कृषि संकट दूर करने के लिए पीएयू में अनुसंधान मज़बूत किया जाए

किसान गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। कृषि से उनकी आय कम हो रही है। गत वर्ष जनवरी में बेमौसमी बारिश तथा मार्च में अधिक गर्मी पड़ने के कारण गेहूं के उत्पादन में कमी आई, जिस कारण किसानों को काफी नुक्सान उठाना पड़ा। इस वर्ष गत मास बेमौसमी बारिश होने से लगभग 40 प्रतिशत गेहूं की फसल ज़मीन पर बिछ गई, जिससे उत्पादन में कमी आई और किसानों को फसल की संभाल तथा कटाई पर अधिक खर्च करना पड़ा। गेहूं की गुणवत्ता प्रभावित होने से उन्हें मंडियों में भी गेहूं बेचने संबंधी मुश्किलें आईं। इससे उनकी आय काफी प्रभावित हुई। साधनों का सही उपयोग न होने के कारण किसानों की शुद्ध आय कम रही है। वे फसल को आवश्यकता से अधिक यूरिया डाल रहे हैं जिससे बीमारियां आती हैं और फिर स्प्रे पर अधिक खर्च करना पड़ता है। पानी का स्तर प्रति वर्ष 100 सैंटीमीटर से अधिक नीचे जा रहा है। बारिश का पानी भूमिगत पानी के स्तर को बरकरार रखने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। पुराने कुएं, तालाब आदि गांवों से गायब हैं। सारा पानी नालियों, नदियों के माध्यम से बह जाता है। बारिश का पानी धरती के भीतर पहुंचता ही नहीं। किसानों को प्रत्येक  वर्ष ट्यूबवैल गहरे करने पड़ रहे हैं, जिससे उनका खर्च बढ़ रहा है। भूमि की उपजाऊ शक्ति कम हो रही है और पानी की ज़रूरत बढ़ रही है। खेतों को लेज़र कराहे से समतल करवाने से पानी की खपत कम हो जाती है और उत्पादन में भी वृद्धि होती है, क्योंकि मुंडेर खत्म हो जाते हैं और बिजाई का रकबा बढ़ जाता है। परन्तु लेज़र कराहा महंगा होने के कारण प्रत्येक किसान इसका इस्तेमाल नहीं कर रहा। सरकार द्वारा भी छोटे किसानों को लेज़र कराहे से भूमि समतल करवाने संबंधी कोई सहायता उपलब्ध नहीं की जा रही। 
सब्ज़ इंकलाब के बाद देश की अनाज की ज़रूरत पूरी करने के लिए धान-गेहूं फसली चक्र ज़ोर पकड़ता गया और आज धान की काश्त के अधीन रकबा बढ़ कर 31 लाख हैक्टेयर से भी पार हो गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि  लाभ के पक्ष से धान की फसल बड़ा महत्व रखती है और इसकी काश्त के अधीन रकबा कम करने की ज़रूरत है, जिसके लिए गत दो दशक से अधिक समय से प्रयास किये जा रहे हैं, परन्तु सफलता नहीं मिली। जब तक धान की काश्त के अधीन 10 लाख हैक्टेयर रकबा कम नहीं होता, ऐसी तकनीकें अपनाने की आवश्यकता है, जिससे पानी की खपत कम हो परन्तु उत्पादन बढ़े। धान का तुरंत उचित विकल्प बासमती है, जिसकी काश्त के अधीन रकबा बढ़ाया जा सकता है। इसका निर्यात बढ़ाने की आवश्यकता है। यह भी सच है कि अब दूसरे राज्य धान तथा बासमती का उत्पादन करके चावल संबंधी पंजाब के अहम योगदान को कम करने में सफल होते जा रहे हैं। गेहूं संबंधी उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश जैसे राज्य पहले ही पंजाब से आगे निकल गए हैं। आल इंडिया राइस एक्सपोर्ट्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष तथा बासमती के निर्यातक विजय सेतिया के अनुसार इस वर्ष उत्तर प्रदेश में बासमती की काश्त काफी ज़्यादा बढ़ने की संभावना है। 
फसली विभिन्नता के पक्ष से खरीफ के मौसम में बासमती के अतिरिक्त मक्की की काश्त बढ़ाई जा सकती है। परन्तु मक्की के लिए पानी की ज़रूरत भी धान से कोई ज़्यादा कम नहीं। सोयाबीन भी योग्य फसल है परन्तु यह पंजाब की फसल नहीं बन सकी। केन्द्र सरकार अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य को भविष्य में खत्म करना चाहती है, इसी के मद्देनज़र भी धान के लाभदायक विकल्प ढूंढने की आवश्यकता है। 
किसान खरीफ में धान की काश्त क्यों नहीं करेंगे जबकि इसकी कीमत तथा मंडीकरण सुनिश्चित है और यह फसल दूसरी फसलों से अधिक लाभ देती है। फिर ट्यूबवैलों के माध्यम से पानी की सुविधा मुफ्त है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को अनुसंधान मज़बूत करके किसानों की आय को बढ़ाने की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। गेहूं की पी.बी.डब्ल्यू.-343 किस्म से कई वर्षों बाद उप-कुलपति डा. सतबीर सिंह गोसल के प्रयासों से पीएयू ने गेहूं की नई सफल किस्म पी.बी.डब्ल्यू.-826 किसानों को दी है। इसी प्रकार अन्य फसलों की लाभदायक किस्में तथा तकनीक किसानों को उपलब्ध करके धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने में पीएयू सहायक हो सकती है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा भी कोई ऐसी तरकीब ढूंढ कर किसानों की आय में उल्लेखनीय वृद्धि करते हुए धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने का प्रयास करने की आवश्यकता है।