बच्चों को एडमिशन दिलवायें, लेकिन समझदारी से!

 

प्राय: यह देखने को मिलता है कि शीतकाल समाप्त होते ही अभिभावकों को अपने बच्चों को किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में एडमिशन दिलवाने हेतु भाग-दौड़ करनी पड़ती है। प्रत्येक अभिभावक की यह इच्छा होती है कि उसका बच्चा अपना अच्छा कैरियर बनाने के लिए ऐसे स्कूल में जाये जहां उसका भविष्य अच्छा बन सके। 
आजकल अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से चलने वाले ऐसे अनेकों स्कूल हर-गली मुहल्ले में खुल गये हैं, जहां बच्चों से उच्च स्तरीय शिक्षा के नाम पर भारी-भरकम फीस वसूली जाती है। यहां तक कि अब स्कूलों में बच्चों को, वही से कॉपी किताब व ड्रेस तक लेने को मजबूर किया जाने लगा है। अधिकांश पब्लिक स्कूलों में यह प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है।
धड़ल्ले से खुलरही ऐसी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा के नाम पर बच्चों के भविष्य की कम लेकिन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने की प्रवृति ही विकसित होती जा रही है। हालांकि इस व्यवस्था से सभी अभिभावक परिचित है, लेकिन वे भी मजबूर हैं। कल तक सरकारी स्कूलों की जो इमेज थी वह तो लगभग अब समापत हो गयी है। इसीलिए निजी शिक्षण संस्थाओं की ओर अभिभावक बेहताशा दौड़ रहे हैं। धनाढ्य परिवार के बच्चों को मंहगे स्कूलों में भेजना तो फैशन बन चुका है, लेकिन उनकी देखा-देखी व होड़ करने में गरीब व मध्यम वर्गीय परिवार भी पीछे नहीं है। साधारण स्कूल में बच्चों को दाखिला दिलवाना तो मानों उनकी शान के विरूद्ध है, लेकिन वे यह नहीं सोचते कि वे किस तरह से अपने घर का खर्चा निकाल कर बच्चों पर बड़ी धनराशि खर्च कर रहे हैं। हालांकि पनवाड़ियों की दुकानों की भांति खुले पब्लिक स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था का आलम है कि वहां न तो पूरी तरह से ट्रेंड व अनुभवी शिक्षक है व न ही वे पूरी तरह ईमानदारी से बच्चों को पढ़ा पाते है। इन स्कूलों में उन बेरोजगार शिक्षकों को रख लिया जाता है, जिन्हें कम तनख्वाह देकर आसानी से स्कूल चलाये जा सकते हैं।
पब्लिक स्कूलों में शुरू से छोटे बच्चे बस्तों के बोझ तले दब कर बाल-मजदूरों से कम प्रतीत नहीं होते है। तिस पर उनका ज्ञान भी शून्य ही रहता हैं। रटे रटाये तोतों की भांति वे पूरी किताबें  याद कर लेते हैं, लेकिन उन्हे अक्षर ज्ञान तक नहीं होता है। ऐसी स्थिति में जब बच्चे का समय-समय पर टैस्ट लिया जाता है तो उसके अंक भी काफी कम होते हैं। वे स्कूल के अध्यापकों द्वारा निर्धारित रिमार्क लगा कर भेज दिये जाते हैं। जब अभिभावक स्कूल आकर शिक्षकों से बात भी करना चाहता है, तो वे सीधे मुंह उनसे बात न करके सीधी ट्यूशन की बात करते है।
बच्चे का साल बर्बाद होने से रोकने लिए अभिभावक मरता क्या नही करता की तर्ज पर या तो ट्यूटर को घर बुला लेता है या फिर बच्चे को उसके घर भेज देता हैं इससे अध्यापकों की पौ बारह बनी रहती है।
प्रश्न यह उठता है कि ये अभिभावक अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर अपने होनहारों का भविष्य स्वयं ही चौपट कर रहे है लेकिन शायद वे इस बात से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं कि बच्चों की जिन्दगी से देखा देखी की होड़ में किया गया खिलवाड़ कितना मंहगा साबित होगा। बच्चों को नि:सन्देह अच्छी शिक्षा दिलवाना माता-पिता का कर्तव्य है, लेकिन जब बच्चा उन स्कूलों में चल ही न पाये, तब कितना बुरा लगता है? 
लेकिन, बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित माता-पिता व घर के अन्य लोग जागरूक समझदार हैं तो वे दूसरों की देखा-देखी हरगिन न करें, बल्कि स्वयं के विवेक से ही, अपने स्तर को देखकर ही बच्चों का एडमिशन दिलवायें। ऐसा न हो कि बिना सोचें समझे आपके द्वारा उठाया गया कदम घर फूंक तमाशा देखने जैसा ही साबित हो। हालांकि यह कोई बुद्धिमता नहीं है कि अंत में रो-धो कर आप अपने बच्चे को फिर किसी साधारण से या सरकारी स्कूल में दाखिला दिलवाने को मजबूर हो जायें व सारा दोष बच्चों के सिर पर मढ़ दे कि ये पढ़ते ही नहीं हैं, आाखिर क्या करते? ऐसी स्थिति देखकर व केवल पड़ोसी ही हंसेंगे बल्कि आपका बच्चा भी मायूस हो जायेगा। हो सकता है कि इसी ऊहापोह में बच्चे का पूरा वर्ष ही बर्बाद हो जाये। 

(सुमन सागर)