क्या अजित पवार की ब़गावत विपक्षी दलों की एकता को प्रभावित करेगी ?

कुछ माह से जो राजनीतिक अनुमान लगाया जा रहा था आ़िखरकार वही हुआ। 2 जुलाई 2023 को अजित पवार ने महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री के रूप में नवम्बर 2019 के बाद से तीसरी बार शपथ ली और हर बार अलग मुख्यमंत्री (देवेन्द्र फडनवीस, उद्धव ठाकरे व एकनाथ शिंदे) के अधीन। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद से अगर अजित के राजनीतिक सफर पर सरसरी निगाह डाली जाये तो महाराष्ट्र में गठबंधन राजनीति की पूरी तस्वीर सामने आ जाती है, जो निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है। 2019 के विपरीत अजित ने इस बार अकेले शपथ नहीं ली बल्कि एनसीपी के आठ अन्य विधायकों ने भी मंत्री पद की शपथ ली, जिससे यह संकेत मिलता है कि एनसीपी में जो राजनीतिक खींचतान चल रही है, उस पर जल्द विराम लगने नहीं जा रहा है। 2019 में अजित ने तीन दिन के भीतर इस्तीफा दे दिया था। अनुमान यह है कि एनसीपी के 54 में से 35 विधायकों ने पाला बदला है, जिसे पार्टी सुप्रीमो शरद पवार ने ‘विद्रोह’ या ‘धोखा’ नहीं बल्कि ‘डकैती’ कहा है।
बहरहाल, शिंदे सरकार के पास जो इस समय विधायकों की संख्या है, वह राज्य में आवश्यक रूप से स्थिरता की गारंटी नहीं है। महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता अब दो स्रोतों से उत्पन्न हो रही है। एक, शिंदे व शिव सेना के अन्य विधायक जिन्होंने 2022 में विद्रोह किया था, उनके समक्ष कानूनी चुनौती है। विधायक पार्टी में विभाजन के संदर्भ में मई में सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा स्पीकर के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किये थे। सुप्रीम कोर्ट ने विधायक शाखा पर राजनीतिक पार्टी को वरीयता प्रदान की। इसलिए पार्टी का संविधान और उसके अध्यक्ष का फैसला अधिक महत्वपूर्ण होगा बजाय इसके कि उसके विधायक क्या तय करते हैं, भले ही वह अपनी पार्टी की विधानसभा संख्या के हिसाब से बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हों। गौरतलब है कि विधानसभा स्पीकर राहुल नारवेकर को अभी शिंदे कैंप के शिव सेना विधायकों की ़िकस्मत का फैसला करना शेष है। नतीजतन, न केवल इनके बारे में अनिश्चितता है बल्कि एनसीपी विद्रोहियों को भी कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है; क्योंकि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार ने विद्रोह का विरोध किया है। दूसरा यह कि महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता केवल कानूनी जटिलताओं तक सीमित नहीं है। वर्तमान गठबंधन सरकार को विचारधाराओं से संबंधित आशाओं के प्रबंधन की चुनौती का भी सामना करना पड़ेगा। मसलन, एनसीपी के विधायकों को मंत्री पद की शपथ तो दिला दी गई, लेकिन विभाग आवंटित नहीं किये गये। 
ज्ञात रहे कि जून के शुरू में महाराष्ट्र ने अजीबोगरीब किस्म के विज्ञापन देखे, जिससे शिंदे और उनके उप-मुख्यमंत्री फडनवीस के बीच जो असहज समीकरण है वह मुखर हो गया। इन विज्ञापनों में शिंदे को फडनवीस से बेहतर प्रशासक व मुख्यमंत्री बताया गया था, जिस पर भाजपा ने अपनी नाराज़गी भी व्यक्त की थी। अब एक और उप-मुख्यमंत्री व उसके सहयोगी मंत्री हैं, जिन्हें शिंदे को डील करना होगा। विभिन्न व विविध हितों का प्रबंधन करना शिंदे के लिए कठिन होने जा रहा है। पिछले एक वर्ष के दौरान सरकारों के जो रंग बदले हैं, उससे यह तथ्य अनदेखा नहीं होना चाहिए कि स्थानीय निकायों के चुनाव कराने की अवधि भी निकल चुकी है। इन चुनावों के आयोजन को केवल इसलिए टाला जा रहा है, क्योंकि विद्रोही विधायकों की ज़मीनी पकड़ की पोल खुलने के अंदेशे हैं, विशेषकर इसलिए कि राज्य में जो शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के बाद उप-चुनाव हुए हैं, उनमें अधिकतर में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) के प्रत्याशियों ने ही जीत दर्ज की है। 
