कार्बन डेटिंग से हल नहीं होगा ज्ञानवापी मामला

 

अदालत ने आस्था और इतिहास के निर्णय को विज्ञान के हवाले कर दिया है। अब वैज्ञानिक जांच-पड़ताल के बाद यह फैसला होगा कि वजूखाने से निकली प्रस्तरीय आकृति मुस्लिम पक्ष के अनुसार फव्वारा है या हिदू पक्ष के दावों के मुताबिक प्राचीन शिवलिंग। अदालत का यह फैसला सैद्धांतिक तौरपर न्यायोचित और न्यायसंगत है पर व्यावहारिक स्तर पर इसमें कुछ दिक्कतें आ सकती हैं। हालात यह है कि वैज्ञानिक परीक्षणों का कार्य विधिवत आरंभ हो इसके पहले ही हिंदू पक्षकारों में से एक कहने लगा है कि वह वैज्ञानिक जांच नहीं चाहता। जो पक्ष वैज्ञानिक जांच से सहमत है उसमें से भी कुछ लोगों ने कहा है कि वे वैज्ञानिक जांच की एक प्रक्रिया विशेष कार्बन डेटिंग से सहमत नहीं हैं और उन्होंने अदालत से इसकी मांग भी नहीं की थी। एक पक्ष को वैज्ञानिक जांच से इस मामले के उलझने और लंबा खिंचने का भय है तो दूसरे को इस जांच के दौरान शिवलिंग के क्षतिग्रस्त होने का। दोनों पक्ष जब तक इस संदर्भ में कोई नई याचिका नहीं डालते और वह अदालत द्वारा सुनवाई के लिये स्वीकार नहीं की जाती, अदालत अपने पुराने फैसले को वापस नहीं लेती इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उसी आदेश का ही पालन होगा जिसके तहत विवादित आकृति की प्राचीनता, उसके संघटक और प्रकृति का निर्धारण होना है। 
विवादित आकृति की जांच 5 वैज्ञानिक तरीकों से हो सकती है। इसमें से दो प्रमुख हैं जीपीआर ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार और दूसरा कार्बन डेटिंग। देश में कार्बन डेटिंग के लिए एक्सिलरेटेड मास स्पेक्ट्रोमेट्री, ऑप्टिकल स्टिमुलेटेड ल्युमिनेसेंस और थोरियम-230 डेटिंग का ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जाता है, टाटा इंस्टिच्यूट ऑफ  फंडामेंटल रिसर्च तथा बीरबल साहनी इंस्टिच्यूट ऑफ  पैलियोसाइंस, लखनऊ के अलावा फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद और मुम्बई विश्वविद्यालय में ये सुविधाएं मौजूद हैं और जहां तक जीपीआर की बात है इसका प्रयोग करने में हमारे भूगर्भ वैज्ञानिक काफी अनुभवी हैं।
 अदालत ने अपने असमंजस की गेंद विज्ञान के पाले में डाल तो दी है पर क्या विज्ञान इसके समुचित और सम्पूर्ण समाधान में समर्थ भी है? न तो जीपीआर सर्वे का परिणाम इस विवादित आकृति के बारे में पूर्ण सत्य उद्घाटित कर सकता है और न कार्बन डेटिंग से मिले परिणाम को शत प्रतिशत शुद्ध माना जा सकता है। कार्बन डेटिंग के तहत वस्तु में कार्बन 12 और कार्बन 14 के अनुपात की गणना और उसके आधार पर उसकी उम्र का निर्धारण होता है। यदि शिवलिंग या फव्वारा पत्थर का बना है तो कार्बन डेटिंग संभव नहीं। जहां जैविक वस्तु नहीं वहां कार्बन नहीं और कार्बन नहीं तो कार्बन डेटिंग का प्रश्न ही समाप्त। यदि पत्थर अपनी निर्माण प्रक्रिया में कुछ वानस्पतिक अंशों को अपने भीतर समेट ले तो कार्बन 12,13 और 14 की मौजूदगी हो सकती हैं। कार्बन 12 और 13 स्थाई होते हैं जबकि कार्बन 14, तकरीबन 5730 सालों बाद क्षरित होते होते आधा ही बचता है। इसमें भी 40-50 साल की गणना तृटि संभव है। मान लिया जाए कि कथित शिवलिंग में कार्बनिक चीजें हैं और उसके कार्बन 14 की गणना करके कार्बन 12 के साथ उसके अनुपात का पता लगा भी लिया जाता है तो उसकी उम्र का निर्धारण हो सकता है। 
