समयबद्ध न्याय के लिए उपभोक्ता अदालतें कारगर

‘जागो ग्राहक जागो’ एक ऐसा संदेश है जो सभी को जागरूक करने के लिए प्रेरित करता है। उपभोक्ता के न जागने पर जहां उन्हें शोषित होना पड़ता है, वहीं जागरूक होने पर वह अपने साथ हो रहे अन्याय से बच सकता है। देश में उपभोक्ताओं के हित को सर्वोपरि रखते हुए अनेक प्रयास किए गए हैं, जिनमें मूल्य निगरानी तंत्र को मजबूत करने से लेकर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का उल्लंघन करने वालों पर शिकंजा कसने तक कार्य उपभोक्ता जनजागरूकता अभियान के अंतर्गत किया जा रहा है। उपभोक्ताओं को राहत देने और सुरक्षा प्रदान करने के लिए कई ठोस प्रयास केंद्र व राज्य स्तर पर किए गए। 
उपभोक्ताओं को न्याय प्रदान करने के लिए गठित उपभोक्ता आयोग के पास उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत ऐसी कई विधिक शक्तियां हैं जिनके बल पर उपभोक्ता आयोग पीड़ित व शोषित उपभोक्ता को समयबद्ध न्याय दे सकता है। उपभोक्ता द्वारा न्याय प्राप्ति के लिए दर्ज कराई गई शिकायत पर विरोधी पक्ष यानि जिनके विरुद्ध शिकायत की गई है, वह परिवाद की जानकारी मिलने के 30 दिन के अंदर अपना जवाब या फिर आपत्ति दे सकता है और उपभोक्ता आयोग को उपभोक्ता अधिनियम में उल्लिखित 15 दिनों की निर्धारित अवधि से अधिक के विरोधी पक्ष के लिखित बयान को दाखिल करने में देरी को माफ करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।
इस मामले में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग  के समक्ष विरोधी पक्ष ने 45 दिनों की अवधि के बाद लिखित बयान दाखिल किया। आयोग ने यह कहते हुए देरी को माफ करने से इनकार कर दिया,कि ’उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 13 (1) (ए) के तहत प्रदान किए गए लिखित बयान को दाखिल करने का समय अब उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 38 (2) (ए) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है जो 20जुलाई सन 2020 से लागू है, के तहत जवाबदेही दाखिल करने का समय समाप्त हो गया है। इस आयोग के पास कानून में प्रदान किए गए अनुसार 3-5 दिनों से अधिक की देरी को माफ करने की शक्ति नहीं है।’
इस आदेश के खिलाफ विरोधी पक्ष ने विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर कर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस एम.एम. सुंदरेश ने उंक्त एसएलपी को खारिज करते हुए कहा, ‘यह विवाद में नहीं है कि लिखित बयान 45 दिनों की अवधि से परे दायर किया गया था। फाइल करने की सीमा की अवधि 30 दिन है जिसे केवल 15 दिनों तक ही माफ किया जा सकता है। जैसा कि इस न्यायालय द्वारा इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम हिली मल्टीपर्पज कोल्ड स्टोरेज (पी) लिमिटेड (2020) 5 एससीसी 757 मामले में देखा गया है। ट्रिब्यूनल के पास कानून में उल्लिखित निर्धारित अवधि से अधिक देरी को माफ करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।’
हिली मल्टीपर्पज कोल्ड स्टोरेज प्राइवेट लिमिटेड में, संविधान पीठ ने कहा कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 उपभोक्ता फोरम को 45 दिनों की अवधि से आगे का समय बढ़ाने का अधिकार नहीं देता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 13 के तहत निर्धारित समय अवधि अनिवार्य है। यह भी देखा गया कि शिकायत के साथ नोटिस प्राप्त होने के समय से समय सीमा शुरू होगी, न कि केवल नोटिस भेजने की तिथि से। 
