कुर्सी की दौड़

 

दक्षिण के राज्य कर्नाटक में हुए चुनावों में कांग्रेस को जो बड़ी विजय प्राप्त हुई है, उसे देखते हुए यह प्रभाव अवश्य बनता है कि आगामी वर्ष में होने जा रहे लोकसभा चुनावों से पहले यदि इस वर्ष के अंत तक होने वाले पांच और राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस कर्नाटक की भांति ही अच्छी कारगुज़ारी दिखाती है, तो वह भाजपा का मुकाबला करने में समर्थ हो सकती है। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि अब तक भाजपा देश में जितनी बड़ी शक्ति बन कर उभर चुकी है, जिस प्रकार का बड़ा ताना-बाना उसने बुन लिया है, उसे देखते हुए फिलहाल कोई भी अन्य एक पार्टी अकेले तौर पर उसका मुकाबला नहीं कर सकती। ऐसा तभी संभव है, यदि देश की अन्य राष्ट्रीय तथा प्रांतीय प्रभावशाली पार्टियां एक मंच पर इकट्ठे होकर चुनाव मैदान में उतरें। इस संबंध में कुछ नेताओं द्वारा यत्न भी आरंभ किए जा चुके हैं।
बिहार के नितीश कुमार के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसके लिए काफी सक्रिय रही हैं, परन्तु फिलहाल ऐसी एकता हो सकना अधिक आसान नहीं प्रतीत होता। इसका एक बड़ा कारण राजनीतिज्ञों का अहंकार है, जिस कारण वे स्वयं को दूसरों से बड़ा समझते हैं। पार्टियों  के भीतर ऐसा अहं ऊपर से नीचे तक देखा जा सकता है, क्योंकि आज बहुत-से भारतीय राजनीतिज्ञों ने राजनीति को अपनी जागीर या दासी होने का भ्रम पाल लिया है। इसीलिए ही उनमें से बहुसंख्यक अपने-अपने परिवारों को ही शिखर पर देखना चाहते हैं। उन्हें यह प्रतीत होता है कि राजनीति उनकी ऐसी जागीर है जिस पर उनके पारिवारिक सदस्यों का ही अधिकार है। पिछले लम्बे समय से पाली गई ऐसी मानसिकता के कारण ही वे पारिवारिक चक्र-व्यूह में फंसे दिखाई दे रहे हैं। यहीं बस नहीं, आज बहुत-सी पार्टियों के अंदर अनुशासन की भी बड़ी कमी दिखाई देती है। इसका बड़ा कारण भी कुर्सी पर बैठे नेताओं द्वारा अपने सभी साथियों को साथ न लेकर चलना है। उत्पन्न हुई ऐसी तानाशाही रुचियों के कारण पार्टियों में भी बड़ी घुटन पैदा हुई दिखाई देती है। कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन इसमें भी अनुशासन की कमी सबसे ज्यादा दिखती है। इसका एक कारण दशकों से इस पर एक परिवार का कब्ज़ा होना माना जा सकता है। इस परिवार के विरुद्ध समय-समय पर पार्टी में ब़ागी स्वर भी उठते रहे लेकिन वे किसी भी तरह अपना प्रभाव न दिखा सके, जिसके कारण यह पार्टी बहुत हद तक सिकुड़ती चली गई। यदि इसको किसी राज्य में प्रशासन चलाने का मौका मिला भी तो इसके नेताओं के आंतरिक मतभेदों और राजनीतिक लालसा के कारण पार्टी की बनी सरकारें प्रभावशाली साबित नहीं हो सकीं।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन नेताओं के अंदरूनी टकराव के कारण यह बीच में ही लुढ़क गई। आज राजस्थान में भी जहां कुछ महीनों तक चुनाव होने जा रहे हैं, प्रशासन चला रही इस पार्टी में बड़े स्तर पर विघटन पैदा हो चुके हैं, जो समय-समय पर छोटी-बड़ी ब़गावत का रूप भी धारण कर जाते हैं। पंजाब में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की सरकार के समय जो कुछ हुआ-बीता, उसका सबको पूरा एहसास है। यह भी एक बड़ा कारण था कि उसको पिछले विधानसभा चुनावों में निराशाजनक हार का मुंह देखना पड़ा। आज यह पार्टी बहुत शान से कर्नाटक का चुनाव जीत चुकी है लेकिन सरकार बनने से पहले ही वहां भी नेताओं की कुर्सी के लिए खींच-तान और आपा-धापी सामने आना शुरू हो चुकी है, जिसने अभी से ही इसके नेताओं की कमज़ोरियों को उजागर करना शुरू कर दिया है। पैदा हुई ऐसी स्थिति आने वाले समय में भी मध्य प्रदेश की तरह इसकी कमज़ोरी साबित हो सकती है। इस बात को आज कांग्रेस की त्रासदी ही कहा जा सकता है।        

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द