अभी अकाली-भाजपा गठबंधन की सम्भावना नहीं

शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं।।
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं।
(वसीम बरेलवी)
इस समय मीडिया तथा सोशल मीडिया दोनों में हड़कम्प मचा हुआ है, जैसे कि अकाली दल तथा भाजपा का समझौता बस अभी हुआ, कि अभी हुआ। हम नहीं कहते कि अकाली दल तथा भाजपा में समझौता नहीं हो सकता। यह हो सकता है, क्योंकि यह दोनों पक्षों की ज़रूरत है, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार यह समझौता अभी इतना शीघ्र होने की अधिक सम्भावनाएं नहीं हैं। इसमें अभी बहुत समय लग सकता है, क्योंकि हम समझते हैं कि यह समझौता करने के लिए भाजपा में यह अधिकार सिर्फ तीन नेताओं के हाथों तक ही सीमित है। ये हैं भाजपा के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की इस विषय पर अब तक इन तीनों में से किसी के साथ भी कोई मुलाकात या विचार-विमर्श नहीं हुआ।
इसलिए जिस तरह मीडिया में चर्चा है कि समझौता बस अभी हुआ, कि अभी हुआ, ठीक नहीं प्रतीत होती। वैसे भी सुनील जाखड़ का पंजाब भाजपा का अध्यक्ष बनना भी इस समझौते की सम्भावनाओं में कुछ जटिलताएं ही लायेगा। चाहे श्री जाखड़ ने कहा है कि समझौते संबंधी कोई भी फैसला तो हाईकमान ने करना है, परन्तु जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, वह यही है कि श्री जाखड़ इस समझौते के पक्ष में शायद ही होंगे, क्योंकि उनका लक्ष्य पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी है, जो उन्हें मिलते-मिलते रह गई थी। यह कुर्सी तो सिर्फ भाजपा को इतना मज़बूत करके ही मिल सकती है कि भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने में सक्षम हो। वैसे यह सम्भव हो सकता है या नहीं, यह तो समय ही बताएगा, परन्तु मौजूदा समय में नीति तथा विचारधारा में बड़ा विरोध होने के बावजूद, मौजूदा स्थितियों के अनुसार चुनावी राजनीति में दोनों पक्षों को ही एक-दूसरे की ज़रूरत है। संगरूर तथा जालन्धर लोकसभा उप-चुनावों ने यह साबित भी कर दिया है कि मौजूदा हालात में दोनों पार्टियां अपने दम पर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में सक्षम नहीं हैं।
समझौता होना मुश्किल नहीं
हां, यह ठीक है कि अकाली दल तथा भाजपा के मध्य पुन: समझौता होना मुश्किल नहीं है। अकाली दल इस समय भाजपा को 5 से 6 लोकसभा सीटें देने के लिए सहमत हो सकता है। इनमें भाजपा द्वारा पहले लड़ी जाती गुरदासपुर, पठानकोट तथा होशियारपुर के अतिरिक्त पटियाला तथा लुधियाना सीटें शामिल हो सकती हैं, जबकि यदि 6वीं सीट भाजपा को देनी पड़ी तो अकाली दल संगरूर या फिर कोई  आरक्षित सीट देना चाहेगा, जबकि भाजपा का प्रयास श्री आनंदपुर साहिब या जालन्धर सीट लेने का होगा। वैसे भी संगरूर लोकसभा उप-चुनाव में भाजपा अकाली दल से आगे रही थी, परन्तु अकाली दल की बड़ी शर्त यह होगी कि यदि भाजपा को लोकसभा की 6 सीटें देनी भी पड़ें तो वह 6 सीटों में पड़ती 54 विधानसभा सीटें नहीं, अपितु विधानसभा चुनावों में 40 सीटों पर ही सन्तोष करे तथा मुख्यमंत्री का पद अकाली दल के लिए रहे तथा यह बात पहले ही समझौते का हिस्सा बने।
परन्तु इसके साथ ही अकाली दल का प्रयास पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन नहीं, अपितु भाजपा, अकाली, बसपा गठबंधन का होगा। ऐसी स्थिति में एक लोकसभा सीट तथा 9 या 10 विधानसभा सीटें बसपा को देने की बात पर विचार किया जाएगा, परन्तु हम समझते हैं कि मौजूदा समय में तो अकाली-भाजपा समझौते की बात ‘ऐतबार साजिद’ के इस शे’अर जैसी स्थिति में है :
गुफ़्तगू देर से जारी है नतीजे के बगैर,
एक नई बात निकल आती है हर बात के साथ।।
सुनील जाखड़ अध्यक्ष कैसे बने?
हैं और भी दुनिया में स़ुखन-वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ‘़गालिब’ का है अंदाज़-ए-बयां और।।
मैं सुनील जाखड़ के पिता श्री बलराम जाखड़ को अपने फिरोज़पुर में रहने के दौरान से जानता था। वह बहुत परिपक्व राजनीतिज्ञ थे जबकि मेरे गणित के अनुसार सुनील जाखड़ उतने परिपक्व तथा घाघ राजनीतिज्ञ तो नहीं, परन्तु ज्यादा सिद्धांतप्रिय तथा सूझवान राजनीतिज्ञ ज़रूर हैं। नि:संदेह ़गलितयां किसी से भी होती हैं तथा गुस्से में ज़ुबान लगभग सभी की फिसल जाती है परन्तु सुनील जाखड़ एक अच्छे इन्सान, अपनी बात पर पहरा देने वाले तथा आम तौर पर पंजाबी पक्षीय स्टैंड लेने वाले राजनेता हैं। उन्हें एक शऱीफ नेता भी माना जाता है।
अब अश्विनी शर्मा को घोड़े से उतार कर सुनील जाखड़ को गद्दी पर बिठाया गया है। इस समय यह सबसे बड़ी चर्चा का विषय है कि सुनील जाखड़ भाजपा के अध्यक्ष कैसे बने? हमारी जानकारी के अनुसार तो उन्हें इस पद पर पहुंचाने का आधार जालन्धर उप-चुनाव के दौरान ही रखा गया था। जब भाजपा हाईकमान ने पंजाब भाजपा की सलाह को दर-किनार करके इन्द्र इकबाल सिंह अटवाल को जालन्धर लोकसभा के उप-चुनाव में पार्टी उम्मीदवार घोषित किया था। उस समय भी पंजाब भाजपा के अध्यक्ष अश्विनी शर्मा का इसके प्रति रवैया भाजपा हाईकमान को किसी सीमा तक नाराज़ कर गया बताया जाता है, परन्तु जालन्धर उप-चुनाव में पार्टी की बुरी कारगुज़ारी ही इसका एकमात्र कारण नहीं है। बताया गया है कि अश्विनी शर्मा द्वारा अन्य पार्टियों से भाजपा में आए बड़े नेताओं की परवाह कम ही की जाती थी, जिसके कारण यह चर्चा ज़ोर पकड़ गई थी कि कुछ प्रमुख नेता ‘घर वापसी’ के बारे में सोचने लग पड़े हैं, जो भाजपा हाईकमान को स्वीकार नहीं था। फिर अश्विनी शर्मा पंजाब में भाजपा को पूरी तरह स्थापित करने में भी सफल नहीं हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों के दृष्टिगत हालात धीरे-धीरे अश्विनी शर्मा के खिलाफ होते गये। वैसे भी भाजपा में तीन वर्षों के बाद प्रदेश इकाइयों के अध्यक्ष बदल दिये जाते हैं। 
सुनील जाखड़ को अध्यक्ष बनाने का फैसला चाहे विशुद्ध भाजपा हाईकमान का है, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार जाखड़ के पक्ष में मुख्य रूप से भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, पंजाब के पूर्व भाजपा प्रभारी एवं केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत खड़े बताए जा रहे हैं। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह तो जाखड़ के पक्ष में थे ही, परन्तु दिल्ली के पंजाबी भाजपा नेताओं में से भी कोई अश्विनी शर्मा के पक्ष में नहीं था। चर्चा है कि अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन इकबाल सिंह लालपुरा स्वयं पंजाब भाजपा का अध्यक्ष बनने के इच्छुक थे जबकि मनजिन्द्र सिंह सिरसा गुट जो दिल्ली की सिख राजनीति में बड़ा प्रभाव रखते हैं और गृह मंत्री अमित शाह के काफी निकट हैं, भी जाखड़ के पक्ष में खुल कर आ गए थे। यह बताया जा रहा है कि पंजाब भाजपा के संगठन मंत्री श्री निवासलू तथा पंजाब भाजपा के प्रभारी गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी भी अश्विनी शर्मा के पक्ष में नहीं रहे थे जबकि भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बी.