लेकिन यह तो उस पत्थर की उम्र का निर्धारण हुआ जिससे वह कथित शिवलिंग बना है। यह किस प्रक्रिया के तहत कब बनाया और उसके  बाद कब उसे स्थापित किया गया, इसका पता नहीं चलेगा। अतिशय आशावादी होते हुए हम यह मान भी लें कि पत्थर में कार्बन मिले और उसके चलते इस तकनीकी के जरिये आकृति के निर्माणकाल का सामान्य निर्धारण भी हो जाए तब भी इस नतीजे को इस तर्क से अवश्य जूझना होगा कि कार्बन डेटिंग पूर्णतया शुद्ध आकलन नहीं है, कार्बन 12 और कार्बन 14 के अनुपात को कई बार बदलता देखा गया है। इसे सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। पिछले कई वर्षों में धरती पर विकिरण की मात्रा बढ़ने से यह अनुपात गड़बड़ाया है, जिसके चलते कार्बन 14 जिस दर से क्षरित होता है, उसमें अंतर आया है और तो और कार्बन 14 क्षरित होने के साथ 20 से 28 फीसदी की दर से दोबारा संग्रहित हो सकता है। यदि इस गणित के हिसाब से सब जोड़-घटाकर कोई निष्कर्ष निकाला भी जाए तो यह कुछ सौ सालों के भीतर के नजदीकी मामलों में बहुत आश्वस्तकारी और सटीक परिणाम दे, यह संभव नहीं होगा। 
कार्बन डेटिंग के लिए बहुत आवश्यक है जांच की जाने वाली वस्तु का नमूना लिया जाए, ऐसे मामले में तो कई नमूनों की आवश्यकता हो सकती है क्योंकि पत्थर ने अपनी निर्माण प्रक्रिया के किस हिस्से में वानस्पतिक अंश समेटा है यह पता नहीं हो सकता। यहां उक्त आकृति का एक ही नमूना नहीं लिया जा सकता तो भीतर से या कई नमूने उठाना असंभव है। हिंदू पक्षकार स्वीकार नहीं करेंगे, आस्था के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी है जिसके तहत उच्च न्यायालय ने भी आदेश दिया है कि जांच की जाने वाली वस्तु को कोई क्षति न पहुंचे। कुल मिलाकर आकृति को अक्षत रखते हुए कथित शिवलिंग को ही एक नमूना मानकर उसकी कार्बन डेटिंग करना अत्यंत दुरुह है।
 जीपीआर या ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार से जांच के दौरान तरंगों के जमीन के नीचे भेजा जाता है, सतह के नीचे जो आकृतियां, वस्तुएं होती हैं उनसे टकराकर वापस आती है और उसके वापस आने में लगे समय और उसकी बदली हुई प्रकृति के अनुरूप यह पता लगाया जाता है कि है ज़मीन के नीचे वह आकृति कितनी गहराई तक है और उस गहराई में उसके आसपास किस प्रकृति की कौन-कौन सी चीजें मौजूद हैं। इससे उस आकृति की उम्र व वह किन चीजों से बना हुआ है का सटीक पता लगाना मुश्किल है। महज गहराई, लंबाई, चौड़ाई जानी जा सकती है। तो इस तरह एक विधि पूर्ण नहीं तो दूसरे की संभाव्यता पर संकट है। यदि संभव हो भी जाए तो उसकी सटीकता पर सवाल उठ सकते हैं। हिंदू पक्ष शुरुआत से ही वजूखाने से मिली आकृति को शिवलिंग बता रहा हैं, इतिहास में इसके कई पुख्ता सबूत हैं। वह वैज्ञानिक जांच की भी मांग कर रहे हैं, यह इसलिये भी कि एक बार यह शिवलिंग और उसकी प्राचीनतम वैज्ञानिक रीति से सिद्ध होने के बाद उन्हें सदैव के लिये इस परिसर में पूजापाठ का अधिकार मिल जायेगा लेकिन यह भी ध्यान न में रखना होगा कि यह अत्यंत जटिल प्रक्रिया है, इससे मूल मुद्दा श्रृंगार गौरी में  अर्चना के अधिकार की लड़ाई बहुत पीछे छूट जायेगी और वैज्ञानिक जांच तथा सटीकता के निर्विवाद निर्धारण में मामला पीढ़ियों तक लम्बित रह सकता है। 
 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर