आइए, थोड़ा-सा स्वप्न-जीवी हो जाएं

 

कभी कहा जाता था नई उम्र की नई फसल। और स्वप्नजीवी युवा भारत की कल्पना से गद्गद हो राष्ट्र निर्माण में लगे युवा निर्माताओं का दृश्य सपनों में देखते थे। इसके नेपथ्य में गीत बजता रहता, ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे।’ और सामान्यजन के समक्ष राहत, संतोष और गर्व भरे चित्र उभरने लगते। अखंड भारत का सन्देश देने वाली जरनैली सड़क दिखती जो अब लकदक हो चार मार्गीय हो सारे भारत को एक सूत्र में जोड़ती है। नये पुलों और बाईपास का निर्माण दिखता जिन्होंने शहरों की भीड़भाड़ से वाहनों को बचा आठ घंटे का सफर चार घंटे का कर दिया।
नज़र आता रेलों ने अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण किया है। वन्दे भारत एक्सप्रैस रेलगाड़ियों ने घन्टों का सफर मिन्टों में तय कर दिया। देश के दूरस्थ कोने भी पास पड़ोस लगने लगे। साइकिल और बैलगाड़ी पर चलता भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए स्पूतनिक गति से आगे बढ़ा है और देखते ही देखते निजी निवेशक देश के गर्व दूसरों के बल पर नवदम्पति सामर्थ्यवान लोगों को मधुयामिनी के लिए अन्तरिक्ष से लेकर चांद की सैर तक का न्यौता देने लगे हैं। छक्कन ने हमें जगाया। बोले, सही है हुज़ूर ये पंचतारा बातें नई हवेलियों वालों के लिए सही हैं, जिनके लिए देश पर आपदा विपदा और महामारी के बादल टूटते हैं, तो अपने बैंक खातों या धनसम्पदा की सामर्थ्य को अरबपति से खरबपति हो जाना सच होता देखते हैं।
किन सड़कों की बात करते हो? बी.एम.डब्ल्यू बड़ी गाड़ियों के लिए आरक्षित सड़कों की बात? अपने पड़ोस की सड़कों को देखो। जो मुख्य जनमार्ग तक मुरम्मत के लिए खुदे थे, आज भी खुदे ही नज़र आते हैं। पड़ोस में सामान्य उड़न सेवा के लिए हवाई अड्डा बना था, उसकी पहुंच सड़क बरसों बीत जाने के बाद उसी शर्मिन्दा और टूटी फूटी हालत में पड़ी है। हर रोज़ कुछ नये गड्ढे इस सड़क पर प्रकट हो जाते हैं। जो वाहन चालकों को दुर्घटनाओं के लिए आमन्त्रित करते नज़र आते हैं। इस हवाई अड्डे से मुख्य उड़ानें तो आपने शुरू कर दी, लेकिन सड़क से वहां तक पहुंचने का हमवार रास्ता नहीं दिया। यह केवल एक सड़क की नहीं हर सड़क की कहानी है। यह सड़कें कागज़ों में मुरम्मत की पूर्णत: दिखाती है और कागज़ों में ही फिर टूट जाती है। इसकी मुरम्मत पूरी होने की तिथियां घोषित होती हैं। ठेकेदार बदले जाते हैं। लेकिन अफसरशाही और इनकी मिलीभगत का तन्त्र इतना सार्थक और सबल है कि कायाकल्प के शोरीले नारों के बीच बदलाव के नाम पर हमारी काया और भी जर्जर हो जाती है।  वैसे लोगों को ऐसे रास्तों पर चलने की आदत हो गई है। बरसों से लोग इन्ही गड्ढों में सफलतापूर्वक अपने वाहन चला रहे हैं। आजकल वक्त बदल जाने के साथ सर्कस और नुमायश में मौत के अंधे कुएं या भीमकाय पिंजरों में मोटरसाइकिल चलाने का खेल व्यतीत हो गया। नहीं तो हमारा विचार है जो लोग इन गड्ढों भरी सड़क पर दक्षता से अपना वाहन चलाते हैं और बच निकलते हैं, उन्हें ऐसे मौत के कुओं में अपना मोटरसाइकिल धड़धड़ाते हुए चलाने में तनिक भी परेशानी न होती।
यही हाल अधूरे पुलों और उन बाईपास का है जिनका बनना बरसों से खत्म नहीं होता। चार दिन की चांदनी की तरह वाहनों को कुछ रास्ता इन पुलों पर मिल जाता है लेकिन टोल टैक्स अदा करने के बाद उन्हें गर्दभरी सेवा सड़कों की वहीं भीड़ भरी व्यथा झेलनी पड़ती है। यह जैसे उन्हें कह देती है कि चिन्ता न करो यह दिन नहीं रहेंगे। एक दिन ऐसा आएगा जब अवाध तुम इस सड़क क्रांति का सुख भोग सकेगा। फिलहाल तुम इसकी संभावना की आशा का आनन्द लो।
सड़क क्रांति ही नहीं यहां रेल क्रांति भी हो गई है। बुलेट की गति से रेलें भागने लगीं हमने उनमें आयातित पुज़र्े लगाकर भी उनका स्वदेशकरण घोषित कर दिया। उन्हें वन्दे भारत रेलगाड़ियां कह दिया। इनके होने का गर्व इतना है कि जब विदेशी पर्यटक इनमें बैठकर दर्शनीय स्थलों की यात्रा करते हैं, तो हम अपनी राजस्व वृद्धि पर गर्वित होते हैं। पर्यटन को अपने सरकारी खजाने की आय का मुख्य स्त्रोत मान लेते हैं।
प्रगति के ये सोपान शिरोधार्य लेकिन हमारे बड़े बूढ़ों ने क्यों कहा कि भाईजान हमें जो रियायती टिकट मिलती थी, जिसने कोरोना की अकृपा ने हमसे छीन लिया गया, मेहरबानी करके उसे तो पुन: जारी कर दीजिए। तीसरे दर्जे की गाड़ियों और उनके शौचगृहों की हालत भी कुछ सुधर जाए। उन्हें तो न हम कल प्रसाधन कक्ष कह सकते थे न आज कह पाते हैं। लेकिन इस देश के तीसरे दर्जे की जनता और कांखते कराहते बूढ़ों की सुध लेने लगें तो हमारी यह गर्वोक्ति बेकार हो जाएगी कि इस विकट समय में भी हम दुनिया की सबसे सक्रिय विकासशील अर्थव्यवस्था हैं तनिक हमारी विकास दर तो देखो। बेशक बहुत तेज़ है यह विकास दर। कितनी तेज़ी से महानगरों में  बहुमंजिली इमारतों ने सिर उठाये क्लब और डिस्को घर की संस्कृति पनपी, जिसमें रहीसज़ादों की नई पौध वैध अवैध नशों में बदमस्त नज़र आती है। नित्य नये अमानवीय अपराधों के कारनामे करती हैं।
इस बीच अंधेरी और गूदड़बस्तियों की संख्या बढ़ गई तो क्या? भविष्यहीन अभागों की आत्महत्याओं की संख्या बढ़ गई तो क्या? उनकी खोज़ खबर तो अनुकम्पा और रियायत की नई घोषणाएं ले ही रही हैं। हमें अभी तेज़ी से स्वचालित उद्योगों का डिजीटल भारत बनाना है। इस भीड़ की खबर बाद में भी ली जा सकती है, बन्धु।