हाल ही में अजित ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि स्थानीय निकायों के चुनाव कराने में एक वर्ष से अधिक की देरी क्यों की गई है? यह चुनाव अति शीघ्र आयोजित कराये जाने चाहिए, न केवल प्रशासनिक व्यवस्था को बेहतर करने के लिए बल्कि यह जानने के लिए भी कि नेताओं के दल बदल पर मतदाताओं की प्रतिक्रिया क्या है? महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं। अजित के विद्रोह से पहले की ज़मीनी रिपोर्ट यही संकेत दे रही थीं कि 2024 के आम चुनाव में एमवीए निश्चित रूप से भाजपा पर भारी पड़ेगी। अब क्या स्थिति में कोई परिवर्तन आयेगा? क्या इससे विपक्षी दलों का एकता प्रयास प्रभावित होगा? क्या एनडीए मज़बूत होगी? फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगा। लेकिन इतना तो तय है कि इस विद्रोह से एनसीपी कमज़ोर हुई है। शरद पवार के लम्बे समय से करीबी साथी जैसे दिलीप वाल्से पाटिल, छगन भुजबल, धनंजय मुंडे व हसन मुशरिफ उन्हें छोड़कर चले गये हैं। प्रफुल पटेल जिन्हें हाल ही में शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले के साथ एनसीपी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था, वह भी अजित के कैंप में चले गये हैं। 
प्रफुल पटेल राज्यसभा के सदस्य हैं। अनुमान यह है कि केन्द्र में जल्द होने जा रहे मंत्रिमंडल विस्तार/फेरबदल में उन्हें भी मंत्री बनाया जा सकता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि केन्द्र सरकार दिल्ली की राज्य सरकार से संबंधित जो अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए लेकर आयी थी, उसे राज्यसभा में पारित कराने में पटेल की भी भूमिका हो जायेगी। एनसीपी कमज़ोर अवश्य हुई है, लेकिन उसकी असल पहचान आज भी शरद पवार का ही चेहरा है। पार्टी के कार्यकर्ता भी उन्हीं से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं, जैसे शिव सेना के कार्यकर्ता उद्धव ठाकरे से जुड़े हुए हैं। पार्टी को पहचान देने वाले नेता अगर सलामत हों तो नये विधायकों व सांसदों को खड़ा किया जा सकता है। इसलिए ऐसा मुश्किल ही लगता है कि शिंदे व अजित के विद्रोह एमवीए के चुनावी मंसूबों को कोई खास प्रभावित कर पायेंगे, विशेषकर जब जनता में यह संदेश पहुंचा हो कि केन्द्रीय जांच एजेंसीज के दबाव में और उनसे बचने के लिए यह विद्रोह हुए हैं या कराये गये हैं। 
जब पहली बार अजित ने उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो उन पर भ्रष्टाचार के जो गंभीर 7-8 केस थे, उन्हें वापस ले लिया गया था। अब एनसीपी के जिन आठ विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली है, उनमें से कम से कम पांच पर अलग-अलग मामलों में ईडी की जांच चल रही है। इन मंत्रियों पर मनी लौंडरिंग से लेकर बैंक लोन फ्रॉड और ड्रग तस्कर इ़कबाल मिर्ची (जो अब मर चुका है) से लेन देन के संबंध जैसे गंभीर आरोप हैं। इन्हीं को मद्देनज़र रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सार्वजनिक भाषण में एनसीपी नेताओं पर 70,000 करोड़ रूपये का भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया था और फडनवीस ने रिकार्डेड वीडियो में दावा किया था कि अजित पवार जल्द जेल में ‘चक्की पीसिंग, चक्की पीसिंग’। अब इन सभी को ‘क्लीन चिट’ मिल गई है, जिससे जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक का यह आरोप सही लगने लगता है कि मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास समस्या नहीं है। भाजपा के लिए दूसरी समस्या यह भी है कि नये साथ आने वालों की वजह से उसके पुराने कर्मठ कार्यकर्ताओं के लिए जगह नहीं बचती और वह दल बदल के लिए मजबूर हो जाते हैं, जैसा कि मध्य प्रदेश में देखने को मिल रहा है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर