कब सुलझेंगे किसानों के मुद्दे ?

पिछले दिनों से उत्तर भारत के कई राज्यों में हुई बेमौसमी बरसात से किसानों की माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खींच दी है। किसान अनाज खलियानों से निकालकर मंडी ले जाने की तैयारी में हैं। दूसरी ओर जो फसल मंडियों तक पहुंची थी, वह बारिश से भीग गयी। प्रकृति की मार ने किसानों की आशाओं और उम्मीदों पर पानी फेरने का काम किया है। वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग से जो तापमान वृद्धि हुई है, उससे मौसम के मिजाज में तीव्र परिवर्तन आया है। कुल मिलाकर हमारी खाद्य श्रृंखला पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। बारिश की आवृत्ति, उसके समय और गुणवत्ता में बदलाव आया है। बारिश तेज होती है और कम समय के लिये होती है। पिछले दिनों अचानक तापमान में समय से पहले हुई वृद्धि को गेहूं की फसल के लिये नुकसानदायक माना जा रहा था।
पिछले साल भी ऐसा ही हुआ था कि समय से पहले तापमान वृद्धि से भरी-पूरी फसल के बावजूद गेहूं का दाना छोटा रह गया था जिससे उत्पादकता में कमी आई और किसान को नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे में जब बारिश हुई तो कयास लगाये जा रहे थे कि तापमान में कमी आना गेहूं की फसल के लिये लाभदायक रहेगा लेकिन तेज बारिश ने किसानों के अरमान पर पानी फेर दिया है। किसान व हरियाणा में नेता विपक्ष मांग कर रहे हैं कि फसलों के हुए नुकसान का आकलन करके तुरंत किसानों को राहत राशि दी जाये। नि:संदेह, यह वक्त की जरूरत भी है।
पिछले दिनों देश के विभिन्न भागों में किसान आलू-प्याज की भरपूर फसल होने के बावजूद कीमतों में आयी गिरावट का त्रस झेल रहे थे। कहीं सड़कों पर आलू बिखेरने व आलू की फसल पर ट्रेक्टर चलाने की खबरें आ रही थीं, तो नासिक में प्याज उत्पादकों के आंदोलन की सुगबुगहाट थी। वहीं किसान संगठन भी अपनी पिछली मांगों पर केन्द्र का सकारात्मक प्रतिसाद न मिलने के बाद दिल्ली में फिर एकजुट हुए हैं। बहरहाल, बारिश के चलते फसलों को होने वाले नुकसान ने किसानों की मुसीबतें और बढ़ा दी हैं।
ऐसा नहीं है कि किसान केवल बेमौसम बारिश से ही परेशान है। उसकी तमाम दूसरे मुद्दे और समस्याएं भी हैं जिनका निवारण होना जरूरी है। तीन कृषि कानूनों की वापसी के बाद से कृषि-किसानी के मुद्दों पर लगातार बहस हो रही है। पिछले दिनों किसानों की महापंचायत भी हुई और केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के साथ बातचीत भी हुई लेकिन नतीजा ‘शून्य’ रहा। किसानों की उम्मीद भी ‘शून्य’ बताई जा रही है। विगत जुलाई में जो कमेटी गठित की गई थी, उसकी बैठक भी संयोगवश बुलाई गई थी। फिलहाल कमेटी ने 18 राज्यों से पूछा है कि किसानों की स्थिति क्या है? 19 विश्वविद्यालयों से सुझाव मांगे हैं कि किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कैसे तय किया जा सकता है जो उसे लाभकारी साबित हो? एमएसपी को कानूनी दर्जा देने पर अभी तक न तो विमर्श किया गया है और न ही यह कमेटी के एजेंडे में शामिल है। अलबत्ता निष्क्रि य कमेटी ने आश्वस्त किया है कि जून, 2023 में एक रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी जाएगी।
राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में 32 संगठनों के हजारों किसान जुटे, महापंचायत का नाम दिया गया। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर जो खुद छोटे किसान भी हैं, से 15 किसानों के प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात और बातचीत की। यह संवाद 22 जनवरी, 2021 के बाद संभव हुआ है। भारत सरकार और किसानों के बीच लंबे दो साल तक संवाद क्यों नहीं हो सका, यह सवाल चिंतित भी करता है चूंकि एमएसपी का सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा आज भी अनसुलझा है। सरकार और कमेटी दोनों ही खामोश हैं। हाल ही में महाराष्ट्र में प्याज किसानों ने मीलों लंबा मार्च निकाला। एक किसान को 512 किलोग्राम प्याज के दाम मात्र 2 रुपए मिले। एक किसान 1457 किलोग्राम बैंगन मंडी में बेचने आया तो उसी से 125 रुपए वापस मांगे गए।
यानी फसल की कोई कीमत नहीं, बल्कि पैसे किसान के खाते में निकाल दिए। आलू 1-2 रुपए प्रति किलो के भाव से रुल रहा है। चीनी मिलों की चीनी किस भाव बाजार में बिकेगी, सरकार यह घोषणा तो तुरंत कर देती है लेकिन गन्ने का सहयोग मूल्य तय करने में टालमटोल करती रहती है। आखिर देश में किसानों के लिए यह कौन-सी अर्थव्यवस्था है? क्या सरकारें किसानों को खेती से विमुख कर शहरों में मजदूर बनाने पर आमादा हैं? विश्व बैंक की यही योजना है। आखिर एमएसपी ऐसा क्या मुद्दा है जो करीब 50 सालों से अनसुलझा रहा है?
बार-बार दोहराया जाता रहा है कि सरकार के ही आंकड़े हैं कि किसान की औसत आय 27 रुपए रोजाना है। नीति आयोग ने भी लगभग यही माना है। किसी भी देश के लिए यह शर्मनाक और विडंबनापूर्ण स्थिति है। किसान की माहवार औसत आमदनी आज भी 10,000 रुपए से कम है। इस आमदनी में मजदूरी का मेहनताना भी शामिल है। क्या सरकार को एहसास नहीं होता कि उसी के ‘अन्नदाता’ के आर्थिक हालात बदतर हैं? किसानों को दी जाने वाली 6000 रुपए वार्षिक की सम्मान-राशि उनकी औपचारिक आय का पर्याय या विकल्प नहीं हो सकती। 
मौसम विज्ञानी पश्चिमी विक्षोभ के चलते कुछ और दिन बारिश की भविष्यवाणी कर रहे हैं। ऐसे में जहां किसानों को फौरी राहत दिये जाने की ज़रूरत है, वहीं केंद्र व राज्य सरकारों को फसलों हेतु नये शोध-अनुसंधान को बढ़ावा देने की ज़रूरत है जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से होने वाले नुकसान को रोकने में किसानों की मदद करें। नि:संदेह, लगातार मौसम की बेरुखी से किसान के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रही हैं। दूसरे, मंडियों में कृषि उत्पादों के वाजिब दाम न मिल पाने से किसान अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पा रहा है। यह संकट किसानों की आने वाली पीढ़ी को खेती से विमुख करने वाला है। कृषि विशेषज्ञों को चाहिए कि वे ऐसी तकनीक विकसित करें जिससे देश के हर राज्य में मौसम की बेरुखी से होने वाले फसलों के नुकसान से किसानों को बचाया जा सके, अर्थात् जिस तरह मौसम का चक्र  परिवर्तन हुआ है, उसी हिसाब से फसलों को पैदा किया जाए, उनकी खेती की जाए। (युवराज)