जवाबदावे के लिए समय सीमा का निर्धारण करने के पीछे समयबद्ध न्याय प्राप्त कराना है। उपभोक्ता अधिनियम 2019 उपभोक्ता शिकायतों की सुनवाई को बार बार स्थगित करने के पक्ष में नहीं है लेकिन फिर भी कहीं उपभोक्ता आयोगों में कोरम का अभाव, कहीं वकीलों की हड़ताल तो कहीं उभय पक्षाें में से किसी भी पक्ष द्वारा या फिर दोनों पक्षाें द्वारा बार- बार तारीख लेने की प्रवृति के चलते उपभोक्ता शिकायतों के निस्तारण में देरी हो जाती है, जिसमें सुधार की आवश्यकता है।
डा. ए. सुरेश कुमार बनाम अमित अग्रवाल में अदालत ने माना कि संविधान पीठ द्वारा घोषित उपभोक्ता कानून उपभोक्ताओं को न्याय के लिए संचालित होता है। इस कानून के अंतर्गत सेवानिवृत्ति लाभ या नौकरी समाप्ति के बाद मिलने वाले लाभों के लिए उपभोक्ता अदालतों का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता। ई.पी.एफ. को छोड़कर सेवानिवृत्ति के लाभ से जुड़े मामले उपभोक्ता कानून के दायरे में नहीं आते। राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने पूर्व बैंक कर्मी कोंडारेड्डीगारी आदिनारायणारेड्डी की पुनरीक्षण याचिका को सुनवाई योग्य न पाते हुए यह अभिमत व्यक्त किया, जिसमें याचिकाकर्ता ने उपभोक्ता आयोग से ग्रेच्युटी के साथ ही प्राविडेंट फंड में बैंक द्वारा जमा कराया गया हिस्सा दिलाने की मांग की थी हालांकि आयोग ने शिकायतकर्ता को सक्षम ट्रिब्यूनल या सिविल कोर्ट जाने की छूट दी है।  शिकायतकर्ता ने ग्रेच्युटी और प्राविडेंट फंड में बैंक की ओर से जमा कराया गया हिस्सा दिलाने की मांग करते हुए ज़िला उपभोक्ता आयोग में शिकायत की थी। जब उसकी याचिका खारिज हो गई तो वह राज्य उपभोक्ता आयोग गया। वहां से भी उसे राहत नहीं मिली। इसके बाद मामला राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग आया। दोनों निचले आयोगों पर पूर्व बैंक कर्मी की याचिका तो खारिज कर दी गई थी, लेकिन बैंक द्वारा याचिका की सुनवाई के क्षेत्राधिकार को लेकर उठाई गई आपत्ति पर विचार नहीं किया था।
सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों में कहा गया है कि ई.पी.एफ. के मामले उपभोक्ता कानून के दायरे में आते हैं। ये दो फैसले शिव कुमार जोशी और रीजनल प्राविडेंट फंड बनाम भवानी हैं जबकि दो अन्य फैसले भी हैं, जिनमें जगमित्तर सिंह भगत और श्रीपत राव कामडे के केस हैं, जिसमें कहा गया है कि सरकारी कर्मचारी के सेवा संबंधी मामले उपभोक्ता कानून के तहत नहीं आते क्योंकि वे उपभोक्ता की परिभाषा में नहीं आते। इनके लिए शिकायतकर्ता को सक्षम सर्विस ट्रिब्यूनल या सिविल कोर्ट जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक इंप्लाई प्राविडेंट फंड योजना तो उपभोक्ता कानून के दायरे में आएगी लेकिन प्राविडेंट फंड और अन्य सेवानिवृत्ति लाभ का मामला उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में नहीं आता। इसलिए उपभोक्ताओं को उपभोक्ता आयोग में शिकायत दर्ज कराने से पहले स्वयं के उपभोक्ता होने के बारे में सुनिश्चित हो जाना चाहिए।

(युवराज)