क्षेत्र की आय का 8वां हिस्सा सिखों को दिया जाया करेगा परन्तु यह संधि शीघ्र ही टूट गई।
8 मार्च, 1783 को सिख सेना दिल्ली में दाखिल हो गई तथा 11 मार्च, 1783 को दिल्ली के लाल किले पर काबिज़ हो गईं। इस जीत के बाद सिख जरनैल जस्सा सिंह आहलूवालिया दिल्ली के तख्त पर बैठ गए परन्तु यह बात अन्य सिख जरनैल जस्सा सिंह रामगढ़िया को स्वीकार नहीं हुई। इसलिए सिखों में फूट पड़ गई। बाबा बघेल सिंह ने आपसी फूट के कारण यह समझ लिया था कि वह सैनिक ताकत के अनुसार दिल्ली पर सफलता के साथ शासन करने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए उन्होंने म़ुगल बादशाह शाह आलम द्वारा की गई सुलह की पेशकश स्वीकार कर ली। परिणामस्वरूप दिल्ली में गुरु साहिबान की यादगारें और 7 गुरुद्वारा साहिब का निर्माण किया गया। सिखों को शाह आलम ने 10 लाख रुपए का नज़राना दिया तथा उसके दरबार में दीवान लखपत राये सिखों के दूत (प्रतिनिधि) बन गए। शाह आलम ने बाबा बघेल सिंह के साथ मुलाकात में कई अन्य तोह़फों के अलावा राइसीना गांव की कई सौ एकड़ भूमि भी भेंट की। जहां आजकल संसद तथा राष्ट्रपति भवन आदि का निर्माण किया गया है।
यह इतिहास लिखने का तात्पर्य मात्र सिर्फ  यह है कि सिखों को पता होना चाहिए कि जब-जब वे एकजुट होकर लड़े, वे जीतते रहे हैं और जब-जब उनमें फूट पड़ी तो जीत भी हार में बदलती रही है। वास्तविकता तो यही है कि इससे पहले बाबा बंदा सिंह बहादुर का राज भी सिखों की आपसी फूट के कारण गया था। अब भी सिख आपस में ही लड़ रहे हैं, नहीं तो दो नगर कीर्तन एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत दिशा में सिखों की दो चुनी हुई कमेटियां क्यों निकालतीं? दिल्ली कमेटी का नगर कीर्तन श्री अमृतसर से दिल्ली की ओर तथा शिरोमणि कमेटी का नगर कीर्तन दिल्ली से श्री अमृतसर की ओर निकल रहा है। सिखों को याद रखना चाहिए कि जब तक वे अपना एक साझा लक्ष्य तथा साझा विरोधी नहीं चुन लेते, वे परेशान ही होते रहेंगे। जिन परिस्थितियों में से सिख पंथ इस समय गुज़र रहा है, उसे देखते हुए उनके लिए यह आवश्यक है कि वे इकबाल अज़ीम के इस शे’अर को पढ़ने और समझने का प्रयास करें। 
अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे।
ख्वाब हो जाओगे, अ़फसानों में ढल जाओगे।
दे रहे हैं तुम्हें जो लोग ऱिफाकत का ़फरेब,
उनकी ताऱीख पढ़ोगे तो दहल जाओगे।
इतिहास दोबारा लिखने के प्रयास?
मिटती नहीं तारीख से कोई भी इबारत,
तारीख लिखेगी कि लिखा काट रहे हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं टे्रनिंग कौंसिल (एनसीइआरटी) द्वारा स्कूलों के पाठ्यक्रम में किये जा रहे बदलावों को साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कई विषयों विशेषकर इतिहास की किताबों में से कई विषय हटाए जा रहे हैं। विशेषकर मुस्लिम राजाओं तथा बादशाहों के दौर का इतिहास, लोकतंत्र को चुनौतियों जैसे विषय तथा अन्य भी बहुत कुछ जो आर.एस.एस. तथा भाजपा को उचित नहीं लगता, बदला जा रहा है। कुछ हटाया जा रहा है और कुछ नया शामिल भी किया जा रहा है, परन्तु इस प्रकार किताबों में से कुछ हटा देने से शहरों तथा स्थानों के नाम बदल देने से भी असल में इतिहास नहीं बदलता अपितु असली इतिहास में यह भी दर्ज हो जाता है कि किसी राजा या प्रधानमंत्री के शासन में यह इतिहास बदला गया था। 
केजरीवाल ने स्वर क्यों बदला?
आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल विपक्षी दलों के साथ मिल कर न चलने की घोषणा के बाद कुछ डावांडोल होते दिखाई दे रहे हैं। उनकी पार्टी के प्रतिनिधि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकर्जुन खड़गे द्वारा बुलाई गई विपक्षी पार्टियों की बैठक में भी शामिल हुए हैं और यह चर्चा भी ज़ोरों पर है कि इस बार 2024 में देश में कुछ स्थानों पर केजरीवाल चाहे विपक्षी दलों के साथ सीधा समझौता न भी करें परन्तु कई स्थानों पर मैत्रीपूर्ण लड़ाई तथा जीतने वाले उम्मीदवारों की सहायता का गुप्त समझौता कर सकते हैं। चर्चा है कि वह यह भी समझ रहे हैं कि शराब घोटाले की तपिश किसी भी समय उन तक पहुंच सकती है और वह नहीं चाहते कि ऐसी स्थिति में वह अकेले रह जाएं और उनके पक्ष में कोई नारा भी न लगाए। 
परन्तु यहां प्रश्न उठता है कि एक ओर तो ‘आप’ तथा भाजपा दोनों को ही आर.एस.एस. का बायां तथा दायां हाथ समझा जाता है, तो फिर भाजपा ‘आप’ नेताओं के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हुई है? कुछ लोगों का कहना है कि वास्तव में चाहे केजरीवाल कई बार भाजपा से भी अधिक ज़ोर से आर.एस.एस. की सोच का समर्थन करते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि केजरीवाल तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक-दूसरे के समर्थक नहीं हैं। प्रधानमंत्री कभी भी नहीं चाहेंगे कि केजरीवाल तथा उनकी पार्टी इतनी मज़बूत हो जाए कि भविष्य में वह भाजपा तथा उनके लिए ही कोई चुनौती बन जाए। इसलिए यदि ‘आप’ तथा भाजपा दोनों आर.एस.एस. समर्थक हों भी, तब भी उनमें आपसी टकराव तो बना ही रहेगा। 
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