मैं गद्दार तो नहीं हूं!

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

उन्होंने जूनियर कमिशंड अफसर जैसे लगते एक युवक की ओर देख कर कहा—सर्च, एंड गेट हिम आऊट। तभी इशारा पाकर एक अन्य जवान ़फहीम यार खां की पीठ पर बंदूक रख कर उसे बाहर की ओर ले गया। कमिशंड अफसर ने बहुत जल्दी, और चीते जैसी आंखों को पूरे कमरे में घुमाते हुए आल्मारी की ओर देखा, और फिर फुर्ती से आगे बढ़ कर उसमें से ़फहीम यार खां का पिस्तौल निकाल लिया।
तभी ़खातून अफसर का इशारा पाकर कमरे में मौजूद सभी फौजी एक-एक कर कमरे से बाहर चले गये। कमरे में अब वह और ़खातून अफसर दोनों ही रह गये थे। उसने अफसर को अपना अदब-ओ-आदाब ज़ाहिर करने की खातिर कुर्सी से उठना चाहा था, कि तभी ़खातून अफसर ने उसी छड़ी से उसे बैठे रहने का इशारा किया था।
—कौन हो तुम, और तुम्हारा नाम क्या है? वह ़खातून अफसर भी अब कुर्सी पर बैठ गई थीं।
—मेरा नाम आयशा है,... आयशा परवेज़। उसने पहली बार अपनी आंखों को ऊपर उठा कर उस ़खातून अफसर की  ओर पूरी नज़रों से देखा था। उसकी आंखों में आंसू थे। उसने अपने हाथ जोड़े थे और फिर खुद ही रुक-रुक कर कहना शुरू किया था—
‘लिख लीजिये ब़ेगम अफसर साहिबा, मेरा यह ब्यान, कि सचमुच, मैं ़गद्दार तो किसी भी सूरत नहीं...न देश-कौम के तईं, और न ही अपने वतन या अपने लोगों के तईं, किन्तु गुनाह तो मुझसे हुआ है... बहुत बड़ा गुनाह, हालांकि इस गुनाह का खमियाज़ा भी मैंने भुगता है, अब तक भी, और शायद आगे भी भुगतना पड़ सकता है, लेकिन मोहतरमा, यह जो कुछ हो गया है, और जितनी जल्दी हो गया है, यह अभी भी मुझे ह़क़ीकत से परे की बात लग रही है।
‘अभी दो ही दिन तो हुए हैं...जब अश़फाक ने बैंतों से मेरे बदन की खाल उधेड़ी थी, किन्तु अल्लाताअला मेरे दर्द और मेरी गुज़ारिश को इतनी जल्दी कबूल कर लेंगे, यह तो मैंने कभी ख़्वाब में भी नहीं सोचा होगा...।’
वो जो सवेरे...कच्चे बादाम पर लपेट कर...एक ़खत आपकी जानिब भेजा गया था...वो मैंने ही फैंका था। इतना कह कर वह फिर चुप हो गई थी।
तभी उस ़खातून अफसर ने उठ कर बाहर से एक फौजी जवान को बुला कर उसके लिए पानी का गिलास लाने के लिए कहा। उसने पानी के गिलास में से दो घूंट भरे, और गिलास को मेज पर रखने के बाद, कुछ पलों की चुप्पी के बाद कहा—वो शख्स जिसे आपके जवान बाहर लेकर गये हैं... पाकिस्तानी जासूस है। बहुत बड़ा रईस है। हमारा यह पूरा खानदान वतन और ़कौम से दुश्मनी की राहों पर बहुत दूर तक आगे बढ़ चुका है। मैं यह कुबूल करती हूं कि मौत के ़ख़ौफ के साये तले मैं इनका साथ देते रहने के लिए मजबूर होती रही। एक-एक घड़ी, एक नये दोजख की आग में जलने के लिए भी मजबूर होती रही मैं। मेरा शौहर अश़फाक अली इस सारे मामले की पनाहगाह है। अभी एक ही दिन पहले उसने मुझे तल़ाक-तल़ाक-तल़ाक कह कर तल़ाक दिया और इसी कारण मैं इस एक रात के लिए इस नामुराद शख्स की दुल्हिन ब़ेगम हो निबटी हूं। अब यह पता नहीं और कितने दिन अपनी ब़ेगम बना कर रखता किन्तु आपकी आमद ने मोहतरमा, मुझे दोजख की इस जलती आग में से बाहर खींच लिया है। ...मगर आपने देर कर दी मैडम! थोड़ा जल्दी आ जातीं, तो मैं बीती रात एक-एक पल एक नई मौत मरने से अवश्य बच गई होती।
