रुपये में भुगतान का मामला रूस के पीछे हटने से भारत को लगा बड़ा झटका 

 

रूस अब अपने तेल, हथियार और दूसरी चीज़ों का भुगतान रुपये में लेने के लिए तैयार नहीं है। कई महीनों की बातचीत के बावजूद रूस नहीं माना और अब यह अंदेशा जताया जा रहा है कि सरकार के रुपये को अंतर्राष्ट्रीय करंसी बनाने के प्रयासों को बड़ा झटका लगेगा। डॉलर के ऊपर अपनी निर्भरता कम करने के लिए सरकार के कई देशों के साथ रुपये में कारोबार करने की पेशकश के जवाब में दावा है कि 35 से ज्यादा देश इसके लिए राज़ी हैं, परन्तु फिलहाल विदेशी व्यापार में रुपये में भुगतान अब भी बहुत सीमित है। सिर्फ  रूस से भारी मात्रा में तेल, कोयला और हथियारों के लिए रुपये का भुगतान ही उल्लेखनीय था। इसीलिये यह आंकना कि महज रूस से रुपये में कारोबार न होने से भारतीय रुपये का रुतबा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बहुत कम हो जायेगा, कुछ तार्किक तो लगता है पर क्या रुपये के रुतबे पर इतना असर पड़ेगा? 
जिस रुपये को जिम्बाब्वे को छोड़कर किसी भी दूसरे देश द्वारा ‘लीगल टेंडर’ अर्थात वैधानिक मुद्रा का दर्जा नहीं दिया है, उसकी फिर भी ताकत उत्तरोत्तर बढ़ती बताई जा रही है। सवाल है क्या पूर्ण परिवर्तनीयता के अभाव तथा अंतर्राष्ट्रीय निर्यात में भी कम हिस्सेदारी (सिर्फ़  दो फीसदी) होने जैसे दुर्बल पहलुओं के बावजूद भारतीय रुपया कुछ ही बरसों में दुनियाभर में ग्लोबल रिज़र्व करंसीज़ में से एक बन जायेगा? अथवा रूस ने जो ज़ोर का झटका धीरे से दिया है, इससे वह इस कदर टूट जायेगा? क्या रूस से रुपये में विनिमय, मात्र वायदे और आश्वासन के आधार पर हुआ था? रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोफ  ने अब तेल का भुगतान रुपये में न लेने की बात साफ  कर दी है। जाहिर है इससे भारतीय अर्थनीति और अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा है और इसके नुकसान भी हाेंगे। इससे सबक लेकर क्या इस तरह के सौदों की वैधानिकता सुनिश्चित करने के बारे में सरकार विचार करेगी? 
फिलहाल इस नुकसान से निपटने का वैकल्पिक रास्ता क्या हो सकता है, वह अभी सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने नहीं बताया है। परंतु सरकार इस समस्या और आर्थिक नुकसान से उबरने के रास्तों पर अवश्य विचार कर रही होगी। असल दिक्कत है कि देश में बढ़ती प्रचारप्रियता ने अर्थ और वित्तीय मसलों को भी अपने दायरे में ले लिया है। आये दिन इस बात का ढिंढोरा तो पीटा जाता है कि हम विश्व की ताकतवर अर्थव्यवस्था से और ताकतवर बनते जा रहे हैं। हमारा रुपया मज़बूत है और दूसरी मुद्राओं के मुकाबले कम गिरा है, 64 देश भारत के साथ रुपये में कारोबार, लेनदेन को इच्छुक हैं, बहुत-से देश यह जानना चाहते है कि भारत ने वैश्विक मुद्रा बाज़ार आयात-निर्यात के क्षेत्र में रुपये के इतनी प्रमुखता के साथ कैसे स्थापित किया? मगर जब बात इस तरह के संकट की आती है, तो सरकार और वाहवाही बटोरने वाली वितीय संस्थाएं चुप्पी साध जाती हैं। फिलहाल हम रूस को डालर में नहीं बल्कि दिरहम में भुगतान कर रहे हैं। 
संयुक्त अरब अमीरात की यह मुद्रा भी डॉलर के ही आसपास है। रूस की मांग है कि उसको दिरहम की बजाय चीनी मुद्रा युवान में भुगतान किया जाए। अब युवान भारत के लिये ज्यादा महंगा पड़ेगा, क्योंकि भारतीय रुपया पूरी तरह परिवर्तनीय नहीं है, सो पहले तो मुद्रा महंगी फिर इसका चार्ज भी अलग से। आगे चलकर इसका असर यह होगा कि डॉलर में लेन-देन बढ़ेगा जिसका असर सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में बढ़ोत्तरी के रूप में आमजन पर असर डालेगा और विदेशी मुद्रा भंडार की कमी और दूसरी कई वित्तीय उलझनों के तौर पर सरकार और उसके वित्तीय प्रदर्शन पर। लेकिन जो संस्थाएं इनके लिये आधिकारिक तौर पर सलाह,सुझाव तथा समस्या के निराकरण के लिये बनी हैं, वे कोई सकारात्मक और व्यावहारिक समाधान सामने नहीं लातीं।  यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के समय रूस ने ही भारत को रुपये में सौदा करने के लिए प्रोत्साहित किया था। आरबीआई ने पिछले साल जुलाई महीने में डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए रूस समेत कई अन्य देशों से रुपये में व्यापार समझौते का प्रस्ताव रखा था। जिसे रूस ने स्वीकार भी कर लिया था और आरबीआई ने रूसी बैंकों को भारत में वोस्ट्रो अकाउंट खोलने की अनुमति भी दे दी थी। 
लेकिन तब रूस संकट से घिरा था। अमरीका द्वारा स्विफ्ट मैसेजिंग सिस्टम से रूसी बैंकों को बाहर कर दिया गया था, इसलिए डॉलर समेत कई करंसी में रूसी कारोबार का लेनदेन बंद हो गया था। युद्ध में फंसा और अमरीकी प्रतिबंधों में जकड़े रूस को अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने के लिये कमाई चाहिए थी, उसने चालाकी के साथ सस्ते तेल, कोयले वगैरह को रुपये में भुगतान का चारा डाला। भारत को उसकी मौकाप्रस्त दयानतदारी को भांपना चाहिए था। रूस की नियत साफ  होती तो जब उसके वादे के मुताबिक भारतीय बैंक वोस्ट्रो एकाउंट खोल रहे थे, उस समय उसने भारत को अपनी परेशानी बतानी चाहिए थी। यह बात उसे तभी क्यों याद आयी जब आयात बढ़ने से उसका ट्रेड सरप्लस बढ़ गया, उसके पास 40 अरब डॉलर के बराबर रुपया जमा हो गया है, जिससे उसे कुछ खरीदना मुश्किल हो गया है और उसको कंवर्जन चार्ज देकर दूसरी मुद्रा में बदलना खासा महंगा है। रूस सस्ते में और रुपये में भुगतान के वादे पर तेल दे रहा था, सो अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए रूस से सस्ता तेल और कोयला खरीदना, आयात बढ़ाना और रुपये में भुगतान की आसानी के लिये वहां दर्जनभर वोस्ट्रो खोलना उचित फैसला था? 
युद्ध से पहले भारत के आयात बास्केट में रूसी तेल की हिस्सेदारी सिर्फ एक फीसदी थी, ये हिस्सेदारी बढ़कर 35 फीसदी पर पहुंच गई। रूस से भारत का आयात तकरीबन 11 अरब डॉलर से बढ़कर 51 अरब डॉलर से ज्यादा पहुंच गया। दावा यह कि भारत ने रूस से सस्ता तेल ख़रीदकर 35 हज़ार करोड़ रुपए बचाए। इस सस्ते तेल की खरीदारी के चलते देश की रिफाइनरीज को बहुत काम मिला और पेट्रोलियम उत्पाद तेज़ी से यूरोपीय बाजार में पहुंचे। पेट्रोलियम उत्पादों का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता बन कर भारत ने कमाई भी की। कोयला खरीद में भी भारत ने लाभ उठाया पर क्या यह दावा तब भी सही होगा, जब भारत दिरहम में भुगतान कर रहा हो और तब भी जब भारत को युवान में भुगतान करना पड़ेगा। स्पष्ट है कि भारत को भारी भरकम भुगतान करना है। वह भी दूसरी करंसी में। ये सभी मुद्राएं रुपए से ज़्यादा महंगी है, इसलिए भारत की देनदारी की रकम और बढ़ जाएगी। 
यह भारत के विदेशी मुद्रा भंडार के लिए नुकसानदेह है। बेशक भारत की आर्थिक दिक्कतें और बढ़ेंगी। क्या रूस के वायदे और रुपये में भुगतान के प्रोत्साहन की बात को सौदे से पहले किसी अंतर्राष्ट्रीय दिपक्षीय संधि अथवा वैधानिकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता था? उस समय जब इस तरह के सौदे रूस की मजबूरी और आवश्यकता थी, तब भारत ने उन परिस्थितियों का लाभ क्यों नहीं उठाया? बेशक अब रूस के इन्कार से भारत के पास उसकी मांग मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और इसमें भारत का भारी आर्थिक नुकसान है परन्तु यह वित्तीय संस्थानों लिये एक सीख का काम भी करेगा।

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