हस्बेमामूल

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
नवयुवक ने इस बार शायद स्टेशन पर पहुंचने में देरी हो जाने के कारणों के बारे में यह नवीनतम जानकारी साझा की थी।
‘‘खैर, कुछ भी हो। अगर तुमने जल्दबाज़ी नहीं दिखाई होती तो ये ट्रेन छूट ही जाती, और इंटरव्यू भी। अब आगे से ध्यान रखना कि जब भी कहीं जाना हो, तो घर से निकलने में कम-अज-कम पन्द्रह मिनट का मार्जिन जरूर रखो। क्या पता रास्ते में कहीं जाम आदि मिल जाये। ‘मेन एट वर्क...आगे रास्ता बंद है’ टाइप कोई बोर्ड ही दिख जाये, तो क्या करोगे? ठिकाना तो अगली सांस का भी नहीं...हॉ-हॉ-हॉ।’’ ठठाकर हंसते, यह हिदायत देते उन बुजुर्गवार की देहभाषा से ऐसा लगा मानो वे बहुत बड़े ज्ञानी हैं। 
‘‘जी सर। यह बात तो है। लेकिन इसके लिए मैं उस टैम्पो वाले का भी तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, जिसने मेरे अनुरोध पर अपना टैम्पो बेतहाशा दौड़ाते-भगाते, ‘शॉर्टकट’ अपनाते, मुझे ठीक समय पर स्टेशन पहुंचा ही दिया।’’ ये कहते युवक ने मानो राहत की सांस ली।
‘‘ये तुम्हारा नजरिया हो सकता है, सार्वभौमिक नहीं। वैसे तुमने बढ़िया कही, ‘शॉर्टकट’ वाली बात, लेकिन यह रिस्की भी हो सकता था...हॉ-हॉ-हॉ।’’ कहते बुजुर्गवार फिर ठठाकर हंसने लगे।
चूंकि वो बुजुर्गवार थोड़ा ऊंची आवाज़ में बोल रहे थे, जिससे यह आभास हो रहा था कि आसपास बैठे लोगों को बताकर वे अपने इन दुर्लभ जीवनानुभवों में शामिल करना चाहते हैं। पास बैठे एक-दो यात्रियों ने तो हूं-हां करते उनकी बातों का समर्थन भी किया, जिससे उनका उत्साहवर्धन होना स्वाभाविक था। बताता चलूं...साथ ले आयी किताब ‘भारतनामा’ में भी संजोग से एक दिलचस्प पैरा, जो मंजिल तक पहुंचने के लिए ‘शॉर्टकट’ अपनाने की आदत से जुड़ा था, मैंने थोड़ी देर पहले ही पढ़ा था, अचानक याद आया, तो उनकी बातों से मुतमैयन भी हुआ। 
बुजुर्गवार की बातों, देहभाषा में यह भी गौरतलब था कि वो कुछ भी कहने से पहले दार्शनिक नजरिया अपना लेते। बात की शुरूआत ठठाकर करते और खत्म भी ठठाकर, बेसाख्ता हंसते ही करते। इस तरह ज्ञान देने के अति-उत्साह में उनके मुंह से थूक निकलने के बजाय सभ्य भाषा में कहूं तो ‘मोतियों की बौछार-सी’ हो रही थी, जो सीधे उस नवयुवक के मुंह पर पड़ने के कारण वो अपने कमीज की बांह बार-बार मुंह पर ले जाते पोंछ लेता। 
क्या पता ऐसा उनका स्वभाव ही हो? होते हैं ऐसे लोग, और गाहे-बगाहे, आते-जाते टकराते भी रहते हैं। जाहिर है ऐसे तुमुल-कोलाहल भरे माहौल में फिर एक बार नींद तो उचटनी ही थी। उनकी बातचीत से मेरे सहित अन्य यात्रियों की भी नींद उचट गयी थी। असमय की उत्पन्न यह स्थिति घोर असुविधाजनक थी, लेकिन क्या कर सकते थे...? मन मसोसकर रह गये। वो जगप्रसिद्ध उक्त याद हो आई...‘पीपुल प्लॉन बॅट ऑलमाइटी प्लान्स अॅदरवाइज।’
ट्रेन के लखनऊ पहुंचने का समय पौने दस बजे का था। ऐसे में इरादा यही था कि कम-अज-कम आठ-साढ़े आठ बजे तक तो अपनी सीट पर सुकून से सो ही सकता हूं। लेकिन अभी सुबह के लगभग छ: ही बजे होंगे, जब मैं टॉयलट से होकर वापस अपनी सीट पर आया तो देखता हूं कि निचली सीटों पर बैठे यात्री परिवार के वो अधेड़ सज्जन और नवयुवक तो अभी लेटे हुए हैं, परन्तु निचली सीटों पर बैठी वो दोनों महिलाएं उठकर बैठ गयीं हैं। नवविवाहिता ने झट अपने बैग से कंघी निकालकर बाल संवारे, तो अधेड़ महिला ने साथ ले आयी बोतल के पानी से मुंह पर छींटा मारते, तौलिये से पोंछने के बाद अपने चेहरे पर हल्के हाथों क्रीम लगाई। तत्पश्चात् दोनों बच्चों को जगाकर उनके भी मुंह पर पानी के छींटे मारने के बाद उन्हें जूते-मोजे पहनाकर, उनके बालों में कंघी फिराते, उन्हें राजा बाबू, रानी बिटिया सरीखे सजाने-संवारने के उपरांत, उनके हाथों में दो-दो क्रीम बिस्किट पकड़ा दिये।
(क्रमश:)