लोकतंत्र में राजनीतिक द्वेष की भावना का होना उचित नहीं

देश ने वह इतिहास भी देखा है जबकि जून 1975 में आपातकाल की घोषणा करने व स्वतंत्र मीडिया को केंद्रीय सत्ता द्वारा नियंत्रित करने जैसे प्रयासों के बाद तानाशाह के रूप में प्रचारित की गई इंदिरा गांधी को देश की जनता ने सत्ता से हटा दिया था। उस समय इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व विश्व के बड़े व लोकप्रिय नेताओं जैसा हुआ करता था। 5 वर्ष पूर्व ही इंदिरा गांधी के फैसलों की बदौलत पाकिस्तान विभाजित हुआ था और बांग्लादेश नामक नया राष्ट अस्तित्व में आया था। इंदिरा गांधी के सबल व कुशल नेतृत्व में ही भारतीय सेना ने 13 दिवसीय युद्ध के बाद 16 दिसम्बर, 1971 को ढाका में पाकिस्तानी सेना के 93,000 से अधिक सैनिकों का आत्मसमर्पण कराया था। यह अब तक का विश्व का सबसे बड़ा सैन्य आत्म समर्पण है। इस निर्णायक जीत के बाद ही भारत एशिया में एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित हो गया था परन्तु इंदिरा गांधी की इतनी महान राजनीतिक शख्सियत होने के बावजूद देश की जनता ने उनके किसी भी तानाशाही प्रयासों को स्वीकार नहीं किया और आपातकाल हटने के बाद होने वाले चुनाव में 1977 में उन्हें सत्ता से बेदबल कर दिया। जनता पार्टी की सरकार बनते ही इंदिरा गांधी को परेशान करने व उन पर मुकद्द्मे चलाने व जांच कमीशन बिठाने का सिलसिला शुरू हुआ था। जनता यह भी गौर से देखती रही। इंदिरा गांधी व उनके पुत्र संजय गांधी दोनों पर अनेक मुकद्द्मे चलने लगे। यहां तक कि 3 अक्तूबर 1977 को सीबीआई के अधिकारियों ने शाम सवा 5 बजे इंदिरा गांधी को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। दरअसल  कई नेता आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ हुई कथित ज़्यादती का बदला लेने की गरज़ से इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेज कर अपमानित करना चाहते थे। यही वजह थी कि सत्ता के इशारे पर सीबीआई के अधिकारियों ने  इंदिरा गांधी को शाम सवा 5 बजे केवल इसलिये गिरफ्तार किया ताकि उन्हें तत्काल ज़मानत का अवसर न मिल सके और उन्हें कम से कम एक रात जेल में ज़रूर गुज़ारनी पड़े। बिना सबूत के और केवल बदला लेने हेतु की गयी इस गिरफ्तारी में भी जब कानूनी कार्यवाही शुरू हुई और जज ने इंदिरा गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार संबंधी सबूत तलब किये तो उस समय भी अभियोग पक्ष (सरकार) के पास उनको अपराधी साबित करने के लिये कोई सबूत नहीं था। परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी को अदालत ने बरी कर दिया और जब जनता पार्टी में सर फुटव्वल मची तो इंदिरा गांधी की राजनीतिक सूझबूझ के चलते 1979 में देश में लोकसभा के उप-चुनाव हुए और मात्र अढ़ाई वर्ष पूर्व सत्ता से तानाशाही जैसे आरोपों में सत्ता से हटने वाली इंदिरा गांधी की सत्ता में पुन: वापसी हुई। इसी लिये इंदिरा गांधी से बदला लेने हेतु की गयी इस गिरफ्तारी को ‘ऑपरेशन ब्लंडर’ का नाम दिया गया था। 
कुछ वैसे ही या उससे भी बदतर हालात देश में एक बार फिर नज़र आ रहे हैं। राष्ट्र निर्माता प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को वर्तमान सत्ताधारियों व उनकी विचारधारा के लोगों द्वारा खूब अपमानित किया जा रहा है। उनकी उपलब्धियों को छुपाकर उनके चरित्र व तमाम राजनीतिक फैसलों को दोषपूर्ण बताया जाता है। सोनिया गांधी व उनके पुत्र कांग्रेस अध्यक्ष रहे राहुल गांधी को अनेक मामलों में फंसाने की कोशिशें की जा रही हैं। नेशनल हेराल्ड से जुड़े कथित मनी लॉन्ड्रिंग केस के नाम पर 75 वर्षीय सोनिया गांधी व राहुल गांधी से कई बार ईडी के कार्यालय बुलाकर लम्बी पूछताछ की गई। यह भी राजनीतिक द्वेष की भावना से की गई कार्रवाई थी। दरअसल  दक्षिण पंथियों को स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले नेहरू-गांधी परिवार व कांग्रेस पार्टी से इसलिये भी नफ्रत है क्योंकि यह परिवार व कांग्रेस पार्टी भारत की आत्मा में बसने वाली धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के ध्वजावाहक है। जबकि वर्तमान केंद्रीय सत्ता खांटी हिंदूवादी सोच की अलम्बरदार है। इसीलिये समय-समय पर सत्ता के शीर्ष से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की आवाज़ भी सुनाई देती रहती है। 
गांधी नेहरू परिवार से कथित नफरत का यह सिलसिला राहुल गांधी को घेरने, उन्हें अपमानित व परेशान करने के रूप में भी लगातार सामने आ रहा है। इसकी भी वजह यह है कि सत्ता की जिस दुखती नब्ज़ पर राहुल हाथ रखते हैं, वह साहस विपक्ष का कोई भी नेता नहीं दिखा पाता। राहुल के परिवार की पृष्ठभूमि ही ऐसी है कि उन्हें डराना धमकाना आसान काम नहीं। 
राहुल गांधी पर अनेक भाजपा शासित राज्यों में भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा विभिन्न मामलों में कई मुकद्द्मे दर्ज करा दिये गये हैं। ऐसे ही मोदी उप-नाम वाले एक आपराधिक मानहानि के मामले में गुजरात में सूरत की एक निचली अदालत ने राहुल गांधी को दो वर्ष के कारावास की अधिकतम सज़ा सुनाई। सूरत के इस अदालती आदेश के खिलाफ जब राहुल गांधी गुजरात हाईकोर्ट गए तो उन्हें वहां से भी राहत नहीं मिली। लोकसभा अध्यक्ष ने आनन-फानन में राहुल की लोकसभा सदस्यता निलम्बित कर दी थी। यहां तक कि कुछ ही दिनों के भीतर उनसे उनका सरकारी बंगला भी खाली करवा लिया गया था। अंतत: उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा और कोर्ट ने उनकी सज़ा पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले में यह भी कहना पड़ा कि ट्रायल जज ने बिना पर्याप्त कारणों और आधार के दो साल की अधिकतम सज़ा सुनाई है। यदि सज़ा दो साल से एक दिन भी कम होती तो राहुल गांधी की लोकसभा सदस्य्ता समाप्त नहीं होती। इससे देश की जनता में साफ सन्देश गया कि सब कुछ पूर्णत: नियोजित तरीके से किया गया ताकि राहुल गांधी को संसद से बाहर रखा जा सके और सत्ता को आईना दिखने वाले उनके चुभते सवालों से बचा जा सके। अब राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल हो गई है।