‘मेंढकों की बारात’

आजकल रोटी-रोज़ी से बड़ा संकट टपोरी भाषा के इस्तेमाल का पैदा हो गया है। देश भक्ति के गीत लिखते-लिखते लोग अगर आपको कहें, कि तेरी भूख की ऐसी की तैसी। उसकी खोज ़खबर तो सम्पदावान लोगों का दया-धर्म और रियायती लंगर ले रहे हैं। इसलिए इसे छोड़ो, आओ हमारे साथ मिलकर अपने गरिमा पूर्ण इतिहास की ़खबर लें। जो भाये इस ़खबर, उस पर ऐसे अर्थ आरोपित करें। शहरों, सड़कों से लेकर राष्ट्रीय भवनों का नया नामकरण करें, और देश के करोड़ों लोगों का इस नव-जागरण की खुशबू से इधर-उधर आप्लावित कर दें।
जी हां, हम इस खुशबू से गहगहा रहे हैं। अपने-अपने आइनों में हमें अपने निरीह चेहरों की नई पहचान मिली है। आंकड़ों की जो कीर्ति पुंज जैसे फसल हमें परोसी जा रही है, आजकल उससे मन-गहगहा कर जयघोष हो जाता है। अभी पढ़ा विदेशों में, चचा सैम के देश में भी लोग खुश और उत्साह से परिपूर्ण होने के लिये बनावटी उत्सव मनाने के बहाने पैदा कर रहे हैं। शादियां करते नहीं, बच्चे पैदा करने पर कर्फ्यू लगा रहे हैं, लेकिन खुश रहने के लिए बनावटी शादियों और नवजन्म के आभास के उत्सव मना लेने का बचाव मार्ग तलाश रहे हैं। आखिर अमीर से अमीर हो जाने की इस दौड़ में अपने घर ज़िन्दगी, खुशी और उत्साह लाने का कोई बचाव मार्ग तो होना चाहिये न।
बेशक अपने देश में ऐसा कोई संकट नहीं। यहां सार्वजनिक रूप से सम्पन्नता बटोरने की आम लोगों मेें हिम्मत कहां। यहां तो आलम यह है कि मुट्ठीभर लोग हर आपदा को भुना कर भी धन बटोरने के नये मीलपत्थर पैदा कर रहे हैं और ़गरीब का बेटा आजकल फटीचर पैदा हो रहा है, ़गरीब नहीं। ऐसे माहौल में उसके खाते में अपने आप पैसे आ जाने, बिना मांगे पैन्शन लग जाने, और रियायतों के नाम पर नई रेवड़ियां बांट देने की परम्परा उसे असीम खुशी प्रदान कर जाती है। इसके लिए बनावटी उत्सव मना लेने का वातावरण पैदा करने की ज़रूरत क्या? इस देश के लोग तो हैं ही उत्सव धर्मी। शोभायात्राओं में ज़िन्दाबाद का प्रवाह उनकी रग-रग में दौड़ता है। इसलिए उनकी हर जन-यात्रा अपने स्वनाम धन्य नेताओं की आरती हो जाती है, और उनकी हर घोषणा, हर दावा, और हर नारा उन्हें उनका आकाश से उतरा प्रवचन लगता है।
सर्वेक्षक हैरान हैं कि इस देश के अधिकांश लोग आज भी अपने नेताओं में समर्पण बोध पाते हैं। और उनके हर सम्बोधन को उद्बोधन मान कर उसमें से किसी दैवी चमत्कार की उम्मीद करते हैं। यहां आम आदमी क़ाफका की कहानी ‘कायाकल्प’ की तरह अपने आपको पौन सदी की आज़ादी में प्रगति को अपनी आधी-अधूरी और अंधेरी बस्तियों में तरक्की को मेंढक की उछलकूद की तरह बढ़ते हुए पाता है। फिर भी सत्तादरबारों की भ्रष्टाचार की ज़ीरो टालरैंस की प्रतिबद्धता में विश्वास कर लेता है। वह इस ़खबर के पास भी नहीं फटकता कि पिछले बहुत-से बरसों से हम भ्रष्टाचारी देश के सूचकांक में और भी निम्न स्तर पर चले गये हैं। हर सत्तासीन चेहरा जब सत्ता से विमुक्त होता है, तो विमुक्त होते ही अपने चेहरे को भ्रष्ट आचार के आरोपों से लिबड़ा पाता है, लेकिन अगर आप सत्तासीन चेहरों का नकाब हटाने का साहस कर लें, तो वहां भी वही जुड़वां चेहरे आपकी अभ्यर्थना करते हैं। अपनी संस्कृति की नई पहचान का अभियान हमने अवश्य चलाया है, लेकिन पहचान के इस रास्ते पर हमने पाया कि हर सुविधा केन्द्र को असुविधा केन्द्र पा वहां से निष्कासित आमजन यही कह रहा था, कि बंधु यहां सब चलता है। सहज कामकाज के नाम पर दफ्तरशाही के बाहर आंख दबा बात करने वाले मध्यजनों के झुंड खड़े हैं, जो बार-बार आंख दबा कर आपसे बात करते हैं, और चांदी के चमरौधे जूते की सहायता से आपका काम पलक झपकते ही करवा देने का भरोसा देते हैं।
बाहर देश के लिए मूल आर्थिक ढांचे का निर्माण शुरू कर देने के वायदे के साथ देश की तरक्की का अमृतमहोत्सव मनाया जा रहा है। विकसित देश की परिभाषा को दुल्हन बना ले आने के वायदे के साथ लोग कर्म अथवा कर्त्तव्य पथ पर अपनी बारात सजा रहे हैं। वे निरंतर आगे बढ़ते हैं, कर्मवीरों के शीर्षकों के साथ, लेकिन उनकी पग-पग आगे बढ़ती यात्रा से मेंढकों की बारात की उछलकूद का आभास क्यों होता है? यहां तो कट्टरता से अतिकट्टरता टकरा रही है। शार्टकट संस्कृति की मंज़िलों पर आपाधापी टकराव के विजयध्वज लगे हैं। जो तोरणद्वार सजे हैं, उनमें नेताओं के वंशज परिवारवाद को गाली देते हुए, अपने आपको अपवाद घोषित करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। लोकतंत्र की मौलिक शक्ति है आपका बेधड़क मतदान। इसके लिए रेवड़ियां बांटने की प्रतियोगिता न करो, न्यायपालिका कहती है। इसे स्वीकार करते हुए भी राजनीतिक दल अपने चुनावी एजेंडे को रियायती घोषणाओं से सजाते हैं, और इसे जन-कल्याण का नाम देते हैं। आखिर जन-कल्याण का यह कारवां तो चलता रहना चाहिए न।