एल. संतोष भी इस मामले में चुप्पी धारण किए हुए बताए जा रहे हैं। भाजपा ने सुनील जाखड़ को अध्यक्ष बना कर एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया है। जाखड़ एक हिन्दू तथा जाट नेता हैं। हिन्दू भाजपा का कोर वोट बैंक हैं। जाट होने के बावजूद जाखड़ का पंजाबी जट्टों में काफी प्रभाव है। कांग्रेस में बड़े पदों पर रहने के कारण वह भाजपा में आए कांग्रेस नेताओं को साथ रखने में सफल होंगे। उनकी नियुक्ति से भाजपा के टकसाली नेता चाहे नाराज़ हैं, परन्तु पार्टी को पता है कि वे नाराज़गी सिर्फ भीतर ही भीतर व्यक्त करेंगे, ब़गावत नहीं करेंगे। इसका पहला प्रमाण जाखड़ के श्री अमृतसर के दौरे के समय मौजूदा अधिकतर भाजपा नेताओं की उपस्थिति से मिल जाता है। 
़िखराज़-ए-अ़कीदत बीर दविन्दर जी
नि:संदेह हम स्वर्गीय बीर दविन्दर सिंह की राजनीति से सहमत नहीं थे, परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि वह अपने द्वारा प्राप्त किए गए पदों से कहीं बड़ी शख्सियत थे। राजनीति में कई बार किसी व्यक्ति की योग्यता तथा उसका स्वभाव भी उसे आगे नहीं बढ़ने देता, परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि बीर दविन्दर सिंह एक ऐसे सिख एवं पंजाबी चिन्तक थे, जिन्हें पंजाब एवं सिखी के हर लाभ-हानि से सरोकार था। वह अपनी बात पूरी स्पष्टता, दृढ़ता और निडर होकर कहने में समर्थ थे। चाहे उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। उन्हें उर्दू, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी भाषा की जिनती समझ थी, वर्तमान युग में ऐसा सुमेल कम ही मिलता है। मैं निजी तौर पर जानता हूं कि वह पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत के साथ-साथ सिखी की बेहतरी के लिए कुछ भी कहने तथा कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। उर्दू शायरी के वह दीवाने थे। वह सही अर्थों में पुरानी तथा नई सोच का सुमेल थे। उनके निधन से पंजाब ने एक बड़ा हमदर्द, एक बड़ा चिन्तक तथा एक बड़ा दानिशवर खो दिया है। उन्होंने सदा अपनी शान एवं स्वाभिमान को सलामत रखने के लिए अपने राजनीतिक नुकसान किए। मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने के लिए मिला। मुझे उनका अंतिम संदेश 15 जून, 2023 को अस्पताल से मिला था। आशा थी कि वह लौट आएंगे, परन्तु नहीं लौटे। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी सदा फैज़ के इस शे’अर की सोच की भांति व्यतीत की :
जिस धज से कोई म़कतल में 
गया वो शान सलामत रहती है।
यह जां तो आनी-जानी है 
इस जां की कोई बात नहीं। 
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना 
-मो. 92168-60000