भाजपा की व्यापक योजना का हिस्सा है राकांपा का विभाजन 

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के प्रमुख शरद पवार का दावा है कि वह 82 साल की उम्र में न तो थके हैं और न ही सेवा-निवृत्त हुए हैं। अपनी पार्टी में हालिया राजनीतिक संकट से प्रभावित हुए बिना भाजपा द्वारा राकांपा में विभाजन कराने के बाद सबसे बुजुर्ग व्यक्ति ने अपनी सिकुड़ती हुई पार्टी को फिर से खड़ा करना शुरू कर दिया है।
शरद पवार ने 1999 में कांग्रेस से बगावत करते हुए पार्टी की स्थापना की थी। वह इस समय अपने गुट को एकजुट रखने की बेहद कठिन चुनौती का सामना कर रहे हैं। शरद पवार की उम्र अधिक है और उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं। उनकी मुसीबतें और भी बढ़ गयी हैं, क्योंकि उनके भतीजे अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल समेत उनके अनेक वफादार, जिन्हें उन्होंने वर्षों तक तैयार किया था, उन्हें छोड़कर भाजपा गठबंधन में शामिल हो गए हैं। वर्तमान शिव सेना-भाजपा सरकार के पास संख्या बल था और उसे राकांपा गुट की ज़रूरत नहीं थी। सवाल यह है कि जब शिंदे सरकार आराम से सत्ता में है तो पार्टी ने राकांपा के बागियों को लालच क्यों दिया? राजनीतिक ड्रामा दो स्तरों पर चलता है—एक क्षेत्रीय और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर। बड़ी कहानी महाराष्ट्र संकट नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव और विपक्षी एकता पर इसके प्रभाव की है। 2024 के लोकसभा चुनाव से सिर्फ  9 महीने पहले, सभी पार्टियों का चुनावी भविष्य दांव पर है। मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। जहां तक महाराष्ट्र की बात है तो अगले साल चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश (80 लोकसभा सीट) के बाद राज्य में संसद की दूसरी सबसे अधिक लोकसभा सीटें (48) महाराष्ट्र से हैं। भाजपा अपनी स्थिति को सुधारना चाहती है।
शरद एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने पांच दशक से अधिक के अपने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। वह चार बार मुख्यमंत्री, केंद्र में रक्षा मंत्री और कृषि मंत्री भी रहे हैं। एकमात्र चीज जो वह हासिल नहीं कर सके वह थी प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद उन्होंने रिंग में कदम रखा लेकिन मौका गंवा दिया। भाजपा ने एक साथ कई निशाने सफलतापूर्वक साधे हैं। पार्टी ने शरद पवार से अपना बदला लिया, क्योंकि 2019 में शरद ने शिव सेना से किनारा कर लिया था। उन्होंने कांग्रेस को मनाया और महाविकास अघाड़ी गठबंधन सरकार बनायी। बदला लेने के लिए भाजपा ने शिव सेना को विभाजित कर दिया और पिछले साल शिव सेना के बागी एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया।
अब विभाजन का सामना करने की बारी राकांपा की थी। मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाले अजित को भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस के साथ काम करना होगा जो इसी पद पर हैं। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को आशंका है कि अजित पवार को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। शिंदे और अन्य सेना विद्रोहियों को अयोग्यता मामले का सामना करना पड़ रहा है और अगस्त में फैसला आने की उम्मीद है। राकांपा के विभाजन के बाद महाराष्ट्र में राजनीतिक परिस्थितियां भाजपा के पक्ष में हो गईं। मोटे तौर पर शरद पवार कमज़ोर हुए और कांग्रेस को फायदा मिला। भाजपा चुनाव से पहले सत्ता मज़बूत करने तथा मराठा और ओबीसी समर्थन फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है। पार्टी को 2014 से 2019 तक ओबीसी के अपने पारम्परिक वोट आधार को बनाये रखते हुए मराठों का मज़बूत समर्थन मिला। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा अभी तक कर्नाटक विधानसभा चुनावों में मिली हार से उबर नहीं पायी है। यह अन्य चुनावी राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सुधार की संभावना पर निर्भर करता है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा का कब्जा है। 
दूसरे स्तर पर राकांपा विभाजन ने विपक्षी खेमे को सदमे में डाल दिया है। इससे लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा विरोधी ताकतों को एकजुट करने के विपक्ष के प्रयास प्रभावित हो सकते हैं। शरद पवार एकता के कदम में प्रमुख खिलाड़ियों में से एक हैं। हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने पटना में गैर-भाजपा नेताओं की बैठक बुलायी थी जिसमें 16 विपक्षी दलों ने हिस्सा लिया। उन्होंने एकजुटता प्रदर्शन किया और भाजपा को हराने के अपने साझा उद्देश्य को हासिल करने के लिए सहयोग करने का वायदा किया। एक और बैठक 17 और 18 जुलाई को बेंगालुरु में होने वाली है।
अस्थिरता का सामना करने वाला अगला राज्य बिहार हो सकता है। जद (यू) लम्बे समय तक भाजपा की सहयोगी रही है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने पिछले साल भाजपा को छोड़ दिया था और राजद, कांग्रेस, वाम दल और अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार बना ली थी। यदि जद (यू) के पर्याप्त विधायक दल-बदल करते हैं, तो भाजपा बिहार में सरकार बना सकती है जिससे विपक्षी एकता की चाल काफी कमज़ोर हो जायेगी। बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। पश्चिम बंगाल एक और लक्ष्य हो सकता है क्योंकि भाजपा ने इसमें प्रवेश करने की बहुत कोशिश की है, लेकिन सफलता नहीं मिली है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रस्तावित गैर-भाजपा गठबंधन के सक्रिय सदस्यों में से एक हैं। भाजपा बंगाल में ममता को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है, लेकिन अभी तक वह सफल नहीं हो पाई। 
महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक अनिश्चितता अदालतों और चुनाव आयोग में कानूनी लड़ाई के कारण लम्बी खिंच सकती है। स्पीकर नार्वेकर के फैसले में भी देरी हो सकती है। अपनी कई चुनौतियों के बावजूद पवार एक लचीला और दुर्जेय व्यक्ति साबित हुए हैं। हो सकता है कि पवार अपने भतीजे और षड्यंत्रकारी भाजपा के खिलाफ  लड़ाई हार गये हों, लेकिन क्या वह अंतत: अपनी पार्टी और प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने के लिए युद्ध जीत पायेंगे? क्या लड़ाई खत्म हो गयी है, बिल्कुल नहीं। 2024 के चुनाव एक ऐसा युद्ध है जिसमें राजनीतिक योद्धा अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे, नीति-अनीति की परवाह किये बिना। (संवाद)