स्तरहीन हो रही नेताओं की भाषा, भूल रहे गरिमा

जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय हमारे देश में लगभग 16 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे। स्वतंत्रता के पश्चात समय की सरकारों ने अपने नागरिकों को शिक्षित बनाने के लिए सफल प्रयास किया। आज़ादी से पूर्व भी हमारे सभी समाज सुधारकों ने लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष शिक्षा केंद्र खोले थे, उनमें धन भी लगाया था। अमृतसर में ही मैंने वे स्कूल देखे हैं जो स्वतंत्रता से वर्षों पूर्व केवल लड़कियों को साक्षर बनाने के लिए खोले गए थे, यद्यपि आज उनकी आर्थिक स्थिति बहुत बुरी हो गई है, परन्तु देश की बेटियों को उन्होंने साक्षर भी बनाया, शिक्षित भी किया। भारतेंदु हरिश्चंद  से लेकर राजा राममोहन राय तक, स्वामी दयानंद जी और अन्य समाज सुधारकों ने महिलाओं को उस बंधन से निकाला जहां यह मान्यता बनी हुई थी कि लड़कियों को पढ़ाना अनुचित है। कभी धर्म की दुहाई दी जाती थी और कभी जीवन मूल्यों की। जिस देश के करोड़ों स्त्री-पुरुष हस्ताक्षर नहीं कर सकते थे सिर्फ अंगूठा ही लगाते थे, स्वतंत्रता से पूर्व भी उस देश के  नेता, स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी बेटे-बेटियां साक्षर ही नहीं, उच्च शिक्षित थे। जिसने भी क्रांतिवीरों का इतिहास पढ़ा है कि 14 और 15 वर्ष की दो बेटियों सुनीति और शांति, जिन्होंने त्रिपुरा के कमिश्नर को बम से उड़ाया था, वे आठवीं कक्षा की छात्राएं थीं। 
मदन मोहन मालवीय, रबींद्र नाथ टैगोर, लाल-बाल-पाल, अरविंद जी से लेकर पंजाब, उत्तर प्रदेश व बंगाल के क्रांतिवीरों तक सभी उच्च शिक्षित थे। मदनलाल ढींगरा, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि ने तो विदेश में उच्च शिक्षा पाई थी, पर अपनी साधना राष्ट्र के लिए समर्पित की। आज जिस तरह राजनीतिक नेताओं की भाषा का स्तर नीचे चला गया है, ऐसा उस समय नहीं था।
वैसे कहा जाता है कि परिवर्तन भले के लिए होता है या होना चाहिए, परन्तु हमारे देश में एक ऐसा परिवर्तन हो गया है कि जनता तो उच्च शिक्षित हो गई पर देश में ऐसे नेता मंत्री, विधायक, सांसद बन गए जिन्होंने अभी स्कूल की शिक्षा भी पूरी नहीं की। दुख से यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि राजनीतिक संवाद नेताओं के परस्पर आरोप-प्रत्यारोप, राजनीति की लड़ाई, परिवारों और स्वर्गवासी हो चुके बुजुर्गों तक पहुंच गई है। मैं यह मानती हूं कि जो सामाजिक, राजनीतिक व्यक्तित्व हैं, उनका अपना निजी जीवन कोई नहीं होता। उनका जीवन खुली पुस्तक की तरह रहता है, जिसका कोई भी पृष्ठ ही नहीं, अपितु प्रत्येक शब्द अर्थ रखता है, अनुयायी या उनके मतदाता उनसे सीखते भी हैं। कुछ अनुचित हो तो आलोचना भी करते हैं, परन्तु आशा यह रखते हैं कि उनके नेताओं के जीवन की पुस्तक दूसरों के लिए अनुकरणीय हो, उसमें कोई दाग धब्बा न हो।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि जब देश स्वतंत्रता के आंदोलन में बलिपथ पर आगे बढ़ा था, तब लोग साक्षर नहीं थे। नेता सामाजिक मर्यादा का, व्यक्तिगत चरित्र का, भाषा की गरिमा का कभी हनन नहीं करते थे। आज नेताओं की भाषा स्तरहीन हो गई है। अफसोस इस बात का है कि ये नेता कुछ भी बोलें, उनके आगे-पीछे तालियां बजाने वाले हर समय हाज़िर रहते हैं। नेता के शब्दों का स्वागत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने दुष्कर्म के अपराधी लड़कों के पक्ष में एक वक्तव्य दिया था तो तालियां बजी थीं। महाराष्ट्र के एक नेता ने जब उत्तर भारतीयों के विरुद्ध अभियान चलाया तब भी उसका समर्थन करने वालों की कोई कमी नहीं थी। 
कुछ नेता दल बदलने में उतना समय ही लगाते हैं जितना पुराने कपड़े उतारकर नये पहनने में। इसी प्रकार 2022-23 में जिन नेताओं ने दल बदला, वे यह भूल गए कि दो सप्ताह से पहले तक वे जिस पार्टी के लिए दुनिया भर के अपशब्दों का प्रयोग करते थे, आरोप लगाते थे, उसी पार्टी में जब उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य दिखाई देने लगा तो उनकी भाषा से नई पार्टी के लिए स्तुति गान और पुरानी पार्टी के लिए घटिया शब्द निकलते हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि आखिर जनता उन पर विश्वास क्यों और कैसे कर लेती है? मुझे तो इतना ही कहना है कि सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन में जो अग्रणी हैं, सत्ता के शिखर पर बैठे हैं, उन्हें शब्दों का चयन केवल भाषा से नहीं, मन से करना चाहिए। भाषा की गरिमा उनका गौरव भी बढ़ाएगी और उनकी पार्टी या संगठन का भी। देश के कुछ नेताओं की भाषा में जो गिरावट आई है, वह चिंता का विषय है। पूरे देश के लिए, पूरे समाज के लिए। आशा रखती हूं कि लोकतंत्र में लोग मौन नहीं रहेंगे और इन नेताओं को यह सिखाएंगे कि जनता का नेतृत्व करने के लिए उन्हें कैसा नेता चाहिए। स्तरहीन भाषा बोलने वाला नहीं, चाहे विधानसभा हो, संसद हो या जनसभा।