हस्बेमामूल

 

जब भी आप कहीं की यात्रा पर होते हैं तो सहयात्रियों संग आपको किसिम-किसिम के अनुभव भी मिलते हैं। बस्स...नज़र पारखी, कोलम्बसी होनी चाहिए। किसी शायर की ये खूबसूरत पंक्तियाॅं है न...‘शौके दीदार है गर तो नज़र पैदा कर।’ बहरहाल, आपको जबलपुर से लखनऊ तक की ट्रेन यात्रा का एक दिलचस्प अनुभव साझा कर रहा हूं। 
वाकया ये है कि रिश्ते में ही, जबलपुर में आयोजित एक विवाह समारोह में शामिल होने का सुअवसर था। शादी के अगले दिन, रात्रि की ट्रेन से मुझे जबलपुर से लखनऊ के लिए वापस लौटना था। बताता चलूं, यात्रा में अमूमन मेरे साथ कहानी, उपन्यास, संस्मरण या यात्रा-वृत्तांत आदि से संबंधित कोई-न-कोई किताब होती है। वैसे भी, सोने से पहले कुछ-न-कुछ पढ़ने की पुरानी आदत जो है। इस बार मेरे साथ सुनील खिलनानी की किताब का हिन्दी अनुवाद ‘भारतनामा’ थी। ट्रेन चलने के बाद बाकी मुसाफिरों की तरह मैंने भी ऊपरी बर्थ पर चादर बिछाई और पढ़ने वास्ते अपने सिरहाने रखे बैग से यह पुस्तक निकाल, बुकमार्क हटाते पढ़ने लगा।
निचली सीट पर आमने-सामने जो मुसाफिर बैठे थे, उनमें एक लगभग साठ-बासठ साल की अधेड़ महिला तो दूसरी लगभग बाइस-तेइस साल की नवविवाहिता तथा एक लगभग पैंसठ-अड़सठ साल के अधेड़ पुरूष तो दूसरा तीस-बत्तीस साल का युवक था। उनके साथ ही दो लगभग पांच से सात साल के बच्चे भी थे। ये बच्चे उन अधेड़ महिला, पुरूष को नाना, नानी कहते संबोधित कर रहे थे। उनके बीच हो रही बातचीत से ये सभी एक ही परिवार के लग रहे थे। महिलाएं आपसी बातचीत में, तो दोनों पुरूष अपने-अपने मोबाइल-फोन से बतियाने में मशगूल थे। ट्रेन छूटने के लगभग पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही इस परिवार की महिलाओं ने अपने बैग से खाने के दो बड़े-बड़े टिफिन और फोम की कुछ प्लेटें निकाल लीं। पानी की बोतलें इन्होंने डिब्बे में आने से पहले ही प्लेटफॉर्म से खरीद रखीं थीं। दोनों महिलाओं ने दोनों पुरूषों व बच्चों को प्लेटों में खाना परोसा और अपने लिए भी भोजन परोसने के साथ ही पुन: घर-परिवार से जुड़े मसलों और खुशनुमा मौसम के बारे में चर्चारत हो गये। सुस्वादु भोजन के महक से वातावरण गमक उठा।
 अभी पन्द्रह-बीस मिनट ही हुए होंगे कि किसी के जोर-जोर से खांसने की आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ। ध्यान दिया तो निचली सीट पर बैठी वो नवविवाहिता, इतनी तेज़ खांस रही थी कि खांसते-खांसते हाॅंफने लगती। साथ बैठे, लेटे, अधलेटे अन्य यात्रीगण भी अचकचाते हुए उसकी तरफ देखने लगे। उसे जोर-जोर से खांसते देख ऐसा लग रहा था मानो पारिवारिक सदस्यों संग बोलते-बतियाते, भोजन करते समय पानी या भोजन का कोई टुकड़ा उसकी सांस नली में फंस गया हो। उसके घर-परिवार वालों ने अपनी-अपनी तरह से उसका प्राथमिक इलाज करना शुरू कर दिया। अधेड़ महिला उसकी पीठ सहलाने लगीं। साथ बैठे युवक ने जल्दी से थर्मस के ढक्कन में ही पानी उड़ेलते, उसकी ओर बढ़ाया। अधेड़ सज्जन ने उसे परेशान न होने व गहरी-गहरी सांस लेने का सुझाव दिया। मेरे बगल वाले ऊपरी बर्थ पर लेटे सहयात्री ने जल्दी-जल्दी अपने बैग से कफ-ड्रॉप का एक पत्ता निकालते, ‘इसे चूस लीजिए। फौरन आराम मिलेगा’...कहते दो गोलियां उस नवविवाहिता की ओर बढ़ाया। 
बहरहाल...लगभग बीस-पच्चीस मिनट की इन उथल-पुथल भरी कवायदों के बाद नवविवाहिता की तबियत संभल गयी थी। यद्यपि इस छोटे से अंतराल में उस परिवार एवं आसपास बैठे यात्रियों के साथ-साथ मुझे भी थोड़ी असुविधा महसूस हुई, लेकिन यात्रा आदि में इस तरह के प्रसंग अनपेक्षित नहीं होते। हस्बेमामूल सी बातें हैं। अत: ऐसी असुविधाओं के लिए किसी से खेद जताने की उम्मीद करना बेमानी होगी। खैर...माहौल शांत हो गया था। निचली बर्थ पर बैठे उस परिवार के सभी सदस्यों ने भोजन खत्म कर लिया था। भोजन के कुछ देर बाद इस परिवार के अधेड़ पुरूष और अधेड़ महिला सदस्य लेटने की तैयारी में बगल वाली निचली बर्थ पर चादर-तकिया सजाने में लग गये। नवविवाहिता और वो युवक अभी भी बतकुच्चन के मूड में थे। भोजन करने में तो वो दोनों बच्चे ना-नुकर कर ही रहे थे, भोजन करने के बाद वे अभी भी सीटों के बीच में छुपते, दौड़ते, उधम मचाए हुए थे। हां! यह स्थिति अन्य यात्रियों के लिए असुविधाजनक हो सकती थी। ऐसे में डिब्बे के मुसाफिरों संग मुझे भी तत्काल नींद कहां आनी थी। 
 

(क्रमश:)