इतना कह कर उसने एक बार फिर उस अफसर मैडम की ओर नज़रें उठा कर देखा, और फिर उनमें यकीनदहानी की एक चमक को महसूस करके, वह उनके पैरों के पास आकर नीचे ज़मीन पर बैठ गई। अफसर ने उसे दिलासा दिया, तो उसने पिछले दो दिन की घटनाओं का पूरा किस्सा एकबारगी ही लफ्ज़-लफ्ज़ ब्यान कर दिया। अफसर मैडम भी जैसे बुत्त बनी सब कुछ सुनते और महसूस करते बैठी रहीं।
तब तक दिन चढ़ चुका था। नीचे वाले दो कमरों में फौजी जवानों ने एक कमरे में मर्द ज़ात और दूसरे में ख़्वातीन को बंद करके बिठा लिया था। फौज ने यह एक्शन पूरी योजना के साथ किया था। असल में अफसर मैडम वो ़खत मिलने के बाद पूरे माजरा को समझ गई थीं, लेकिन एक्शन करने में देर इसलिए हुई कि वो किसी भी तरह की कोताही के लिए कोई सुराख नहीं रहने देना चाहती थीं। वैसे, उन्होंने ़खत को पढ़ते ही पूरी योजना बंदी करना शुरू कर दी थी। वह ़खत के मज़मून से समझ गई थीं, कि ज़रा-सी अनगहली से उस खातून की जान को ़खतरा हो सकता है। लिहाज़ा वह ़खत लिखने वाली की जान की हिफाज़त भी महफूज़ रखना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने पूरे इलाके की घेराबंदी करा दी थी। इस मकान पर तो ़खास नज़र रखी जा रही थी। यहां तक कि फौज की गुप्तचरी इस मकान में से होकर गुज़रने वाली हवाओं के कदमों की गिनती भी कर रही थी।
फिर जब रात हो गई, और घर के सभी लोग नींद के आ़गोश में जा पहुंचे, तो सेना ने एक्शन कर दिया था। मकान को चारों ओर से घेर कर, एक भेदी से दरवाज़ा खुलवाया गया, और फिर अन्दर घुसते ही सेना के जवानों ने सभी कमरों में दाखिल होकर मर्दों और औरतों को दो अलग कमरों में बंद कर दिया था। फौजी टुकड़ी ने पूरा एक्शन इतनी तेज़ी से किया था, कि किसी को कुछ समझने अथवा सम्भलने का मौका ही नहीं मिला था।
अफसर मैडम को चूंकि ़खत की इबारत देख कर, किसी औरत का ़खत होने का इल्म हो गया था, अत: इस टुकड़ी में कुछ फौजी खातून भी शामिल हुई थीं। 
फौजी अफसर कुर्सी से उठ गई थी। आयशा अभी भी कदमों के भार उकड़ूं होकर बैठी थी। उसने अपनी दोनों बाहें समर्पण कीं न्याईं अफसर मैडम की जानिब आगे बढ़ा दीं। अफसर मैडम ने आगे बढ़ कर उसका हाथ पकड़ कर उसे ऊपर उठाया। उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ रखा जैसे उसे यकीन दिला रही हों, और फिर बोलीं—अपना ब्यान...सब कुछ सच-सच बता देना... तुम्हारे साथ इन्साफ होगा।
इसके बाद उन्होंने ख़्वातीन फौजियों को बुला कर, आयशा को उनके हवाले करते हुए कहा—इनकी ़खैर-़खातिर का ध्यान रखा जाए...यह त़ाकीद है। 

(समाप्त)